आला अदालत के आदेश के बाद भी जेलों की भीड़ क्यों नहीं कम की जा रही है?


वह मार्च का आखिरी सप्ताह था जब डॉ. सिरौस असगरी, जो ईरान में मटेरियल्स साईंस और इंजिनीयरिंग के प्रोफेसर हैं तथा फिलवक्त़ अमेरिका की इमिग्रेशन और कस्टम्स एनफोर्समेण्ट सेन्टर में हिरासत में हैं, उन्होंने वहां की ‘अमानवीय’ परिस्थितियों पर लोगों को चेताया था और कहा था कि सेन्टर में हिरासत में रखे गए तमाम लोग कोविड 19 का शिकार बन सकते हैं। ()  

अप्रैल माह के उत्तरार्द्ध की ख़बर बताती है कि डॉ. असगरी की यह आशंका सही साबित हुई है और सांस की तकलीफ में रहने वाले डॉ. असगरी को अब कोरोना का संक्रमण हुआ है।

गौरतलब है कि जब असगरी की स्टोरी प्रकाशित हुई थी तब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हंगामा मचा था। न केवल ईरान के विदेश मंत्रालय ने बल्कि कई अमेरिकी सांसदों ने ही नहीं बल्कि कई मानवाधिकार संगठनों ने उनकी रिहाई की मांग की थी। बहरहाल, वह नहीं हो सका था।

डॉ. असगरी को जहां हिरासत में रखा गया है वह ऐसी जगह है जहां लोगों को देशनिकाला में अधिक से अधिक 72 घंटों तक रखा जाता है और फिर देशनिकाला दिया जाता है। फिलवक्त़ यह कहना मुश्किल है कि डॉ. असगरी, जिन्हें धोखाधड़ी के किसी मुकदमे में अमेरिकी अदालत ने बाइज्जत बरी कर दिया है, वह अपने मुल्क ईरान जिन्दा लौट सकेंगे और अपना अध्यापन का काम शुरू कर सकेंगे। इसकी वजह यही है कि इन दिनों अमेरिका में भी कोविड महामारी के चलते साठ हजार से अधिक लोग मर चुके हैं और अभी हवाई सेवाएं भी स्थगित चल रही हैं।

इमिग्रेशन एण्ड कस्टम्स एनफोर्समेण्ट सेन्टर में डॉ. असगरी की दुर्दशा का किस्सा बरबस भारतीय जेल में बन्द एक दूसरे प्रोफेसर की उसी किस्म की स्थिति की तरफ ध्यान आकर्षित करता है, जिनका नाम है प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बडे, जिन्हें विवादास्पद भीमा कोरेगांव मामले में गिरफतार किया गया है, जो जाने-माने अम्बेडकरी बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और लगभग तीस किताबों में लेखक हैें। उनकी सबसे हालिया किताब (सम्पादित) ‘अंतरराष्ट्रीय ख्याति के प्रकाशन ‘सेज’ से प्रकाशित हुई है।

गोवा इन्स्टिटयूट आफ मैनेजमेण्ट में बिग डेटा एनालिसिस प्रोग्राम देख रहे प्रोफेसर तेलतुम्बडे, इसके पहले आइआइटी खड़गपुर और आइआइएम अहमदाबाद में पढ़ा चुके हैं और भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड के कार्यकारी निदेशक तथा पेट्रोनेट इंडिया के सीईओ रह चुके हैं। बेहद गरीब परिवार में जन्मे प्रोफेसर तेलतुम्बडे की शादी डॉ. अम्बेडकर की पोती से हुई है।

महज तीन दिन पहले जाने-माने फिल्मकार और एक्टिविस्ट आनंद पटवर्धन ने सत्तर साल के प्रोफेसर तेलतुम्बडे के स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता प्रकट करते हुए अपने फेसबुक पर लिखा था, जो पहले से ही सांस की बीमारी का इलाज करवा रहे हैं। यह ख़बर आयी थी कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी) के जिस पेडर रोड बिल्डिंग में प्रोफेसर तेलतुम्बडे को अस्थायी तौर पर रखा गया था, वहां तैनात एनआइए कर्मी खुद कोरोना पॉजिटिव निकला है।

