डेढ़ सौ साल से चल रहे किसान आंदोलनों की समृद्ध परंपरा में याद रखने योग्य कुछ अहम पड़ाव


आम तौर से यह माना जाता है कि भारतीय समाज में समय-समय पर होने वाली उथल-पुथल में किसानों की कोई सार्थक भूमिका नहीं रही है, लेकिन यह सच नहीं है। भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई उनमें आदिवासियों, जनजातियों और किसानों का अहम योगदान रहा है। कृषक आंदोलनों का इतिहास बहुत पुराना है और विश्व के सभी भागों में अलग-अलग समय पर किसानों ने कृषि नीति में परिवर्तन करने के लिये आंदोलन किये हैं ताकि उनकी दशा सुधर सके।

मौजूदा दौर में भारत में कृषक आंदोलन तेज गति से बढ़ रहे हैं। इसका मुख्य कारण है कि किसानों की आर्थिक हालत दिन प्रतिदिन कमजोर हो रही है और वे कर्ज के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। मौजूदा दौर में कृषि की लागत बढ़ रही है और आमदनी घट रही है। इस कारण से किसानों के बीच आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं, दूसरी तरफ किसान कृषि नीति बदलवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2017 में देश में छोटे बड़े सैकड़ों आंदोलन देश में हुए हैं। सरकार को कृषि के सम्बन्ध में बोलने पर किसानों ने मजबूर किया है। महाराष्‍ट्र का जून 2017 में गाँव-बंद हो, चाहे नासिक से मुम्बई तक का मार्च हो; राजस्थान में पानी व बिजली के सवालों पर आंदोलन हो, हरियाणा में 2015 में नरमे की फसल के खराब होने पर मुआवजे की मांग हो, तमिलनाडु के किसानों का महीनों तक संसद मार्ग पर धरना हो; आदि का जिक्र करना प्रासंगिक है।

2020- 21 में केंद्र द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ दिल्‍ली की सीमाओं पर एक अभूतपूर्व आंदोलन तीन माह से अधिक समय चल रहा है। दिल्ली की तीन सीमाओं पर जहां किसान अपनी मांगों के साथ डटे हुए हैं तो वहीं सीमा की दूसरी ओर सीमेंट के बैरिकेड, नुकीले कील और तार बिछाए गए हैं। भारी संख्या पुलिसकर्मियों और अर्धसैन्‍य बलों की भी तैनाती की गई है। अब यह आंदोलन इस चौहद्दी से बाहर गाँवों और कस्बों में महापंचायतों रूप में विस्तार पा रहा है।

स्वतंत्रता से पहले किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में जो आंदोलन किए वे गांधीजी के प्रभाव के कारण बहुत प्रभावी रहे। भारत में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। देश में सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेता हुए, जिन्होंने ब्रिटिश राज में यूनियन का गठन किया था।

देश में नील पैदा करने वाले किसानों का आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण का सत्याग्रह और बारदोली में जो आंदोलन हुए थे, इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी, वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं ने किया। आम तौर से किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, चूंकि अंग्रेजों की नीतियों से सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली।

सन् 1857 के असफल विद्रोह के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। वास्तव में जितने भी ‘किसान आंदोलन’ हुए, उनमें अधिकतर आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ थे। उस समय के समाचारपत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

आंदोलनकारी किसान चाहे तेलंगाना के हों या नक्सलवाड़ी के हिंसक लड़ाके, सभी ने छापामार आंदोलन को आगे बढ़ाने में अहम योगदा‍न दिया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेजों ने देशी रियासतों की मदद से दबा तो दिया, लेकिन देश में कई स्‍थानों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिल में धधकती रही। इसी बीच अनेक स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आंदोलन हुए। नील पैदा करने वाले किसानों का विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन के रूप में जाने जाते हैं।

भारत का तेभागा आंदोलन और अमेरिका में महिला आंदोलन दोनों समानांतर चले, YKA

सन् 1918 में खेड़ा सत्याग्रह गांधीजी द्वारा शुरू किया गया, वहीं बाद में ‘मेड़ता बंधुओं’ (कल्याणजी तथा कुंवरजी) ने भी सन् 1922 में बारदोली सत्याग्रह को प्रारंभ किया था। बाद में इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल के हाथों में रहा, हालांकि किसानों का सबसे प्रभावी और व्यापक आंदोलन नील पैदा करने वाले किसानों का था।

यह आंदोलन भारतीय किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के खिलाफ बंगाल में सन् 1859-1860 में किया गया। अपनी आर्थिक मांगों के संदर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आंदोलन उस समय का एक विशाल आंदोलन था। अंग्रेज अधिकारी बंगाल तथा बिहार के जमींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिए ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली-सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखवा लेते थे, जो बाजार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को ‘ददनी प्रथा’ कहा जाता था।

