जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम 103 साल बाद: साझी शहादत साझी विरासत की सरकारी बस्तों में बंद गौरवगाथा


विश्व इतिहास की पहली साम्राज्यवादी शक्ति अंग्रेज़ नहीं थे। इतिहास साम्राज्यों की मानवता विरोधी दास्तानों से भरा पड़ा है। हम सब पुर्तगाली, रोमन, फ़्रांसीसी, उस्मानियाई, जर्मन इत्यादि साम्राज्यों की रक्तरंजित दास्तानों से बख़ूबी परिचित हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि अंग्रेज़ साम्राज्य एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह साम्राज्य ज़्यादा व्यापक, स्थायी और निरंतरता लिए था। अंग्रेज़ी साम्राज्य के ज़्यादा टिकाऊ होने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने साम्राज्य चलाने के काम को एक संस्थागत रूप दिया था। उन्होंने इस काम के लिए दफ़्तरों का जाल-सा बिछा दिया था। साम्राज्य द्वारा की जाने वाली हर गतिविधि की सूचना हासिल की जाती थी और उसे संग्रहित किया जाता था। अंग्रेज़ साम्राज्य पहला साम्राज्य था जिसने राज-काज से संबंधित तमाम दस्तावेज़ों और काग़ज़ात को अभिलेखागारों में सुरक्षित रखना शुरू किया। ये सब करने के पीछे उनका पुरानी चीज़ों  के प्रति मोह नहीं था, बल्कि वे इतिहास के इन अनुभवों के माध्यम से वर्तमान को समझना और भविष्य को संचालित करना चाहते थे।

भारत में अंग्रेजों ने 1891 में केंद्रीय अभिलेखागार की स्थापना कलकत्ता में की। बाद में इसे दिल्ली लाया गया। इसमें अंग्रेज़ी शासन के तमाम सरकारी दस्तावेज़ों  का तो संग्रह था ही, इसके अलावा इसमें ख़ुफ़िया रिपोर्टों, सरकार विरोधी गतिविधियों, दलालों का ब्यौरा और प्रतिबंधित साहित्य का भी विशाल भंडार है। अंग्रेज़ जब भारत छोड़कर गए तो इसको भी भारत सरकार के हवाले कर गए (यह स्वाभाविक है कि उन्होंने अति-ख़तरनाक  दस्तावेज़ों  ख़ासकर अंग्रेज़ों के हिंदुस्तानी दलालों की करतूतों के ब्यौरे वाले दस्तावेज़ों को भारत छोड़ने से पहले नष्ट कर दिया होगा या उन्हें साथ ले गए होंगे)।

राष्ट्रीय अभिलेखागार के बस्तों में बंद जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम का इतिहास

ऐतिहासिक दस्तावेज़ों  का यह ख़ज़ाना, जो आज़ादी के बाद राष्ट्रीय अभिलेखागार कहलाया, ऊपरी तौर पर तो गुज़रे ज़माने से संबंधित बेज़ुबान दस्तावेज़ों का रिकार्ड ही लगता है, लेकिन जलियांवाला बाग़, अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को अँग्रेज़ शासकों द्वारा अंजाम दिए गए क़त्लेआम की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर 1994 में जब इस विभाग ने मूल दस्तावेज़ों, व्यक्तिगत काग़ज़-पत्रों, प्रतिबंधित साहित्य और चौंका देने वाले चित्रों की प्रदर्शनी लगाई (जिसको पहली बार 13 अप्रैल, 1994 को जालियांवाला बाग़ में प्रदर्शित किया गया) तो एक तरफ़ गोरे शासकों के बेमिसाल बर्बर दमन और ख़ूंरेज़ी की दास्तानें जानकर दिल दहल उठा तो दूसरी ओर देश के हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों और अन्य धर्मों के अनुयायों ने किस बहादुरी से इस दमन-बर्बरता का सामना किया और मिलकर बेमिसाल क़ुर्बानियां दीं इसे जानकर सीना फ़ख़्र से फूल गया।