यह ख़बर भी आ गयी थी कि प्रो. तेलतुम्बडे को पहले से अत्यधिक भीड़ झेल रहे तलोजा जेल भेजा जा रहा है।

ध्यान रहे कि यह नवी मुंबई स्थित यही वह तलोजा जेल है जहां पर अपनी क्षमता से 50 गुना अधिक बंदी पहले से ही रखे गए हैं। अप्रैल माह की शुरूआत में जेल का जिम्मा संभाल रहे प्राधिकारियों की तरफ से सूबे के विभिन्न जिला अदालतों और सेशन अदालतों को लिखा गया था कि अब वे वहां अधिक कैदियों को न भेजें। इस पत्र में यह स्पष्ट तौर पर बताया गया था कि तलोजा जेल की क्षमता 2,124 कैदियों की है और वहां मौजूद बन्दियों की तादाद 3,000 पार कर गयी है और डॉक्टरों ने प्राधिकारियों को सलाह दी है कि कोविड 19 बीमारी अब ‘समुदाय प्रसार’ के चरण में पहुंचती दिख रही है इसलिए अब अधिक बंदियों को वहां रखना खतरनाक साबित हो सकता है।

यह वही तलोजा जेल है जहां भीमा कोरेगांव मामले के कई अन्य लोग बन्द हैं, जिसमें शमिल हैं 80 साल उम्र लांघ चुके वरवरा राव जो यहीं रखे गए हैं। कवि की बेटी पवना के मुताबिक, हाल में उन्होंने अपने परिवारजनों को फोन पर बताया था कि जेल में ‘पानी की कमी है और सैनिटेशन और देह की दूरी/सोशल डिस्टेन्सिंग की कोई संभावना नहीं है।’ और किस तरह कैदियों से भरे बैरक और बुनियादी स्वच्छता की कमी ने वायरस फैलने की संभावना बढ़ जाती है।

कोयल, जो सेवानिवृत्त प्रोफेसर शोमा सेन की बेटी है, जो वहीं रखी गयी हैं, उसने भी अपनी मां के हवाले से ऐसी ही बातें साझा की।

‘‘आखिरी बार जब मैंने अपनी मां से बात की, उसने मुझे बताया कि न उन्हें मास्क या कोई अन्य सुरक्षात्मक उपकरण दिया जा रहा है। वह तीस अन्य लोगों के साथ एक ही सेल में रहती है और वे सभी किसी तरह टेढ़े मेढ़े सो पाते हैं। तय बात है कि जहां तक स्वास्थ्य के लिए खतरों का सवाल है, हम किसी को अलग करके नहीं देख सकते हैं।

हर कोई – जिसे वहां रखा गया है, भले ही वह विचाराधीन कैदी हो या दोषसिद्ध व्यक्ति हो – उसे इस भयानक संक्रामक वायरस से संक्रमण का खतरा मौजूद है और अगर इनमें से किसी की तबीयत ज्यादा खराब हो जाती है तो यह स्थिति उस व्यक्ति के लिए अतिरिक्त सज़ा साबित हो सकता है।

इस बात पर अधिक चर्चा नहीं की जा सकती कि आखिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले माह दिए गए उस आर्डर पर गंभीरता से अमल क्यों नहीं शुरू हो सका है। याद रहे कि जब कोविड महामारी का खुलासा हुआ था और इस बीमारी के बेहद संक्रामक होने की बात स्थापित हो चुकी थी, भारत की आला अदालत ने हस्तक्षेप करके आदेश दिया था कि इस महामारी के दौरान जेलों में बन्द कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जाए ताकि जेलों के अन्दर संक्रमण फैलने से रोका जा सके। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने सभी सूबों को निर्देश दिया था कि वह एक उच्चस्तरीय कमेटी का निर्माण करें ताकि ‘‘यह निर्धारित किया जा सके कि किस तबके के कैदियों को पैरोल पर या अंतरिम जमानत पर छोड़ा जाए तथा कितनी कालावधि के लिए,’’।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट किया था कि ऐसे कैदियों को पैरोल दी जा सकती है जिन्हें सात साल तक की सज़ा हुई है या वह ऐसे मामलों में बन्द हैं, जहां अधिकतम सज़ा सात साल हो।

