पिछले महीने भर से उत्तर प्रदेश में बीजेपी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच शह और मात का खेल चल रहा है। सबसे पहले चर्चा उठी कि बीजेपी योगी आदित्यनाथ को बदलकर कोई नया मुख्यमंत्री देना चाहती है क्योंकि उनके खिलाफ बीजेपी नेताओं के साथ-साथ जनता में भी काफी गुस्सा है। फिर चर्चा का रुख उस रूप में मोड़ दिया गया कि जिस रूप में योगी जी ने कोरोना महामारी की समस्या को हैंडिल किया है उससे पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व काफी नाराज़ है, उसी नाकामी से छुटकारा पाने के लिए योगी को मुख्यमंत्री के पद से हटाया जा सकता है। फिर यह भी संदेश दिया गया कि योगी और मोदी के बीच कई बातों को लेकर तकरार है इसलिए योगी को हटाया जाना जरूरी है। अंत होते-होते योगी को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने की चर्चा पर विराम लग गया और बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व की तरफ से कहा गया कि चुनाव तक मुख्यंमत्री नहीं बदला जाएगा।
आर्टिकल 19: उत्तर प्रदेश के चुनावी कर्मकांड में तब्दील होता ‘विकास दूबे कांड’!
इन्हीं बातों के बीच दूसरी बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि बीजेपी का कोर ब्राह्मण वोटर पार्टी से काफी नाराज़ है और अगर योगी को नहीं हटाया गया तो ब्राह्मण मतदाता पार्टी से छिटक कर किसी नये विकल्प की तलाश शुरू कर देंगे! अगर इस क़यास में थोड़ी भी सच्चाई है तो सबसे अहम सवाल यह है कि आखिर ब्राह्मण किस पार्टी की तरफ जाएंगे और कुछ महीने बाद होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव में कौन सी पार्टी सत्तासीन होगी या सत्ता के करीब होगी?
उत्तर प्रदेश में मोटामोटी जातिगत जनसंख्या का जो हिसाब है उसमें सवर्णों की संख्या हमेशा बढ़ाकर बतायी जाती है जिससे कि वे राजनीतिक से लेकर प्रशासनिक स्तर पर अधिक से अधिक इसका लाभ ले सकें। इसी तरह दलितों व पिछड़ों की संख्या हमेशा कम करके बतायी जाती है जिससे कि उन जातियों का प्रतिनिधित्व कम किया जा सके। कहा जाता है कि यादवों की संख्या 9 से 12 फीसदी के बीच है जबकि गैर-यादव पिछड़ा समुदाय (कुर्मी, केवट, लोध, गड़ेरिया, कहार, निषाद आदि) लगभग 12 फीसदी व अतिपिछड़ा समुदाय- जिसमें 65 से अधिक जातियां शामिल हैं और कोइरी, सैनी, शाक्य, मौर्य और राजभर मुख्य हैं- की संख्या 20 फीसदी के करीब है। उसी तरह जाटव की संख्या 13 फीसदी व बाल्मीकि सहित दूसरी दलित जातियां 8 फीसदी के करीब हैं। मुसलमानों की जनसंख्या 18 से 20 फीसदी के करीब है। मतलब राज्य में दलित-पिछड़े व अल्पसंख्यकों की संख्या कुल मिलाकर 84-86 फीसदी के बीच है।
इन जातियों में मुसलमानों, यादवों और जाटवों को छोड़कर लगभग सभी जातियों का बड़ा हिस्सा पिछले तीन चुनावों से (2014, 2019 का लोकसभा व 2017 का विधानसभा) बीजेपी को वोट करता रहा है जबकि पहले वही जातियां (लोध को छोड़कर) बसपा-सपा को वोट करती रही हैं। उत्तर प्रदेश के ब्राह्णणों का दावा है कि वह संख्या के मामले में राज्य की जनसंख्या में किसी भी जाति से अधिक- कम से कम 13 फीसदी है (जबकि दिलीप मंडल ने 1931 की भारत के जनगणना को उद्धृत करते हुए बताया है कि उनकी संख्या 5.2 फीसदी थी जिसमें गोस्वामी, भूमिहार व भाट भी शामिल थे)। खैर, संख्याबल जो भी हो, यह तो तय है कि ब्राह्मण राजनीति ही नहीं बल्कि मीडिया समेत सरकार के सभी तंत्रों पर कब्जा होने के चलते ओपिनियन बनाने से लेकर माहौल बनाने तक सब कुछ निर्धारित करने में महती भूमिका निभाते हैं।
