कोरोना वायरस की आड़ में बुनियादी रूप से बदल चुका पैसे का खेल समझें


पिछले हफ्ते दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर पैसा छापना शुरू कर दिया है।

अमेरिका में फेडरल रिजर्व ने सरकारी ऋण की संभावित असीमित राशि खरीदने का वादा किया है। यूरोप में यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ECB) ने 750 बिलियन यूरो के एक नये महामारी आपातकालीन खरीद कार्यक्रम (PEPP) की घोषणा की है और यूके में बैंक ऑफ इंग्लैंड ने अपने क्वान्टिटेटिव कार्यक्रम के माध्यम से 200 बिलियन पौंड  धनराशि को अर्थव्यवस्था में इंजेक्ट किया है।

इतने बड़े पैमाने पर नोटों की छपाई से एक सवाल पैदा होता है: आखिरकार यह पैसा कहां खर्च होगा और इसका फायदा किसे मिलेगा? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें मौजूदा संकट की प्रकृति को समझना होगा।

कोरोना वायरस के प्रकोप और संबद्ध आर्थिक बंदी के कारण सरकारों और अवाम के कुल खर्च में भारी कमी आयी है। चूंकि एक व्यक्ति का खर्च दूसरे व्यक्ति की आय होती है, इस वजह से आय में भारी समाजव्यापी कमी आयी है।

बुरी तरह से हताश लोगों को बचाने के लिए सरकारों ने सरकारी खजाने से सीधे इस आय की पूर्ति करने की पेशकश की है। सरकारें बॉन्ड जारी कर के यह पैसा निवेशकों से उधार लेंगी। निवेशक, अपने पास मौजूद सरकारी बॉन्डों को वापस केंद्रीय बैंकों को बेचकर यह पैसा प्राप्त करेंगे। भूलना नहीं चाहिए कि ये केंद्रीय बैंक असल में अपनी सरकारों की एक स्वतंत्र शाखा हैं। इस तरह देखें तो सरकारों के लिए काम करने वाले उनके केंद्रीय बैंक पैसा हवा में से पैदा करेंगे यानी यह पैसा केवल इलेक्ट्रॉनिक विधि से बिना स्रोत के पैदा होगा। इससे तंत्र में कुल पैसे की आमद बढ़ जाएगी।

यह पूरी प्रक्रिया किसी जादू सी मालूम होती है। केंद्रीय बैंकों ने बहुत सारा धन पैदा किया है। चूंकि इस धन का उपयोग केवल श्रमिकों की खत्म हो चुकी आय की पूर्ति करने में किया जा रहा है (सब्सिडी के समान) इसलिए इस धन से किसी की आय में वास्तविक वृद्धि नहीं हुई है। वास्तव में ज्यादातर देशों की सरकारें खत्म हो चुकी आय पर आंशिक सब्सिडी ही दे रही हैं, इसलिए कुल मिलाकर देखें तो ज्यादातर लोगों की आय में कमी ही आयी है।

तो अब सवाल उठता है कि यदि केंद्रीय बैंक ने बहुत सारा धन पैदा किया है इसे तंत्र में धकेल भी दिया है, बावजूद इसके किसी की आय नहीं बढ़ी, तो सारा पैसा गया कहां? जादू यहीं है।

इसका जवाब यह है कि यद्यपि किसी की भी सकल आय या कुल आय में वृद्धि नहीं हुई है, फिर भी एक वर्ग ऐसा है जिसकी शुद्ध आय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है– वह है उच्च आय वाले अमीरों का वर्ग।

ऐसा इसलिए है कि किसी की आय घटी हो या फिर पहले के स्तर पर ही कायम हो, लेकिन विभिन्न समूहों के खर्च में भारी बदलाव आया है। याद रखें कि इस संकट के आने पर सबसे पहला बदलाव यह आया था कि लोगों ने अपने खर्च कम कर दिए थे। खर्च कम होते ही दूसरों की आय में गिरावट आ गयी। ये जो खर्च में गिरावट है, चौतरफा एक बराबर नहीं है। बड़ी संख्या में वे लोग, खासकर गरीब, जिनका सारा खर्च मोटे तौर से मूलभूत आवश्यकताओं जैसे किराया, रेहन शुल्क, भोजन, बिजली और अन्य आवश्यक चीज़ों की खरीद तक सीमित है, अपने खर्च में कटौती नहीं कर सकते। इन अधिकांश लोगों की कुल आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा बुनियादी जरूरतों पर खर्च हो जाता है लेकिन यह खर्च शायद ही कम हुआ हो क्योंकि इन चीज़ों के बगैर उनका काम ही नहीं चलना है।

