नई शिक्षा नीति, 2020 आरक्षण के सवाल पर मौन है। कहीं यह आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के उस ऐलान की परिणति तो नहीं जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा पर बात कही थी। आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े आरक्षण विरोधी मंच गाहे बगाहे आरक्षण को ख़त्म करने की बात उठाते रहे हैं।
नई शिक्षा नीति, 2020 केंद्र सरकार की ओर से ऐसे समय में जारी की गई है जब देश में कोरोना महामारी का बुरी तरह फैलाव हो चुका है। सबसे अधिक संक्रमित देशों में भारत तीसरे दर्जे पर पहुँच चुका है। उधर बेरोजगारी पिछले पैंतालिस साल में सबसे ज्यादा है तो अर्थव्यवस्था भी मंदी का शिकार है। ऐसे समय में जारी नई शिक्षा नीति, 2020 में यह यकीन दिलाया गया है कि आने वाले समय में शिक्षा पर खर्च बजट का छह फीसदी होगा, जबकि इस समय भारत में शिक्षा पर बजट का बमुश्किल साढ़े चार फीसदी व्यय हो रहा है। यानी नीतिगत स्तर पर की गई यह घोषणा एक तरह से भारतीय शिक्षा की जरूरतों के मुताबिक़ बहुत कम है।
नई शिक्षा नीति के पक्ष-विपक्ष में सवाल के साथ ही यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या वर्तमान समय में व्याप्त आर्थिक मंदी और बेरोजगारी से मुक्ति का रास्ता नई शिक्षा नीति में है? इस नीति में भविष्य की शिक्षा व्यवस्था का एक विस्तृत रोड मैप है वहीं कुछ विरोधाभास भी नज़र आते हैं जैसे ड्राफ्ट में क्रिटिकल थिंकिंग का जिक्र तो है लेकिन पिछले वर्षों में देखा गया कि सवाल पूछने वाले संस्थानों के छात्र/छात्राओं पर सरकार ने कड़ा रुख इख़्तियार किया है। नई शिक्षा नीति में शामिल बातें क्या वाकई में आने वाले समय में शिक्षा क्षेत्र में क्रांति का संकेत है? नई शिक्षा नीति के हर पहलू को एक रिपोर्ट में शामिल करना मुश्किल है ऐसे में हम इस नीति के अहम पक्षों और उनको लेकर पैदा हुई आशंकाओं की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे।
भाषा का सवाल
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में मातृभाषा में पढ़ाई कराने की मांग और बहस लम्बे समय से चल रही है। औपनिवेशिक काल से भारतीय शिक्षाविद यह बात कहते आये हैं कि मातृभाषा में शिक्षा होनी चाहिए। हंटर कमीशन-1882-83 में भी प्राथमिक शिक्षा के सुधार व विकास को उपयोगी व स्थानीय भाषा में देने की सिफारिश की गई थी। आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुस्लिमों में शिक्षा के अगुवा सर सैयद अहमद खान और सामाजिक न्याय की लड़ाई की शुरुआत करने वाले ज्योतिबा फुले जैसे शिक्षाविद् मातृभाषा में शिक्षा की वकालत करते रहे हैं। लेकिन वर्तमान में दुनिया में ज्ञान का स्रोत और उसका विस्तार अंग्रेजी भाषा केंद्रित हो चुका है। कम से कम भारत के विशेष संदर्भ में यह बात तो कही ही जा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में ज्ञान के स्रोत का विकास नहीं हुआ है लेकिन इसकी भी एक सीमा चिन्हित हुई है। इसी बीच नई शिक्षा नीति में कक्षा पांचवीं तक मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देने की बात कही गई है।
मातृभाषा में शिक्षा देने की बात पर जनमानस के बीच कई सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल तो यही है कि आज सारा ज्ञान अंग्रेजी में उपलब्ध है इस स्थिति में यदि अंग्रेजी की बजाय मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा दी जाएगी तो आने वाले कल में विद्यार्थियों के समक्ष एक कठिनाई सामने आ सकती है। दूसरा सवाल यह है कि यदि सरकारी स्कूलों में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा दी जाएगी तो क्या कान्वेंट या प्राइवेट स्कूलों में भी यह नियम लागू होंगे? तीसरा मुख्य सवाल यह है कि क्या आने वाले दिनों में सरकारी या प्राइवेट नौकरियों में मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को तरजीह दी जाएगी?
