यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टियों की सीटवार चुनावी रणनीति और सपा-बसपा की दिक्कत


देश की राजनीति में आम कहावत है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्‍तर प्रदेश से होकर जाता है। इसका सबसे बडा़ कारण यहां 80 लोकसभा सीटों का होना है। केन्द्र में दो बार से सत्तारूढ़ भाजपा सहित सभी दल इसे बखूबी समझते है। सपा, बसपा की प्राथमिकता राज्य की सत्ता पाना व साथ ही लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाकर केन्द्र की सत्ता में भी भागीदारी पाना होता है।

भाजपा अपने को राष्ट्रवाद और आक्रामक हिंदुत्व की विचारधारा के दिखावटी आवरण में मूलतः उच्च जातियों की प्रतिनिधित्व करने वाली आरक्षण विरोधी जातिवादी पार्टी है, लेकिन अपने मजबूत मीडिया प्रबंधन से सपा, बसपा को जातिवादी व कांग्रेस को मुस्लिमपरस्त परिवादी बताकर आम जनमानस में माहौल बनाने में माहिर है।

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उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा की कुल सीटें 403 हैं जिसमें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटें 86, बाकी 317 सीटों के बँटवारे से पार्टियों की राजनीति को देखते हैं। समाजवादी पार्टी और सपा, जो मुख्यतः पिछडो़ं, दलितों की पार्टियां कही जाती हैं, जो कुल बिना आरक्षित सीटों (317) में मुसलमानों को आम तौर पर दोनों पार्टियां 90-100 टिकट देती हैं (इसमें भी बड़ी संख्या में अशराफ यानी सर्वण मुसलमान होते हैं, जबकि ज्‍यादा आबादी पसमांदा मुसलमानों की है)। बची 217 सीटें- इनमें से सवर्णों को दोनों पार्टियां आम तौर पर 90 से 125 के बीच सीटें देती हैं जबकि इनका वोट प्रतिशत इतनी सीटों का नहीं है और न ही ये अन्य सीटों पर- जहां इन पार्टियों के पिछड़े/दलित उम्‍मीदवार लड़ते हैं- उन्हें अपना बहुमत का वोट देते हैं। उल्टे अगर उन सीटों पर भाजपा, कांग्रेस या अन्य दल के सवर्ण उम्‍मीदवार होते हैं तो उन्हें वोट देते हैं, भले ही वे चुनाव जीतने की स्थिति में न हों। अपने आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक वर्चस्व से ये अपनी आबादी के कई गुना सीटें ले लेते हैं।

बची 90 से 100 सीटें सपा और बसपा के पास- इनमें पिछड़ों में मजबूत पिछड़ों यानी यादव, कुर्मी, लोधी, कुशवाहा को मिलीं (50 से 70), अतिपिछड़ों को मिली 20-30, जिनकी आबादी पिछडों में कम से कम 30 प्रतिशत है। दरअसल, ये दोनों पार्टियां जहां से उन्हें वोट नहीं आ रहा है, उन सवर्णों को लगभग सवा सौ टिकट देंगी। अतिपिछड़ों को देने के लिए इनके पास टिकट होता ही नहीं है।

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अब देखिए भाजपा का सीटों का गुणा-भाग: वह भी 317 में सवर्णों को सवा सौ टिकट ही देती है, लेकिन मुसलमानों को न देने के कारण उसके पास लगभग 80-90 टिकट विशेष रूप से निकल आते हैं। यही टिकट अतिपिछड़ों को वह दे रही है, जहां 30 प्रतिशत वोट हैं।

सपा और बसपा अभी ब्राह्मणवाद को पछाड़ने की रणनीति तमिलनाडु से नहीं सीख रहे हैं, न ही आरक्षण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की रणनीति। 69 प्रतिशत आरक्षण और वह भी नवीं अनुसूची में सुरक्षित, साथ ही आर्थिक रूप से गरीब सवर्णों के आरक्षण को भी न्यायालय में जाकर रोक दिया, बल्कि दोनों में ब्राह्मणों को पटाने की होड़ लगी है। और कौन कितनी ऊँची परशुराम की मूर्ति लगाएगा?

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फिर दोनों पार्टियों के पास अतिपिछड़ों को अपने साथ रखने की कोई सार्थक विश्वसनीय रणनीति और अपने सत्ता समय में नीतिगत कार्यक्रम नहीं रहे हैं, जिसकी वजह से अतिपिछड़ों को इन दोनों पार्टियों ने जानबूझ कर भाजपा के खेमे में धकेल दिया है और इस उम्मीद पर सवर्णों को अतिरिक्त महत्व दे रहे हैं कि उनके आने से उनके इर्द-गिर्द बसने वाले अतिपिछड़े वोट दे देंगे। साथ ही दोनों यह मान रही हैं कि मुसलमान तो वोट देगा ही, लेकिन ये मानकर उनके टिकट काटे तो अब ये रास्ता यूपी में ओवैसी साहब को स्थापित करने का रास्ता है।

दोनों पार्टियां सवर्णों को दिये जा रहे टिकट और इस तरह मिलने वाले वोट का वैज्ञानिक तरीके से आकलन करें और अपनी रणनीति बदलें। सवर्णों को इतने टिकट न दे दें कि 30 प्रतिशत अतिपिछड़ों को देने के लिए कुछ बचे ही नहीं।

हमने उत्‍तर प्रदेश में जब अतिपिछड़ों के बीच इस बात को समझने की कोशिश की तो अतिपिछड़ों के जागरूक लोगों ने यह साफ माना कि भाजपा की नीतियों से आम अतिपिछड़ों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है, लेकिन सपा और बसपा उनको टिकट कम दे रही हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि सवर्णों को सवा सौ सीट देने के बाद उनके पास सीटें बचती ही नहीं हैं।

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जब उत्‍तर प्रदेश में सपा और बसपा मुख्य मुकाबले में थीं, तब तक इनका खेल चल गया। अब नहीं चल पाएगा। अब आज भाजपा मुख्य मुकाबले में है। जब 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो इन अतिपिछड़ों के बल पर बनी थी। ट्रेन खुलने के समय ब्राह्मण चढ़ गए और पांच साल सत्ता की मलाई खाए। आज घूम-घूम कर सतीश मिश्र बता भी रहे हैं।

फिर 2012 में जब सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो इन्हीं अतिपिछड़ों ने झूम के वोट दिया, परन्तु मलाई सवर्ण (राजपूतों के 30 मंत्री ने खाई और 2014 के बाद उनकी अपनी मूल पार्टी भाजपा पूरे तौर पर काबिज हो गयी और अपने सामाजिक समीकरण में यादव और जाटव(चमार) से इतनी घृणा करायी कि वह आज भी घट नहीं रही है।

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सपा-बसपा के पास इसकी एक ही काट है- अतिपिछड़ों को व्यापक प्रतिनिधित्व और सीटें देते हुए उनके मान-सम्मान व सुरक्षा हेतु एससी/एसटी एक्ट जैसे प्रावधान और लाभकारी योजनाओं में स्पेशल कम्पोनेंट जैसी विशेष योजनाएं संचालित करने का ऐलान।


लेखक गैर-दलीय राजनीतिक कार्यकर्ता हैं

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