तब सवाल उठता है कि अगर आम कामगार आबादी ने अपने खर्च में कटौती नहीं की है, तो सामाजिक खर्चों में भारी गिरावट कहां से आयी है? इसका जवाब फिर वही अमीर लोग हैं, जो अपनी आय  का सबसे बड़ा हिस्सा गैरज़रूरी और अनाप शनाप चीजों पर खर्च करते हैं।

बेशक, हम सभी बुनियादी जरूरतों से हटकर मनमर्जी खर्चे करते हैं लेकिन अंतर यह है कि जैसे-जैसे हम अमीर होते जाते हैं, वैसे-वैसे मूलभूत आवश्यकताओं पर खर्च आसान होता जाता है जबकि विलासिताओं पर गैर-जरूरी खर्च बढ़ते जाते हैं। आप जितने अमीर होते जाते हैं, अपनी छुट्टियों, रेस्तरां, थिएटर और बार (वे सभी उद्योग जो अब बंद हो गए हैं) पर ज्यादा खर्च करते जाते हैं जबकि भोजन, किराये और आवश्यक बिलों पर खर्च आनुपातिक रूप से कम करते हैं।

इसे समझने के लिए आइए देखते हैं कि कोरोना वायरस के प्रकोप से पहले और उसके बाद अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह तुलनात्मक रूप से कैसा रहा।

प्रकोप से पहले नकदी प्रवाह इस तरह से होता था:

  1. अमीरों के अनावश्यक खर्च से कंपनियों की कमाई होती थी जिससे वे अपने कामगारों को मजदूरी का भुगतान करती थीं।
  2. इस पैसे से कामगार आबादी अपना किराया, रेहन शुल्क, भोजन और बिल चुकाती थी।
  3. यह पैसा मकान मालिकों, कर्जदाताओं और निजी निगमों के मालिकान की जेब में जाता था।

जब से प्रकोप शुरू हुआ, चीजें बदल गयी हैं:

  1. आर्थिक बंदी के चलते में अमीरों ने अपने खर्च में कटौती की है।
  2. इससे कामगार आबादी के लिए मजदूरी का प्रवाह रुक गया है, जिसके कारण वे अनिवार्य सेवाओं के लिए भुगतान नहीं कर पा रहे।
  3. इसी आय की जगह लेने के लिए केंद्रीय बैंकों ने निवेशकों को पैसा दिया है। ये निवेशक अपना कट लेने के बाद इसे सरकार को उधार दे रहे हैं। इसके बाद सरकार यही पैसा कामगारों को दे रही है।
  4. कामगार आबादी अब इसी पैसे से अपना किराया, शुल्क, खाना पानी और बिलों का भुगतान कर रही है।
  5. ठीक पहले की तरह ही यह पैसा मकान मालिकों, कर्जदाताओं और निजी निगमों के मालिकान की जेब में चला जा रहा है।

सवाल है कि इस खेल में कौन जीता और कौन हारा?

कामगार लोग यहां सरकार से भले पैसा पा रहे हैं लेकिन उनकी आय  के बराबर यह सब्सिडी नहीं है, लिहाजा कुल मिलाकर उन्हें नुकसान ही हो रहा है। अमीरों को जो पैसा वैसे भी किराये, ब्याज और कॉरपोरेट आय से मिलता, वह उन्हें कामगारों की जेब से मिल ही जा रहा है लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि अमीरों ने अपने खर्च में कटौती की है। इसका मतलब यह हुआ कि अमीरों की आय तो पहले जैसी ही है, लेकिन खर्च कम हुआ है यानी उनका मुनाफा कायम है।    

