पेट पर लात और पीठ पर लाठी: लॉकडाउन में पुलिस उत्पीड़न का हाल बताती एक रिपोर्ट


कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान सोनीपत के कुंडली इंडस्ट्रि‍यल एरिया में मध्यप्रदेश के रहने वाले एक बुजुर्ग मजदूर से मेरी मुलाकात हुई। सि‍र पर सामान की गठरी बांधे वह एक ट्रक का इंतजार कर रहे थे जो उन्हें उनके गृहजिले तक छोड़ने वाला था। मैंने उनसे रेल या बस से यात्रा न करने का कारण पूछा, तो पहले वे गुस्से से लाल हो गए। फिर उनकी आंखें गीली हो गयीं। उन्होंने बताया कि पिछले लॉकडाउन में वे एक बस से घर के लिए रवाना हुए थे लेकिन पुलिस से मार खाकर वापस लौट आए थे। अपना कुर्ता उघाड़ कर नंगी पीठ दिखाते हुए वे बोले, “इस बीमारी से एक तो हमारे पेट पर लात पड़ी और पीठ पर पुलिस की लाठियां।” उनकी ढीली मटियल खाल पर गेहुंए पड़ चुके लंबे-लंबे निशान करीब साल भर पुराने हो चुके थे, लेकिन उनके आंसू दर्द के हरा होने की गवाही दे रहे थे।

महामारी जैसी बड़ी आपदाओं के बाद उससे जुड़े कुछ दृश्य और घटनाएं लोक-चेतना में स्थायी निवास बना लेती हैं। कोरोना की दो लहरों के दौरान हुई मीडिया कवरेज में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी, जलती हुई चिताएं, ऑक्सीजन सिलेंडर भरवाने के लिए भागते हुए लोग, स्वास्थ्य अव्यवस्था, लोगों के साथ पुलिस का बर्ताव और सरकारी विज्ञापनों की तस्वीरों व खबरों ने हमारे ज़ेहन में स्थायी जगह बना ली है। भविष्य में जब भी कोरोना महामारी को हम याद करेंगे तो ये तस्वीरें हमारी आंखों के आगे तैरती हुई मिलेंगी। 

कोरोना की पहली लहर में अचानक थोपे गए लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों के साथ हुए पुलिसिया बर्ताव को कई लोग कानून व्‍यवस्‍था का मामला बताकर उसका बचाव करने की कोशिश करते हैं। यह सही है कि लोकतंत्र की केंद्रीय विशेषताओं में से एक कानून के राज का पालन है, लेकिन जमीन पर वास्तविकता पूरी तरह से अलग थी। इसका पता हमें हाल ही में जारी एक रिपोर्ट से लगता है। कोविड-19 में पुलिस व्यवस्था पर कॉमन कॉज नामक स्‍वयंसेवी संस्‍था द्वारा किये गए एक अध्ययन में सामने आया है कि हर तीन पुलिसकर्मियों में से केवल एक ने लॉकडाउन के दौरान कानून और व्यवस्था बनाए रखने और अपराधों की जांच करते हुए कानूनी प्रक्रियाओं का पूरी तरह से पालन किया।

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इस अध्ययन में लगभग 49 प्रतिशत पुलिसकर्मियों ने घर वापस जाने वाले प्रवासी कामगारों के खिलाफ बल प्रयोग करने की बात स्वीकारी है। इसके अलावा लगभग 33 प्रतिशत ने यह भी स्वीकारा है कि घर वापस जाने की कोशिश कर रहे प्रवासियों को रोकने के लिए उन्होंने बल प्रयोग किया। यहां तक कि सख्त लॉकडाउन नियमों के मामूली उल्लंघन पर भी पुलिस द्वारा बलप्रयोग और बर्बरता की घटनाएं रिपोर्ट की गयीं। इससे पुलिस और लोगों के बीच टकराव की स्थिति भी कई जगह पैदा हुई। पुलिस के बर्ताव के कारण ही लोगों में पुलिस से भय का स्तर काफी बढ़ गया था। रिपोर्ट के अनुसार हर तीन में से एक व्‍यक्ति ने (33 प्रतिशत) लॉकडाउन के दौरान नागरिकों और पुलिस के बीच लगातार टकराव की सूचना दी थी। करीब 55 प्रतिशत लोगों ने लॉकडाउन के दौरान पुलिस से डरने की बात कही है और हर पांच में से लगभग तीन व्‍यक्तियों ने पुलिस द्वारा जुर्माना लगाये जाने (57 प्रतिशत) और पुलिस द्वारा पीटे जाने (55 प्रतिशत) की सूचना दी है।