इस प्रदर्शनी को देश के विभिन्न बड़े शहरों में घुमाया गया तो बेज़ुबान दस्तावेज़ों में छिपा अँग्रेज़ शासकों की बर्बरता और जनता के प्रीतिरोध का इतिहास सजीव हो उठा, मानो दफ़न इतिहास ज़िंदा होकर सामने खड़ा हो। यह प्रदर्शनी अगर एक तरफ़ अंग्रेज़ी शासन की बर्बरता, वहशीपन और चालाकी की शर्मनाक दास्तान बयान करती थी तो दूसरी ओर भारत की आज़ादी के मतवालों की बहादुरी की गाथाओं का भी जीवंत चित्रण करती थी।

याद रहे कि जलियाँवाला बाग़ में बैसाखी वाले दिन 13 अप्रैल 1919 को समकालीन दस्तावेज़ों के अनुसार 20 हज़ार से ज़्यादा लोग कांग्रेसी नेताओं डॉ. सतपाल और सैफ़ुददीन किचलू की अंग्रेज़ हकूमत द्वारा गिरफ़्तारी का विरोध करने के लिए जुटे थे। इस प्रदर्शनी में प्रस्तुत सामग्री चौंका देने वाली थी और इस बात का शिद्दत से एहसास कराती थी कि जब अंग्रेज़ों का राज शिखर पर था, तब भी इस देश के लोग अंग्रेज़ी लुटेरों से बराबर का लोहा ले रहे थे। यह कितना दुखद है कि इस अभूतपूर्ण प्रदर्शनी को बस्तों में बंद कर दिया गया और बर्बर दमन और विरोध की शानदार दस्तानों पर ताला डल गया जो जालियांवाला बाग़ क़त्लेआम की 100वीं बरसी पर भी नहीं खुला है।

क़त्लेआम के चश्मदीद दस्तावेज़

सबसे दिल दहला देने वाले दस्तावेज़ और चित्र ‘जलियांवाला बाग़’ त्रासदी से संबंधित हैं। जलियांवाला बाग़ के क़त्लेआम से पहले और बाद के मूल चित्र (जो पुलिस रिकार्ड में थे) को दर्शाया गया।

रतन देवी जिन्होंने 13 और 14 अप्रैल 1919 की रात जलियांवाला बाग़ में हज़ारों लाशों और ज़ख़्मियों के बीच अपने पति की लाश के सिरहाने बैठकर बिताई थी, उनका रोंगटे खड़े कर देने वाला मूल बयान भी पढ़ने को मिलता है:

मैं अपने मृतक पति के पास बैठ गई, मेरे हाथ बांस का एक डंडा भी लग गया था, जिससे मैं कुत्तों को भगाती रही। मेरे बराबर में ही तीन और लोग गंभीर रूप से ज़ख़्मी पड़े थे, एक भैंस गोलियां लगने के कारण बुरी तरह रेंग रही थी, और लगभग 12 साल का एक बच्चा, जो बुरी तरह से ज़ख़्मी था और मौत से लड़ रहा था, मुझसे बार-बार निवेदन करता था कि मैं उसे छोड़ कर न जाऊं। मैंने उसे बताया कि वो फ़िक्र न करे क्योंकि मैं अपने मृतक पति की लाश को छोड़कर जा ही नहीं सकती थी। मैंने उससे पूछा कि अगर उसे सर्दी लग रही हो तो मैं उसे अपनी चादर उढ़ा देती हूं, लेकिन वह तो पानी मांगे जा रहा था, लेकिन पानी वहां कहां था।

रतन देवी

4 अक्टूबर, 1919 के ‘अभ्युदय’ अख़बार में छपी 18 वर्षीय अब्दुल करीम और 17 वर्षीय रामचंद्र नाम के दो दोस्तों की तस्वीरों और जलियांवाला बाग़ में उनकी शहादत के वृत्तांत को पढ़कर दिल-दिमाग़ सन्न हो जाता है। ये दोनों ही अमृतसर से नहीं बल्कि लाहौरियों के बेटे थे। अब्दुल करीम की शहादत के तुरंत बाद जब परीक्षाफल प्रकाशित हुआ तो पंजाब विश्वविद्यालय की दसवीं की परीक्षा में वह सर्वप्रथम आए थे।