अब सवाल यह है कि अगर सचमुच ब्राह्मण बीजेपी से नाराज है औऱ उससे हटकर किसी और पार्टी के साथ जाना चाह रहा है तो उस जाति की पहली प्राथमिकता कौन सी पार्टी होगी और ब्राह्मणों के भाजपा के फोल्ड से बाहर निकलने का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा। बीजेपी के 2017 में सत्ता में आने के बाद ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि सवर्णों को एक आत्मीय खुशी व शांति का अहसास होता रहा है जो शायद उसे कांग्रेस के स्वर्णकाल में मिलता रहा था, लेकिन दलित-बहुजन राजनीति के उभार के बाद सवर्णों ने मानसिक शांति लगभग खो दी थी। दलित-बहुजन राजनीति के दौरान सवर्ण कभी मुलायम के साथ जुड़ते थे तो कभी मायावती के साथ। फिर भी सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों का स्पष्ट झुकाव बसपा के साथ होता था क्योंकि वहां पर उसे सत्ता में भागीदारी के साथ-साथ संसाधन में भी हिस्सेदारी मिलती रही है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण भाजपा के बाद सबसे अधिक बसपा के साथ सहज रहता है।
इसके अलावा पिछड़े समुदाय के कुर्मी, केवट, गड़ेरिया, कहार और निषाद तथा अत पिछड़ा का 20 फीसदी कोइरी, सैनी, शाक्य, मौर्य और राजभर स्थानीय परिस्थितियों के कारण सपा से अधिक बसपा के साथ अधिक सहज महसूस करता रहा है।
पिछले पांच वर्षों में जब से उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार सत्ता में आयी है, मायावती ने राजनीतिक रूप से खुद को हर मामले से काटकर भयानक चुप्पी साध रखी है। यहां तक कि कई बार दलितों के उत्पीड़न और हत्या पर भी वह सरकार के खिलाफ मुंह खोलने से बचती रही हैं। मायावती की इस चुप्पी के पीछे शायद यह सोच है कि उनके दलितों के पक्ष में बोलने से कहीं सवर्ण समुदाय और नाराज न हो जाए। फिर भी 13 फीसदी दलित चट्टान की तरह पूरी तरह उनके साथ जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि पिछले तीन विधानसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 22 फीसदी रहा है जबकि सपा को सीट अधिक मिलने के बावजूद वोट शेयर 21.82 फीसदी ही रहा। 2017 के चुनाव में सपा के वोटों में साढ़े सात फीसदी से अधिक की गिरावट आयी जबकि बसपा के वोटों में सिर्फ साढ़े तीन फीसद की गिरावट आयी थी।
क्या ‘लार्जर पॉलिटिक्स’ का गला घोंट रही है उत्तर प्रदेश की ‘न्यू कांग्रेस’?
उत्तर प्रदेश में वैसे अधिकांश जाति और समुदाय के लोग स्थानीय समीकरण के अनुसार ही विभिन्न दलों को वोट करते रहे हैं जिसमें भाजपा भी शामिल है। अगर सचमुच ब्राह्मण बीजेपी के फोल्ड से निकलकर किसी और को वोट करता है तो उसकी पहली प्राथमिकता बसपा होगी, पिछड़ों व अतिपिछड़ों का वोट अगर बीजेपी से छिटकता है तो वे भी बसपा की तरफ ही जाएंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2017 में बसपा विकट परिस्थिति में भी 22 फीसद से अधिक वोट लायी थी जबकि 2012 के चुनाव में अखिलेश यादव 29.15 फीसद वोट लाकर 224 सीट पर विजय रहे थे जबकि मायावती को लगभग 25.91 फीसद वोट मिले थे।
कुल मिलाकर बीजेपी के लिए परिस्थिति अगर विपरीत हुई और जो जाति या समुदाय भाजपा या सपा से सहज महसूस नहीं कर पा रहा है, अगर उसका छोटा सा तबका भी बसपा की तरफ शिफ्ट कर जाता है तो उत्तर प्रदेश के मुसलमान बीजेपी को हराने वाले उम्मीदवार को वोट देने से नहीं हिचकेंगे क्योंकि वह ऐसा समुदाय है जिसका एकमात्र लक्ष्य हर हाल में भाजपा को हराना होता है! और मायावती को 203 के जादुई नंबर तक पहुंचने के लिए मात्र सात से साढ़े सात फीसदी वोट की जरूरत पड़ेगी। इसलिए जो लोग उत्तर प्रदेश की राजनीति से मायावती को बाहर मानकर चल रहे हैं, उन्हें अपने समीकरण को फिर से एक बार दुरुस्त करने की जरूरत है।