नरम हिन्दुत्व या ‘सेकुलर’ दलों की लड्डू पॉलिटिक्स?

तिरुपति मंदिर में तैयार हो रहे लड्डुओं में मिलावट पर गुजरात की प्रयोगशाला की जुलाई की एक रिपोर्ट के चुनिंदा अंश हरियाणा आदि राज्यों में हो रहे चुनावों के ऐन पहले सार्वजनिक करने की बेचैनी इस बात की तरफ साफ इशारा कर रही थी कि मामला इतना आसान नहीं है

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क्या हरियाणा में परिवर्तन की नई संभावना होंगी कुमारी शैलजा?

कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के सन्देश को प्रदेश में 90 विधानसभा तक पहुँचाने के उद्देश्य से शुरू की गई इस यात्रा में जिस तरह लोग कड़ाके की ठंड में बाहर आए हैं और देर रात तक सड़कों पर दिखाई दिए, ऐसी उम्मीद शायद एसआरके गुट को भी न रही होगी।

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गुजरात चुनाव सत्ता को कांग्रेस द्वारा दिया गया ‘वाकओवर’ था! कुछ जरूरी बिन्दु

गुजरात चुनाव का कांग्रेस के लिए एक स्पष्ट सन्देश यही है कि वह मास पॉलिटिक्स के अपने सांगठनिक राजनैतिक तंत्र पर पुनः विचार करे। अन्यथा उसकी जगह आप पार्टी लेने को तैयार है।

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आज़ाद भारत में दलित सशक्तिकरण के तीसरे चरण की शुरुआत

भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमजोर करने के इन षड्यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है। भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है।

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चुनावी पॉलिटिक्स की असाध्य वीणा को यात्रा से साधने की एक कोशिश

भविष्य राहुल गांधी का ही मगर इसके लिए राहुल गांधी को एक लकीर खींचनी पड़ेगी। यह लकीर तब तक नहीं खींच सकते जब तक कांग्रेस के वेटरन चाटुकारों की सरपरस्ती से राहुल खुद को निकाल कर अपनी एक अलग इमेज नहीं बना लेते। यह भारत जोड़ो यात्रा दरअसल राहुल की इमेज बनाने की कवायद ही है।

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क्या ‘परिवार’ की कांग्रेस ही राहुल गांधी के सपनों की नयी कांग्रेस है?

अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी को लेकर मचे घमासान से बात साफ हो गयी थी कि ‘परिवार’ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ को ढीली नहीं पड़ने देना चाहता है। अस्सी-वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की एंट्री के बाद चीजों को लेकर ज्‍यादा स्पष्टता आ गयी है कि 17 अक्टूबर को मुक़ाबला परिवार के प्रति ‘वफादारी’ और विद्रोहियों द्वारा की जा रही पार्टी के ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग के बीच होना है। सभी मानकर चल रहे हैं कि जीत अंत में ‘वफादारों’ की ही होती है।

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आंदोलन, जन आंदोलन, हिंसा, अहिंसा: कुछ बातें

भारतीय राजनीति पर निहायत पिछड़ी चेतना की काली छाया बढ़ती चली गयी जो आज आरएसएस-भाजपा के भारतीय फासीवादी संस्करण के रूप में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी है और इसका मुकाबला कैसे हो इस पर घोर असमंजस है।

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बात बोलेगी: संस्कृति के काक-तालीय दर्शन में फंसी राजनीति

ऐसे मौलिक समाधान पेश करने के लिए कायदे से दुनिया को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के प्रति समवेत स्वर में कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिए, लेकिन हुआ इसके उलट क्योंकि हसदेव अरण्य में बसे आदिवासी भी प्रामाणिक रूप से छत्तीसगढ़ के नागरिक हैं और वे भी इस दिन की महिमा से परिचित होते ही मुख्यमंत्री के आह्वान पर अपने हसदेव जंगल को, उसकी मिट्टी को, उसकी ज़मीन को, उसके जल को और उसमें बसे वन्यजीवों की रक्षा के लिए सौगंध खाते हैं। यह अनुपालन मुख्यमंत्री को बेचैन कर देता है क्योंकि मिट्टी-पूजन के बहाने वो जंगल उजाड़ने का आह्वान कर रहे थे, लेकिन इस जंगल के आदिवासियों ने उनके आह्वान को वाकई सच्चा मान लिया।

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भाजपा और संघ की असली समस्या कांग्रेस और ‘परिवार’ नहीं बल्कि देश की जनता है!

‘विश्व गुरु’ बनने जा रहे भारत देश के प्रधानमंत्री को अगर अपना बहुमूल्य तीन घंटे का समय सिर्फ़ एक निरीह विपक्षी दल के इतिहास की काल-गणना के लिए समर्पित करना पड़े तो मान लिया जाना चाहिए कि समस्या कुछ ज़्यादा ही बड़ी है।

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सरकारी हिंदुत्व बनाम हिंदू धर्म: धर्म संसद के संदर्भ में कुछ विचारणीय प्रश्न

यदि विपक्षी पार्टियां भाजपा के अनुकरण में गढ़े गए हिंदुत्व के किसी संस्करण की मरीचिका के पीछे भागना बंद कर अपने मूलाधार सेकुलरवाद पर अडिग रहतीं तो क्या उनका प्रदर्शन कुछ अलग रहता- इस प्रश्न का उत्तर भी ढूंढा जाना चाहिए।

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