निहत्‍थे देशवासियों पर हवाई बमबारी

यह शर्मनाक तथ्य भी पहली बार सामने आया कि जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम के अगले दिन 14 अप्रैल, 1919 को अंग्रेज़ वायुसेना के एक जहाज़ नंबर 4491, किस्म बी.ई.जेड.ई. जो कि 31वें स्क्वाड्रन का हिस्सा था, को उड़ाते हुए कैप्टन कारबेरी ने 2.20 मिनट से लेकर 4.45 मिनट तक जबर्दस्त बमबारी की थी।

अंग्रेज़ी वायुसेना के रिकॉर्ड में दर्ज इस हवाई बमबारी के ब्यौरे के अनुसार:

समय 15.10, जगह गुजरांवाला रेलवे स्टेशन (अब पाकिस्तानी पंजाब में) के आसपास बमबारी से आग की लपटें उठ रही हैं। समय 15.20 स्थान गुजरांवाला के उत्तर पश्चिम में 2 मील दूर एक गांव-लगभग 150 लोगों की भीड़ पर बमबारी, गांव में मशीन गन से 50 राउंड गोली चलाई। समय 15.30, स्थान- पहली वाली जगह से एक मील दक्षिण की ओर पचास लोगों की भीड़ पर बमबारी, गांव में मशीन गन द्वारा 25 राउंड गोलीबारी, एक खेत में 200 लोगों की भीड़ पर बमबारी, लोग भागकर एक घर में घुसे, जिस पर 30 राउंड मशीन गन से गोलीबारी, समय 15.40, स्थान गुजरांवाला नगर शहर के दक्षिण में लोगों की भीड़ पर बमबारी, सड़कों पर चलते हुए ‘देसी’ लोगों पर मशीन गन से 100 राउंड गोलीबारी। 15.50 पर जब बमवर्षक जहाज लाहौर के लिए चला तो कोई प्रणाली सड़कों पर नहीं था। समय, 16.45, लाहौर हवाई अड्डे पर बमवर्षक जहाज की सही सलामत वापसी।

अंग्रेज़ी वायुसेना के रिकॉर्ड में दर्ज हवाई बमबारी का ब्योरा

प्रतिरोध की हैरतअंगेज़ दास्तानें

इस प्रदर्शनी में सर सिडनी आर्थर टेलर रौलेट की अध्यक्षता में सन् 1917 में गठित राजद्रोह समिति से संबंधित गुप्त दस्तावेज़ों को पहली बार पेश किया गया। इस समिति ने उस समय में 87020 रुपये खर्च करके कलकत्ता और लाहौर में अनेक गुप्त बैठकें कीं और 18 अप्रैल, 1918 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट को सरकार ने स्वीकार करके अराजकता या क्रांतिकारी अपराध अधिनियम (रौलेट एक्ट के नाम से बदनाम) के तौर पर 18 मार्च, 1919 को देश भर में लागू किया।

देश भर में इसका ज़बर्दस्त विरोध हुआ। प्रदर्शनी में मोहम्मद अली जिन्ना का 28 मार्च, 1919 वाला वह पत्र भी प्रदर्शित किया गया, जिसमें उन्होंने सरकार पर ‘सभ्यता का दामन छोड़ देने’ का इल्ज़ाम लगाते हुए इम्पीरियल विधान परिषद से इस्तीफ़ा देने की घोषणा की थी। जिन्ना, जो बाद में एक सांप्रदायिक नेता के तौर पर उभरे, कभी भारत के आम लोगों की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए इम्पीरियल विधान परिषद कि सदस्यता को लात भी मार सकते थे, यह जानकर सुखद एहसास होता है।