इसे बुनियादी स्तर पर देखें तो सरकारों ने इस नयी प्रणाली से यह सुनिश्चित कर दिया है कि गरीब आदमी और कुल कामगार आबादी अमीरों को अपना बिल भुगतान करती रह सके ताकि अमीरों की आय पर असर न पड़ने पाये। इस तरह हुआ यह है कि केंद्रीय बैंकों द्वारा सृजित नया पैसा अमीर लोगों के बैंक खातों में जमा हो रहा है। इस प्रक्रिया को नीचे दिये गये रेखाचित्र से आसानी से समझा जा सकता है।

हमें यहां बहुत सतर्क रहना चाहिए। एक बार को लग सकता है कि पैसों की छपाई एक जादुई धनवृक्ष है जो इस संकट को लगभग लागत-मुक्त तरीके से हल कर सकती है, जिसमें किसी की आय पर कोई बड़ी चोट भी नहीं पहुंचेगी, लेकिन इसका असर बहुत असंतुलनकारी है। जो पैसा अंततः ऊपर वर्णित प्रक्रिया के माध्यम से सबसे अमीर लोगों के हाथों में पहुंच रहा है, वह सीधे तौर पर आर्थिक असमानता को बढ़ाएगा। कैसे?

ये जो अतिरिक्त कमाई पैसेवालों को हो रही है, उससे वे नये मकान और नयी परिसंपत्तियां खरीदेंगे और ज़ाहिर है कि यह संकट टलने के तुरंत बाद औने पौने दामों पर खरीदेंगे क्योंकि तब कीमतें न्यूनतम स्तर पर होंगी। इससे लॉकडाउन के बाद परिसंपत्ति की कीमतों में अचानक वृद्धि होगी जिससे असमानता और बढ़ेगी।

इस बीच सरकारों पर ऋण का बोझ बढ़ता जाएगा। इसका संभावित परिणाम यह होगा कि उपभोक्ता खर्च में और कमी आएगी। सरकारें आर्थिक शुचिता के तरीके अपनाएंगी। अवाम और सरकारें दोनों ही अपने अपने कमजोर बजट के बीच अपना संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेंगी। तब तक घर और संपत्ति की कीमतें आसमान छूने लग जाएंगी क्योंकि पूंजीपति इस दौरान अर्जित अतिरिक्त धन को काम पर लगा चुके होंगे।

ठीक इसी तरह की स्थिति 2008 के आर्थिक संकट के बाद उत्पन्न हुई थी जब अमीरों के खर्च में कटौती की पूर्ति के लिए केंद्रीय बैंकों द्वारा बड़े पैमाने पर पैसा छापा गया था। इसके बाद परिसंपत्ति की कीमतें आसमान छूने लगी थीं, जबकि वास्तविक अर्थव्यवस्था और मजदूरी की दरों में गतिरोध पैदा हो गया था। हमें इन गलतियों को नहीं दोहराना चाहिए।

इस समय सबसे ज़रूरी बात है कि उन लोगों तक मदद पहुंचे जिन्हें इसकी आवश्यकता है। संकट के समय में हमें अमीरों से कहना चाहिए कि वे इस मदद में अपनी जेब को लगाएं। इसके बजाय हम गरीबों के नाम पर ही बिल फाड़े जा रहे हैं, और दूसरी ओर खुद को बढ़ी हुई असमानता वाले भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं।

हमें अपनी अपनी सरकारों से मांग करनी चाहिए कि वे तत्काल ऐसी व्यवस्था बनावें कि अमीर वर्ग इस संकट के दौर में मुनाफा कमाने के बजाय इस संकट को हल करने में अपनी जेब से योगदान दे। सबसे प्रभावी नीति एकमुश्त “आपातकालीन धन-कर” की होगी। अमीरों के धन पर टैक्स लगाया जाना होगा। यह सुनिश्चित करेगा कि इस संकट की बड़ी लागत उन लोगों द्वारा वहन की जाए जिनके पास भुगतान करने की क्षमता है। इससे 2008 के संकट के बाद देखी गयी भारी आर्थिक असमानता को भी टाला जा सकेगा।

एक आपातकालीन संकट, आपातकालीन प्रतिक्रिया की मांग करता है। हम गरीबों को एक और संकट के लिए भुगतान करने पर मजबूर नहीं कर सकते।

यह लेख मूल अंग्रेज़ी में ओपेन डेमोक्रेसी में प्रकाशित है। इसका अनुवाद सूर्यकान्त सिंह ने किया है।


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