महामारी की पहली लहर के दौरान प्रवासी श्रमिक यकीनन सबसे बुरी तरह प्रभावित थे और उन्हें आर्थिक असुरक्षा, राहत योजनाओं और आवश्यक सेवाओं की कमी जैसी कई चुनौतियों से जूझने के लिए छोड़ दिया गया था। घर-परिवार से दूर रहने के कारण उनकी परेशानी और बढ़ गयी थी। इस सर्वेक्षण के अलावा प्रवासियों और राहतकर्मियों के एक अलग त्‍वरित सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्ष भी पुलिस की बर्बरता और प्रवासियों के साथ हुई ज्यादतियों की ओर इशारा करते हैं।

कोरोना की पहली लहर के दौरान घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों पर जब उत्तर प्रदेश के बरेली में केमिकल का छिड़काव किया गया तो पुलिस बर्ताव का वर्गीय और जातिगत चरित्र भी हम सबके सामने था। लॉकडाउन और इसके मद्देनजर पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई वंचित समूहों जैसे कि गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों के लिए सख्त थी। मुख्यत: इन समुदायों को लॉकडाउन के कारण अधिक नुकसान उठाना पड़ा। इन समुदायों को भोजन या राशन जैसी आवश्यक चीजों तक पहुंचने में कठिनाई हो रही थी। दूसरा, उन्हें मकान मालिकों द्वारा निकाल दिये जाने के कारण भी बेघर होना पड़ा था। इस अवधि में पुलिस द्वारा उनके साथ किये गए भेदभाव से उनकी परेशानी और बढ़ गयी थी।

”कोविड-19 महामारी में पुलिस व्यवस्था” नामक अध्ययन के अनुसार:

लॉकडाउन में अमीरों की तुलना में गरीब वर्ग के लोगों को मकान मालिकों द्वारा जबरन बेदखल किये जाने की आशंका तीन गुना अधिक थी। दलितों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को लॉकडाउन के दौरान जबरन बाहर निकाले जाने की भी सबसे अधिक आशंका थी। लॉकडाउन के दौरान पुलिस की धारणाओं में भी स्पष्ट वर्ग-विभाजन था। गरीब और निम्न वर्ग के लोग लॉकडाउन के दौरान पुलिस से अधिक भयभीत थे। अमूमन वे पुलिस द्वारा की जाने वाली शारीरिक हिंसा से डर रहे थे। वे इस दौरान पुलिस द्वारा दिये जाने वाले निर्देशों को धमकी के रूप में देख रहे थे।

सहायताकर्मियों के एक अलग त्वरित अध्ययन के अनुसार एक-तिहाई से अधिक सहायताकर्मियों का मानना है कि पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान बेघर लोगों, झुग्गीवासियों और प्रवासी श्रमिकों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। दो में से एक सहायताकर्मी का यह भी कहना है कि पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान मुसलमानों के साथ भेदभाव किया, जिसमें 50 प्रतिशत ने अधिक या मध्यम स्तर के भेदभाव की सूचना दी।

अचानक लगाये गए लॉकडाउन ने न केवल देश भर में आम लोगों पर, बल्कि लॉकडाउन को लागू करने वाले पुलिसकर्मियों पर भी भारी असर डाला। प्रशिक्षण, संसाधनों की कमी, कर्मचारियों की कमी के कारण पुलिसकर्मी बहुत निम्न स्तर की तैयारियों के साथ अपना दायित्व निभा रहे थे। पुलिसकर्मियों को जितनी बड़ी जिम्मेदारियां दी गयी थीं, क्या वे इतने बड़े काम को संभालने के लिए सही ढंग से प्रशिक्षित और संसाधनयुक्त थे? अध्ययन से यह पता चलता है कि दूसरे और तीसरे दरजे के शहरों की तुलना में महानगरों में पुलिसकर्मियों को लॉकडाउन के दौरान बेहतर सुविधाएं प्रदान की गयी थीं। महानगरों में पुलिस के पास महामारी के दौरान ड्यूटी के लिए उपकरणों का अधिक प्रावधान था, बेहतर स्वच्छता की स्थिति थी, अधिक बीमा कवर था, विशेष आवास जैसी सुरक्षा व्यवस्था, विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले कर्मियों का उच्च अनुपात और विभागीय रूप से ज्‍यादा व्यवस्थित स्वास्थ्य जांच की सुविधा थी।

केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्य महामारी के दौरान अपने कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण देने में अधिक सक्रिय थे। इन राज्यों में पीपीई किट जैसे सुरक्षा उपकरणों की बेहतर उपलब्धता थी, जबकि बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य इन मानकों के तहत सबसे कम तैयार थे। अगर पुलिस विभाग की चुनौतियों को देखें तो आधे पुलिसकर्मी (52 प्रतिशत) कर्मचारियों की कमी के कारण उन पर लादे जा रहे काम के बोझ से परेशान थे। हर पांच में से चार (78 प्रतिशत) पुलिसकर्मी ने लॉकडाउन के दौरान दिन में कम से कम 11 घंटे काम करने की सूचना दी। एक-चौथाई से अधिक (27 प्रतिशत) ने कथित तौर पर लॉकडाउन के दौरान दिन में कम से कम 15 घंटे काम करने की जानकारी दी।

लॉकडाउन के दौरान पुलिस पर मीडिया की कवरेज उसकी विस्तारित भूमिका को दृढ़ता से दर्शाती है। मीडिया, पुलिस द्वारा प्रवासियों के साथ की जा रही बर्बरताओं के साथ-साथ उसके द्वारा किये गए नेक कार्यों को भी कवर कर रहा था। आपको गाना गाकर कोरोना के बारे में जागरूकता फैलाने वाले पुलिसकर्मी याद होंगे। पुलिस शुरुआती हफ्तों के दौरान भोजन और आवश्यक आपूर्ति वितरित करने में भी शामिल थी। इसके अलावा पुलिस जागरूकता के लिए अलग-अलग रोचक प्रयोग भी कर रही थी, जैसे रचनात्मक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाने वाले पुलिसकर्मी नाच रहे थे, गा रहे थे, जरूरतमंदों को मास्क, दवाएं आदि वितरित कर रहे थे और नागरिकों के घर अचानक पहुंचकर उनके जन्मदिन आदि मनाने के वीडियो भी हमने खूब देखे। ऐसी रचनात्म पहलों की संख्या हालांकि काफी कम थी।

इसके अलावा मीडिया ने पुलिस द्वारा लॉकडाउन को लागू करने के लिए ड्रोन कैमरा, फेस डिटेक्शन टेक्नोलॉजी, जीपीएस सक्षम सिस्टम जैसे जियोफेंसिंग जैसे नये निगरानी उपकरणों का व्यापक रूप से उपयोग करने की भी खूब कवरेज की थी। पुलिसिंग के लिए उन्नत तकनीक पर बढ़ती निर्भरता को मीडिया से खूब प्रशंसा मिली, लेकिन इस दौरान उनकी वैधता, नियमों के पालन और डेटा सुरक्षा विधियों से संबंधित कुछ सवाल उठाये गए थे, हालांकि उस समय मीडिया रिपोर्टों के विश्लेषण में लॉकडाउन के दौरान सरकारी नीतियों या पुलिस के व्यवहार का बहुत कम आलोचनात्मक मूल्यांकन दिखा।

महामारी की दो लहर बीत जाने के बाद भी हमारे पास नागरिक और पुलिस संबंधों का विश्लेषण करने के लिए हमारी स्थायी स्मृति में जगह बनायी तस्वीरों और मीडिया कवरेज के अलावा ज्यादा कुछ पास में नहीं है। इस वजह से भी हम अपनी पुलिस व्यवस्था पर बहुत ढंग से बात नहीं कर पाते। पुलिसिंग पर ठीक से न बात करने से भी हमारी पुलिस को गरीब, वंचित और हाशिये पर जी रहे समुदायों को जानवरों की तरह हांकने का आत्मविश्वास मिल जाता है। 



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