इस प्रदर्शनी में केंद्रीय ख़ुफ़िया विभाग की अति-गुप्त रिपोर्टों को भी पहली बार देश के सामने रखा गया। आमतौर पर शांत और अहिंसात्मक माने जाने वाले गुजरातियों ने रौलेट समिति के ख़िलाफ़ अहमदाबाद में अंग्रेज़ी सत्ता के प्रतीकों की जिस तरह होली जलाई थी, वह जानने योग्य है। प्रदर्शित गुप्त रिपोर्टों के अनुसार 11, 12 अप्रैल 1919 को अहमदाबाद में प्रदर्शनकारियों ने कलेक्टर के दफ़्तर, नगर मजिस्ट्रेट, फ्लैग स्टाफ़, अहमदाबाद जेल, मुख्य टेलीग्राफ़ केंद्र और 26 पुलिस चौकियों को आग लगाई थी। स्वयं अंग्रेजों की इस रिपोर्ट से यह बात साफ़ होती है कि अंग्रेज़ सत्ता के विरोध के केंद्र केवल बंगाल और पंजाब ही नहीं थे।

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का प्रतिरोध

इस प्रदर्शनी में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के अपने हाथ से लिखे उस मूल पत्र की प्रति भी दर्शकों के लिए उपलब्ध कराई गई, जो उन्होंने पंजाब में दमन के विरोध में ‘नाइट’ की उपाधि त्यागने की घोषणा करते हुए वायसराय को लिखा था।

इस पत्र में उन्होंने लिखा:

समय आ गया है जबकि सम्मान के पदक वर्तमान अपमान के संबंध में हमारी लज्जा के प्रतीक बन गए हैं… और मैं अपनी ओर से खड़ा रहना चाहता हूं, हर प्रकार की विशिष्टता के बिना अपने देश के लोगों के साथ, जिनको साधारण आदमी होने के कारण एक ऐसा अपमान और जीवन सहना पड़ रहा है, जो इंसान के लिए किसी भी तरह स्वीकार योग्य नहीं है।

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर

सरकारी कर्मचारियों का प्रतिरोध 

भारत सरकार के गृह सचिव का इसी दौर का एक और रोचक पत्र भी यहां उपलब्ध कराया गया, जिससे पता लगता है कि सरकारी दमन के ख़िलाफ़  केंद्रीय सचिवालय के सरकारी कर्मचारियों ने भागीदारी की थी। इस गुप्त पत्र में गृह सचिव ने सख़्त कार्रवाई की मांग करते हुए यह भी लिखा कि सरकार की भद्द पिटने के डर से अनुशासनात्मक कार्रवाई न की जाए।

क़त्लेआम विरोधी साहित्य पर प्रतिबन्ध   

विदेशी शासकों के अत्याचारों और भारतीय जनता के प्रतिरोध के एक पूरे चरण पर प्रकाश डालती इस प्रदर्शनी का सबसे सशक्त हिस्सा था उस प्रतिबंधित साहित्य की उपस्थिति, जो अंग्रेजों ने ज़ब्त करके ख़ुफ़िया  विभाग की फ़ाइलों में नत्थी कर दिया था। ये देश की हर भाषा में लिखा गया था।

‘बाग़े-जलियां’ (रामस्वरूप गुप्ता द्वारा हिंदी में लिखित संगीतात्मक नाटक), ‘जलियांवाला बाग़’ (फ़िरोज़द्दीन शरफ़ द्वारा गुरमुखी में एक लंबी कविता), ‘पंजाब का हत्याकांड’ (उर्दू में लम्बा नाटक) और ‘जलियांवाला बाग़’ (एक लम्बा गुजराती नाटक) तो किताबों के रूप में ही प्रदर्शनी में पेश किया गया। यह कितना दुखद है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी हमारी यह गौरवशाली परंपरा धूल से अटे बस्तों में बंद है। यह वे साहित्यिक रचनाएँ थीं जिनसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली अंग्रेज़ साम्राज्य भी थर्राता था।

इस साहित्यिक प्रतिरोध के कुछ नमूने यहाँ पेश हैं:

बेगुनाहों पर बमों की बेख़तर बौछारों की/ दे रहे हैं धमकियां बंदूक-तलवार की।
बाग़ की जलियां में निहत्थों पर चलाई गोलियां/पेट के बल भी रेंगाया, ज़ुल्म की हद पार की।
जुल्म डायर ने किया था रंग जमाने के लिए/हिंद वालों को मुसीबत में फंसाने के लिए।
ख़ून से पंजाब के डायर की लिखी डायरी/रुबरु रख दी मेरी तबियत जलाने के लिए।
बाग़े-जलियां में शहीदों की बने गर यादगार/जाएंगे आशिक़े-वतन आंसू बहाने के लिए।
हम उजड़ते हैं तो उजड़ें, वतन आबाद रहे। मर मिटे हैं हम के अब वतन आज़ाद रहे।
वतन की ख़ातिर जो अपनी जान दिया करते हैं/मरते नहीं हैं वो हमेशा के लिए जिया करते हैं।

शहीद उधम सिंह जिन्होंने जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम का बदला लिया 

इस क़त्लेआम पर देश के लोगों को प्यार करने वाले जांबाज़ खामोश नहीं रहे, उन्होंने उन शैतानों से बदला लिया जिन्होंने इसे अंजाम दिया था। इस सिलसिले में शहीद उधम सिंह का ज़िक्र न हो यह कैसे हो सकता है। सुविख्यात क्रांतिकारी उधम सिंह का जन्म एक दलित सिख परिवार में हुआ और एक अनाथालय में उनकी परवरिश हुई। वे भगत सिंह से गहरा लगाव रखते थे। 20 वर्षीय उधम सिंह ख़ूनी बैसाखी वाले दिन अमृतसर में ही थे। तभी से उनके दिल में इसका बदला लेने की ज्वाला धधक रही थी।

इस बीच वे कम्युनिस्ट विचारों को ग्रहण कर चुके थे। उनके जीवन का एक ही मक़सद था कि किसी भी क़ीमत पर क़त्लेआम को अंजाम देने वाले दो सबसे बड़े अफ़सरों (सर माइकल फ्रांसिस ओ ड्वायर जो उस समय पंजाब का अँग्रेज़ शासक था और ब्रिगेडियर जनरल रेगीनाल्ड जिस ने जलियाँवाला बाग़ में क़त्लेआम का हुक्म दिया था) से बदला लिया जाये। डायर की 1927 में मौत हो गई थी और अब सिर्फ़ ओ ड्वायर बचा था जिसकी रिहाइश लंदन (इंग्लैंड) में थी। उधम सिंह की ज़िंदगी का एक ही मक़सद था कि किसी तरह वहाँ पहुंचा जाये।

इस काम को अंजाम देने के लिए और इंग्लैंड में प्रवेश पाने की जुगत में वे मिस्र, कीनिया, उगांडा, अमरीका और समाजवादी रूस में वहां की कम्युनिस्ट तहरीकों में काम करते रहे। आख़िरकार 21 साल बाद उन्हें सफलता मिली, जब उन्होंने 13 मार्च 1940 को लंदन में माइकल ओ डायर की गोली मारकर हत्या कर दी।

मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने पर जब उधम सिंह से नाम पूछा गया, तो उन्होंने अपना नाम उधम सिंह नहीं बताया बल्कि ‘मोहम्मद सिंह आज़ाद’ बताया। ऐसा नाम जिसमें मुसलमान, सिख और हिंदू तीनों के नाम शामिल हैं। इस तरह उपनिवेशवादी शासकों के विरुद्ध जारी संघर्ष में एक बार फिर भारत में सभी धर्मों के बीच एकता की बुनियादी ज़रूरत का संदेश ज़बर्दस्त तरीक़े से प्रस्तुत किया। याद रहे यह वो ख़तरनाक समय था जब गोरे-शासकों के हिन्दू-मुसलमान-सिख प्यादे साझे स्वतंत्रता आंदोलन को तोड़ने के लिए धार्मिक राष्ट्रवाद के जंगी नारे बुलंद कर रहे थे। 