ख़बर मिली कि महाराष्ट्र सरकार ने भी सूबे की साठ जेलों में बन्द 11,000 बन्दियों को रिहा करने का निर्णय लिया है, लेकिन एक महीने बाद भी गृह मंत्रालय सिर्फ 4,000 लोगों को रिहा कर चुका था।’’ अगर हम फरवरी के आंकड़ों को देखें तो राज्य की कैदियों की आबादी 36,713 थी और अगर सरकार ने 11,000 कैदियों को अब तक रिहा किया भी होता तो भी यही होता कि जेल की आबादी 25 फीसदी से थोड़ी अधिक कम हुई है।

इस बात पर जोर दिया जाना जरूरी है कि जेलों में बढ़ती भीड़ एक गंभीर समस्या है और आलम यह बना है कि जेलों को अपनी क्षमता से ‘‘दुगुना तादाद में कैदियों को रखने के लिए कहा जाता है।’’ जैसा कि अपने किस्म के पहले सर्वेक्षण ‘‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ में दावा किया गया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सालों से अदालत के फैसलों ने ‘‘लगातार जेल के अन्दर की भारी भीड़, खराब सैनिटेशन और पोषण, अपनी समयसीमा से अधिक वहां रहनेवाले लोगों, डॉक्टरों, जेल कर्मचारियों की कमी, समय पर गुणवत्तापूर्ण कानूनी सहायता का अभाव, कैदियों की स्थिति की समीक्षा करने के लिए प्रणालियों की कमी, इसके अलावा कैदियों को रिहा किए जाने के बाद उनके लिए सुधारात्मक और आफटरकेयर सेवाओं के अभाव ’ की बात की है।

यह जेल के अन्दर विकट होती जा रही स्थिति और कोविड 19 के चलते उत्पन्न स्वास्थ्य के लिए ख़तरे का आलम है कि नागरिक आज़ादी एवं जनतांत्रिक अधिकार संगठनों को हस्तक्षेप करना पड़ा है और कहना पड़ा है कि सरकारें जल्द से जल्द जेलों में कैद लोगों की संख्या घटाएं ताकि अनावश्यक त्रासदियों से बचा जा सके। मिसाल के तौर पर ‘रिलीज वलनरेबल प्रिजनर्स नाउ’ शीर्षक तले पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइटस द्वारा जारी बयान में इसी बात को रेखांकित किया गया कि उसने ‘‘सरकार को और उच्च स्तरीय कमेटियों को मांगपत्रक भेजे हैं’’ और मांग की है कि ‘‘आरोपों की गंभीरता की परवाह किए बिना बुजुर्ग बन्दियों को या ऐसे लोगों को जो स्वास्थ्य की किसी समस्या का सामना कर रहे हैं, उन्हें तत्काल जमानत दी जाए’’। बयान में कहा गया है कि जेलों को संक्रामक रोगों के फैलाव के लिए बहुत उपयुक्त जगह माना जाता है और ऐसे लोग जो पहले से ही दिक्क्त झेल रहे हैं, उन पर उसका असर होना अधिक लाजिमी है। उसने केन्द्र सरकारों और अदालतों को लिखा भी है कि वह कोविड 19 की असामान्य परिस्थितियों को पहचाने और प्रोफेसर तेलतुम्बडे और गौतम नवलखा जैसे कई अन्य को अंतरिम जमानत प्रदान करे।

क्या आने वाले समय में ऐसी आवाज़े बुलंद हो सकेंगी ताकि सरकार पर दबाव बने? क्या राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय समुदाय बोल उठेगा कि कोविड 19 के चलते कैदियों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बना हुआ है और विचाराधीन कैदियों से लेकर दोषसिद्ध कैदी सभी चपेट में आने का डर है, लिहाजा बड़े पैमाने पर लोग रिहा किए जाएं।

अंत में यहां इस बात पर जोर देना अत्यावश्यक है – जो बात आनंद पटवर्धन ने अपने फेसबुक पोस्ट में साझा की है: ‘राज्य को यह कोई अध्किार नहीं है कि वह किसी कैदी और खासकर वह विचाराधीन कैदी के जीवन को खतरे में डाले, जिन पर अभी मुकदमा तक नहीं चला और तब तक वह निरपराध ही माने जाएंगे।’


सुभाष गाताडे वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक और अनुवादक हैं 


About सुभाष गाताडे

View all posts by सुभाष गाताडे →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *