अवसाद को समझने में जाति, धर्म, रंग, लिंग के भेद पूंजीवाद का पर्दा हैं

मजदूर अपनी ही मेहनत से खुद को कटा हुआ पाता है, वह परिपूर्ण नहीं खालीपन का अनुभव करता है। खुश नहीं दुखी रहता है। वह अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का उपयोग नहीं, अपना शरीर तोड़ रहा होता है, अपने दिमाग को बर्बाद होते देख रहा होता है।

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जाति, पूंजी और सम्प्रदाय के हाथाें कैसे उजड़ गयी पूर्वांचल की समाजवादी ज़मीन: कुछ संस्मरण

यह लेख कुछ घटनाओं और संस्मरणों के माध्यम से पिछले दो दशकों के पूरब के बदलते आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को समझने की एक कोशिश है। साथ ही प्रशासन और …

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घर लौटते हुए मजदूरों का व्यवस्था से कुछ सवाल और बहस की ज़रूरत

जब मजदूर यह बात कहता है कि हमें वापस नहीं लौटना है तो जाने-अनजाने में ही वह पूंजीवाद को चुनौती दे रहा होता है

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कोरोना और पूंजीवाद के दौर में काम और कामगार

भारत में पहली बार मजदूर दिवस पहली मई, 1923 को ‘मद्रास’ में ‘मलयपुरम सिंगरावेलु चेट्टियार’ के नेतृत्व में मनाया गया। एम. सिंगारवेलु ने उसी दिन मजदूर संघ के रूप में ‘लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान’ की स्थापना की। इस दिन भारत में पहली बार ‘लाल झंडा’ भी इस्तेमाल किया गया।

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कोरोना वायरस की आड़ में बुनियादी रूप से बदल चुका पैसे का खेल समझें

यदि केंद्रीय बैंक ने बहुत सारा धन पैदा किया है इसे तंत्र में धकेल भी दिया है, बावजूद इसके किसी की आय नहीं बढ़ी, तो सारा पैसा गया कहां?

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कोरोना, पूंजीवाद और सभ्यता: इस दौर के बाद पूछे जाने वाले कुछ सवाल

आखिर किस पर दोष मढ़ा जाय? कुछ वक्त तक तो निशाने पर चीन रहा, जब तक कि हिंदुस्तानियों का सबसे पसंदीदा शिकार परदे पर नमूदार नहीं हो गया- आप जानते …

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