महान शहीद उधम सिंह ने अपना नया नाम ‘मोहम्मद सिंह आज़ाद’ चुना था और ताकीद की थी कि उनको किसी और नाम से नाम से ना पुकारा जाये। यह बात शर्मसार करने वाली है कि उनकी इस अंतिम ख्‍वाहिश का कई बार मान नहीं रखा गया है। कुछ लोग इस नाम से पहले ‘राम’ जोड़ देते हैं। यह उर्दू भाषा से वैर के कारण किया जाता है। ‘आज़ाद’ किसी हिन्दू का नाम नहीं हो सकता इस लिए ‘राम’ जोड़ दिया जाता है। इसका विरोध किया जाना चाहिए।  

उधम सिंह को 31 जुलाई 1940 को पेंटोनविल्ल (Pentonville) जेल में फांसी दे दी गयी। मौत की सज़ा  सुनाये जाने के बाद अदालत में उन्होंने जो जवाब दिया वह उनके गोरे शासकों के ज़ुल्म और लूट के ख़िलाफ़ उनकी प्रतिबद्धता को ही रेखांकित करता है:

मुझे मौत की सज़ा की क़तई चिंता नहीं है। इस से मैं ख़ौफ़ज़दा नहीं हूँ और न ही मुझे इसकी परवाह है। मैं एक उद्देश्य के लिए जान दे रहा हूँ। अँग्रेज़ साम्राज्य ने हमें बर्बाद कर दिया है। मुझे अपने वतन की आज़ादी के लिए जान देते वक़्त गर्व हो रहा है और मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे बाद मेरे वतन के हज़ारों लोग मेरी जगह लेंगे और वहशी दरिंदों [अंग्रेज़ शासकों] को देश से खदेड़ कर देश आज़ाद और अंग्रेज़ी साम्राज्‍यवाद का विनाश होगा। मेरा निशाना अँग्रेज़ सरकार है, मेरा अँग्रेज़ जनता से कोई वैर नहीं है। मुझे इंग्लैंड की मेहनतकश जनता से गहरी हमदर्दी है, मैं इंग्लैंड की साम्राज्‍यवादी सरकार के विरोध में हूँ। 

उधम सिंह

राष्ट्रीय अभिलेखागार के संग्रह से पुलिस और ख़ुफ़िया विभागों एवं अख़बारों के उन चित्रों को देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है जिनमें पंजाब में सन् 1919 में फ़ौजी क़ानून के लागू होने पर आम नागरिकों को सज़ा के तौर पर सार्वजनिक रूप से कोड़े खाते हुए और सड़कों पर रेंगते हुए दिखाया गया है। आत्मसम्मान को भयानक चोट पहुंचाने वाली ये तस्वीरें देखकर इस बात को समझना जरा भी मुश्किल नहीं रहता कि पंजाब ने भगतसिंह जैसे शहीदों को क्यों पैदा किया!

जलियांवाला बाग़ के शहीदों का ब्यौरा उपलब्ध नहीं

भारत सरकार के गृह विभाग के जून 1919 की एक रिपोर्ट, जिसमें पंजाब में मारे गए लोगों के आंकड़े दिये गये हैं, को देखकर यह साफ़ पता लगता है कि किस तरह अंग्रेज़ शासकों ने पंजाब में किए गए क़त्लेआम पर परदा डालने की कोशिश की। मृतक अंग्रेजों का ब्यौरा तो उपलब्ध है, लेकिन मारे गए भारतीयों के बारे में साफ़ लिखा गया है कि उनकी संख्या कभी भी पता नहीं की जा सकेगी। इस रिपोर्ट में गृह सचिव की यह टिप्पणी कि अगर मृतक भारतीयों के बारे में हम कोई भी संख्या दें तो वो मानी नहीं जाएगी, अंग्रेज़ शासकों के नैतिक पतन की छवि को ही रेखांकित करती है।     

