गैर-मजदूर नागरिकों और अ-नागरिक मजदूरों से कुछ सवाल


जो दूसरों की नागरिकता के संदिग्ध होने की संभावना और उससे उनके च्युत कर दिए जाने की आशंका पर त्योहार मनाने की सोच रहे थे क्या वे अपने घरों को लौटते इन हजारों-लाखों सड़क पर रेंगते, घिसटते, भूखे प्यासे मजदूरों को इस देश का नागरिक मानते हैं या नहीं?

यदि ये नागरिक हैं तो-

1- इन्हें अपने ही देश में प्रवासी क्यों कहा जा रहा है। यहाँ तक की सरकारी प्रवक्ता भी इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। भाषा मनोविज्ञान के जरिये ऐसा खेल खेला जा रहा है ताकि घर में आराम से बैठी जनता अपने ही गरीब नागरिक को दूसरा मानने को बाध्य हो। स्वाभाविक है कि दूसरा होते ही वो सामाजिक दूरी के शिकार हो जाते हैं और एक बड़ी आबादी उससे संवेदनात्मक रिश्ता नहीं बना पाती है। और सत्ता यही चाहती है। अलग अलग समय पर अलग अलग जनसमूह का ऐसा ही सामाजिक अलगाव। जैसे जेट एयरवेज, बीएसएनएल, किसान, जमाती आदि मामले में किया गया।

2- अपने ही विशाल नागरिक समूह को कौन सी विवेकवान सत्ता मुसीबत में डालती है। अपने ही मजदूर नागरिक की परवाह किए बिना अचानक कोई फैसला लेती है और उसके भयावह परिणाम पर आंखें मूंद लेती है। वहीं दूसरी ओर वोटर नागरिक के लिए भारी संवेदना दिखाते हुए हवाई जहाज भेज देती है।

3- क्या इससे पूर्व किसी आपदा में इस देश में पीड़ितों से मदद के बदले शुल्क लिया गया है? मेरी सीमित स्मृति में तो नहीं। क्या बाढ़ में फंसे लोगों को बोट या हेलीकॉप्टर से निकालने के शुल्क लिए गए? कोरोना भले ही प्राकृतिक आपदा हो लेकिन अविवेकपूर्ण लाकडाउन तो एकदम मैनमेड डिजास्टर है। तो क्या यह नीति स्थापित की जा रही है कि अब पीड़ितों से भी भविष्य में शुल्क लिया जाएगा मदद के एवज में। तो क्या यही न्यू इंडिया है?

4- बात बात मे नागरिक दायित्व को देशहित और राष्ट्रवाद से जोड़ने वाली विचारधारा उर्फ राजनीति जब नागरिक अधिकार की बात आती है तो चुप क्यों हो जाती है। मजदूरों के दुख पीड़ा पर सारे राष्ट्रवादी चुप हैं। मानो वे इस दौर के निपट जाने का इंतजार कर रहे हों। और यदि इस देश में गरीब का कोई नागरिक अधिकार है ही नहीं तो फिर उसका नोटिफिकेशन जारी कर दिया जाना चाहिए। जैसे मजदूर अधिकारों को तीन साल के लिए विभिन्न राज्यों में स्थगित किया जा रहा है। ऐसे आपात समय में किसी उद्योगपति या पूंजीपति के अधिकार स्थगित करने की कोई नोटिफिकेशन आपने देखी सुनी है? आखिर इस संकट काल में स्थानीय किराना और सब्जी वाले काम आए, न कि रिलायंस फ्रेश या एमेजॉन जैसी बड़ी शेयरहोल्डर कंपनियां।

5- चालीस दिन बीतने के बाद सरकारों को ये समझ में आया कि वे इन गरीबों को लंबे समय तक कैद नहीं रख सकते। इसलिए सत्ता की साख बचाने के लिए बसों और रेल की व्यवस्था की गई। वो भी शुल्क लेकर। वो भी पंजीयन करवा कर। वो भी क्वारंटीन की शर्त पर। वो भी अपनी वाहवाही की सुविधा को ध्यान में रख कर। क्या मजदूरों को देश की बुनियाद मे अपना खून पसीना मिलाने का यही अपमान दिया जाना चाहिए? अपने बूते घर लौटते मजदूरों पर पुलिस अत्याचार के खिलाफ किस सरकार ने क्या कार्रवाई की? और यदि नहीं की तो इसका मतलब यह क्यों न निकाला जाए कि वह सहमत थी कि गरीब बेबस पर लाठी बरसायी जाए। ये कैसा राजधर्म है जिसमें अपने ही देश में अपने बूते पर घर लौटते मजदूरों को सड़कों, गलियों और राज्यों की सीमा से खदेड़ा जाए। जैसे कि वे इस देश के नागरिक ही न हों। जबकि विदेश से आने वाले कुत्ते के पिल्ले का ट्विटर पर स्वागत गान गाने में सत्ता के औजारों को तनिक भी शर्म नहीं आई। मैं उन मजदूरों से जानना चाहूंगा कि अब उनकी CAA/ NRC पर क्या राय है। क्या अभी परपीड़क राष्ट्रवाद का नशा उन पर तारी है? मजदूरों की यह हालत देख कर सवर्ण मध्य वर्ग और सत्ता समर्थकों से पूछना चाहूंगा कि क्या वे नागरिकता के नाम और कोई राष्ट्रीय त्रासदी देखना चाहेंगे? अफ्रीकी देशों में जातीय सफाये (एथनिक क्लींजिंग) पर हंसने वाले हमारे होशियार बंधु क्या अब भी NRC को होते देखना चाहेंगे जिसमें किसी की भी नागरिकता संदिग्ध होने की संभावना है?

6- जब देश भर में मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार होता है तब भी ये मजदूर साथी सवर्ण मध्य वर्ग द्वारा तैयार वैचारिकी से प्रेरित होकर राय बनाते हैं या फिर आइटी सेल के डोज़ का उपयोग करते हैं। यह जानना भी जरूरी है कि एक नागरिक के तौर पर हम मजदूर को बना समझा पाए हैं कि नहीं। अपनी नागरिकता सबको स्वयं ही सिद्ध करनी पड़ती है। यदि आपकी नागरिक समझ मे खोट है तो फिर ये सरकारें और उनका प्रोपगंडा तंत्र सफल है। इस नागरिक बोध की हीनता से ग्रस्त मजदूर अपनी इस पीड़ा और दुख के लिए सरकार को दोषी ठहराने से बचते दिख रहे हैं। ठीक है, एक नासमझ नागरिक समुदाय को इस आधार पर मुसीबत में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता कि वह जरूरत के वक्त दूसरों के काम न आया। लेकिन यह चेतना तो उनमें जगायी जानी चाहिए ताकि जरूरत के समय वो सत्ता से सवाल कर सकें जो अभी बतौर नागरिक असंभव बना दिया गया है। सवाल पूछने वाले को देशद्रोही कहा जाता है और यह जोखिम कोई भी उठाने की स्थिति में नहीं है।

ऊपर के बिंदुओं पर देश के वृहत नागरिक समाज को चिंतन मनन करना होगा। तुम्हारे दुख मे हम क्या कर सकते हैं जैसे सवाल तब भी उठाए जाएंगे जब आपकी बारी आएगी। जब आप मुसीबत में आएंगे। हिंदू मुस्लिम का खेल कब हिंदू हिंदू मे बदल जाएगा पता ही नहीं चलेगा। जैसे अभी भी बहुत से हिंदू इस पलायन पर मजदूरों को ही कोसते दिख रहे हैं।


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