इसी तरह का पहला विद्रोह (पाबना आंदोलन) जिले के किसानों से शुरू हुआ था। बंगाल के पाबना जिले के काश्तकारों को सन् 1859 में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, इसके बावजूद जमींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी जमीन के अधिकार से वंचित किया। जमींदारों की ज्यादती का मुकाबला करने के लिए सन् 1873 में पाबना के यूसुफ सराय के किसानों ने मिलकर एक ‘कृषक संघ’ का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभाएं आयोजित करना होता था, ताकि किसान आधिकाधिक रूप से अपने अधिकारों के लिए सजग हो सकें।

दक्कन का विद्रोह

गौरतलब है कि यह आंदोलन एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा वरन देश के विभिन्न भागों में फला-फूला। यह आग दक्षिण में भी लगी क्योंकि महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार सारे हथकंडे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसंबर सन् 1874 में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत सन् 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।

उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन

होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फरवरी, सन् 1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया। सन् 1919 के अं‍तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने ‘एका आंदोलन’ चलाया।

मोपला विद्रोह

मोपला विद्रोह में गिरफ्तार हुए बागियों की एक तस्वीर, Wikimedia Commons

केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा सन् 1920 में विद्रोह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आंदोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में ‘अली मुसलियार’ चर्चित थे। सन् 1920 में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया और शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।

कूका विद्रोह

पंजाब में कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज़ सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। सन् 1872 में इनके शिष्य बाबा रामसिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर रंगून (अब यांगून) भेज दिया गया, जहां पर सन् 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।

रामोसी किसानों का विद्रोह

महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।

ताना भगत आंदोलन

इस आन्दोलन की शुरुआत सन् 1914 में बिहार में हुई। यह आन्दोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक ‘जतरा भगत’ थे, जो कि इस आन्दोलन से सम्बद्ध थे। ‘मुण्डा आन्दोलन’ की समाप्ति के करीब 13 वर्ष बाद ‘ताना भगत आन्दोलन’ शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आन्दोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए ‘पंथ’ के निर्माण का आन्दोलन था। इस मायने में यह बिरसा मुण्डा आन्दोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा मुण्डा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धारित किए थे।

तेभागा आन्दोलन

किसान आन्दोलनों में सन् 1946 का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने ‘फ्लाइड कमीशन’ की सिफारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। बंगाल का ‘तेभागा आंदोलन’ फसल का दो-तिहाई हिस्सा उत्पीड़ित बटाईदार किसानों को दिलाने के लिए किया गया था। यह बंगाल के 28 में से 15 जिलों में फैला, विशेषकर उत्तरी और तटवर्ती सुन्दरबन क्षेत्रों में। ‘किसान सभा’ के आह्वान पर लड़े गए इस आंदोलन में लगभग 50 लाख किसानों ने भाग लिया और इसे खेतिहर मजदूरों का भी व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ।

तेलंगाना आंदोलन

तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन की एक मशहूर तस्वीर

आंध्रप्रदेश में यह आन्दोलन जमींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के खिलाफ सन् 1946 में शुरू किया गया था। सन् 1858 के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश मांगें आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, लेकिन इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।

बिजोलिया किसान आंदोलन

यह ‘किसान आन्दोलन’ भारतभर में प्रसिद्ध रहा जो मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। बिजोलिया किसान आन्दोलन सन् 1847 से प्रारंभ होकर करीब अर्द्धशताब्दी तक चलता रहा। किसानों ने जिस प्रकार निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया।

अखिल भारतीय किसान सभा

सन् 1923 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘बिहार किसान सभा’ का गठन किया। सन् 1928 में ‘आंध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा’ की स्थापना एनजी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चौधरी ने ‘उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा’ की स्थापना की। बंगाल में ‘टेंनेंसी एक्ट’ को लेकर सन् 1929 में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक ‘अखिल भारतीय किसान संगठन’ बनाने की योजना बनाई।

चम्पारण सत्याग्रह

चम्पारण का मामला बहुत पुराना था। चम्पारण के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे ‘तिनकठिया पद्धति’ कहते थे। 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार समाप्त हो गए। नील बागान के मालिकों ने अपने कारखाने बंद कर दिए और किसानों की नील की खेती से छुटकारा पाने की इच्छा भी पूरी हो गई।

खेड़ा सत्याग्रह

चम्पारण के बाद गांधीजी ने सन् 1918 में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा गुजरात में स्थित है। खेड़ा में गांधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक ‘किसान सत्याग्रह’ की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की मांग की, लेकिन उन्‍हें कोई रियायत नहीं मिली। गांधीजी ने 22 मार्च, 1918 को खेड़ा आन्दोलन की बागडोर संभाली। अन्य सहयोगियों में सरदार वल्लभभाई पटेल और इन्दुलाल याग्निक थे।

बारदोली सत्याग्रह

सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुका में सन् 1928 में किसानों द्वारा ‘लगान’ न अदा करने का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल ‘कुनबी-पाटीदार’ जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि सभी जनजाति के लोगों ने हिस्सा लिया।


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