इस सिलसिले में एक शर्मनाक पहलू यह है की शहीद हुए देशवासियों की असली तादाद कभी नहीं जानी जा सकी। हंटर आयोग, जिसे हत्यारी अँग्रेज़ सरकार ने अक्टूबर 14, 1919 में पंजाब में हुई ज़्यादतियों की जाँच के लिए नियुक्त किया था (जिसमें बंबई यूनिवर्सिटी के उपकुलपति और प्रसिद्ध वकील, चिमनलाल हरिलाल सेतलवाड़ भी थे), के अनुसार 381 अंग्रेज़ी सेना की  गोलियों का शिकार हुए थे जिनमें एक 6 महीने का बच्चा भी था। शहीदों की हंटर आयोग द्वारा निर्धारित यह संख्या सही नहीं मानी सकती। अमृतसर एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था जहाँ दूर-दराज़ से सौदागर, ग्राहक और काम की तलाश में लोग आते रहते थे। इनमें बहुत से गुमनाम शहीदों की लाशों को ग़ायब कर दिया गया, जैसा कि इस तरह के बर्बर दमन की घटनाओं में पुलिस द्वारा किया जाता है और आज़ादी के बाद भी किया जाता रहा है।

आज़ादी के बाद जलियांवाला बाग़ शहीदों की विरासत के साथ खिलवाड़

अंग्रेज़ी राज में तो इन शहीदों की अनदेखी की ही गयी जो स्वाभाविक भी था लेकिन आज़ाद भारत में भी इन शहीदों के परिवारों का तिरस्कार जारी रहा और है। जिस देश में आपातकाल में सिर्फ़ एक महीने से भी कम जेल में रहने के लिए आरएसएस से जुड़े लोगों को दस हज़ार रुपए प्रति माह और 2 माह से कम जेल में रहने के बदले में 20 हज़ार रुपए महीना पारिवारिक पेंशन दी जा रही हो वहां इन शहीदों की किसी ने सुध नहीं ली।    

जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम ने स्वतंत्रता आंदोलन के सहधार्मिक और सहजातीय चरित्र को ही रेखांकित किया

शहीदों की सूची से यह सच बहुत साफ़ होकर सामने आता है कि बाग़ में उस दिन हिन्दू, सिख, मुसलमान और दूसरे मज़हबों के अनुयायी बड़ी तादाद में मौजूद थे। 381 शहीदों में से 220 हिन्दू, 94 सिख और 61 मुसलमान थे और 6 की शिनाख़्त ना हो सकी। ऐसा माना जाता है कि जिन शहीदों की पहचान नहीं की गई वे कम उम्र के बच्चे-बच्चियाँ थे।

इस सूची की एक ख़ास बात यह थी कि वहां मौजूद जनसमूह हर तरह की जातियों और पेशों से जुड़ा था। इनमें दुकानदार, वकील, सरकरी मुलाज़िम, लेखक और बुद्धिजीवी थे तो लोहार, जुलाहे, तेली, नाई, खलासी, सफ़ाई कर्मचारी, क़साई, बढ़ई, कुम्हार, क़ालीन बुनने वाले, राजमिस्त्री, मोची भी बड़ी तादाद में मौजूद थे। यह सूरत इस गौरवशाली सच को रेखांकित करती थी कि  साम्राज्‍यवाद विरोधी आंदोलन एक साझा आंदोलन था और अभी मुस्लिम राष्ट्र और हिन्दू राष्ट्र के झंडाबरदार हाशियों पर पड़े थे।   

भारत के लोगों की यह महान जुझारू विरासत, अलमारियों में बंद पड़ी है। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, गुजराती, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, और विभिन्न पेशों से जुड़े सब मिलकर दुख, पीड़ा, संघर्ष और बलिदान में सहभागी थे। यह भारत के इतिहास का एक गौरवशाली सच था, लेकिन यह सब फ़ाइलों में बंद पड़ा है। इसका नतीजा यह है कि साझी शहादत और साझी विरासत को भूलकर देश आज धार्मिक और जातीय नफ़रत फैलाने वाले गिरोहों की चरागाह में तब्दील हो गया है। 


शम्सुल इस्लाम इतिहासकार हैं। उनका लेखन यहाँ देखा जा सकता है। उनके ट्विटर का पता है: @shamsforjustice


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