इस सवाल पर इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी प्रो. लाल बहादुर वर्मा कहते हैं कि ‘मातृभाषा में शिक्षा देने में कोई असुविधा जैसी बात नहीं है लेकिन यह देखने वाली बात होगी कि क्या मातृभाषा में ज्ञान अपनी तमाम गहराइयों और विविध रूपों में मौजूद है?’ प्रो. वर्मा इस बात पर सहमत हैं कि मातृभाषा में शिक्षा देना सबसे नैसर्गिक है लेकिन आगे की शिक्षा का माध्यम यदि अंग्रेजी होगा तो क्षेत्रीय भाषाओं में दी गई प्राथमिक शिक्षा उच्च शिक्षा के आड़े आएगी। वे आगे कहते हैं कि अन्य भारतीय भाषाओं की बात तो बाद में की जायेगी अभी तक तो हिंदी में ही सर्वोत्तम नहीं उपलब्ध है, ऐसे में यह लक्ष्य भी दूर की कौड़ी साबित हो सकता है।
शिक्षा के निजीकरण की ओर एक कदम
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के युवाओं को अपने संबोधन के केंद्र में रखते रहे हैं। उसी तरह नई शिक्षा नीति में भी भारत की अधिसंख्य युवा आबादी को केंद्र में रखा गया है, लेकिन इस नीति में उनके लिए बहुत बात नहीं की गई है। नजीर के तौर पर किसी नई जगह पर सार्वजनिक शिक्षण संस्थान खोलने का कोई प्रस्ताव शिक्षा के इस नए मसौदे में शामिल नहीं है। दूसरी ओर नीति में उल्लिखित है कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में छात्रों की संख्या न्यूनतम तीन हजार होगी, यानी इससे कम संख्या वाले उच्च शिक्षण संस्थानों का कोई वजूद भविष्य में नहीं रहेगा। इस मसले पर यदि कानून बनता है तो बहुत से संस्थान बंद भी हो सकते हैं और नए संस्थानों के खुलने पर ग्रहण भी लग सकता है। साथ ही यह नीति स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों को स्वायत्त ईकाई बनाने पर जोर देती है।
शिक्षा के निजीकरण को देश की शिक्षा के भविष्य के लिए खतरा बताते हुए स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया के राज्य सचिव विकास स्वरूप कहते हैं कि ‘नई शिक्षा नीति के जरिये शिक्षण संस्थानों को आर्थिक रूप से स्वायत्त बनाने पर जोर दिया गया है, तात्पर्य यह है कि शिक्षण संस्थानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता ख़त्म कर दी जायेगी। आगे से शिक्षण संस्थान अपने सारे खर्च खुद से वहन करें। ऐसे में शिक्षण संस्थानों का जोर संसाधनों को इकठ्ठा करने पर होगा और मुंहमांगी फीस वसूलने वाले संस्थान खड़े हो जायेंगे और शिक्षा व्यापार की वस्तु बनकर रह जायेगी।’
वे आगे कहते हैं कि सरकार के नीतिगत स्तर पर उठाये गए इस कदम से समाज के वंचित और हाशिये के तबके का सबसे अधिक नुकसान होगा। यह गरीब समुदाय के लिए एक तरह से तिहरी मार की तरह होगा, क्योंकि वे बेकारी और मंहगाई से पहले से ही जूझ रहे हैं।
नई शिक्षा नीति में यह भी स्वीकार किया गया है कि 6 से 17 वर्ष के बीच की उम्र के स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 3.22 करोड़ है। इसके पीछे का मुख्य कारण ड्राप आउट माना गया है। कक्षा छः से आठवीं तक का सकल नामांकन अनुपात 90.9 प्रतिशत है, जबकि कक्षा 9-10 और 11-12 के लिए यह क्रमशः केवल 79.3% और 56.5% है। आंकड़े यह दर्शाते हैं कि किस तरह कक्षा 5 और 8 के बाद नामांकित छात्रों का एक महत्वपूर्ण अनुपात शिक्षा प्रणाली से बाहर हो जाता है। स्कूली शिक्षा में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक पृष्ठिभूमि से आने वाले बच्चे प्रवेश तो लेते हैं लेकिन भिन्न-भिन्न कारणों से बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं। शिक्षाशास्त्री और छात्र संगठन मानते हैं कि ऐसे में शिक्षा के निजीकरण का सवाल इस सकल नामांकन अनुपात को और कम करता चला जाएगा, क्योंकि निजी हाथों से दी जाने वाली शिक्षा ले सकने की कूबत सबके बस की बात नहीं है।
शिक्षा के निजीकरण के ही सवाल पर आल इण्डिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) के प्रदेश उपाध्यक्ष शक्ति रजवार शिक्षा नीति पर सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि इसके जरिये शिक्षा क्षेत्र को पूरी तरह पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया है। शक्ति कहते हैं कि मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा जारी नई शिक्षा नीति-2020 विरोधाभासों से भरी हुई है। केंद्र सरकार की 2014 से लेकर 2019 तक की नीतियाँ अलग दिशा में हैं और शिक्षा निति के बहुत सारे बिंदु अलग दिशा में हैं। शिक्षा बजट और पब्लिक एजुकेशन को बढ़ाने की बात है लेकिन यह सब काग़ज में ही है।
शक्ति कहते हैं कि अब तक के जितने कानून भाजपा सरकार ने पारित किए हैं, वह सभी शिक्षा के निजीकरण के ही हित में है। जियो यूनिवर्सिटी को ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ़ इमिनेंस’ का दर्जा देना, विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आने की अनुमति देना, सार्वजनिक क्षेत्र के भारतीय विश्वविद्यालयों में फीस की लगातार वृद्धि आदि निजीकरण की ओर उठते कदम हैं। इससे गरीब परिवार के बच्चे शिक्षा से वंचित ही होंगे। शक्ति रजवार आगे कहते हैं कि केंद्र सरकार के मनमाने रवैये और उसके कानून बनाने के लिए अध्यादेश का सहारा लेने की पुरानी आदत को देखते हुए उनकी यह सांगठनिक मांग है कि नई शिक्षा नीति पर सरकार को संसद का सत्र बुलाकर बहस करवाना चाहिए।
नई शिक्षा नीति में शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की भी बात की गई है। इसके तहत दुनिया के शीर्ष सौ विश्वविद्यालयों को भारत में अपना कैंपस खोलेने की नीतिगत सहमति दी गई है। इसे विपक्षी पार्टियां और छात्र संगठन उच्च शिक्षा को निजी और विदेशी हाथों में सौंपने की एक बड़ी साजिश की तरह देख रहे हैं।
उक्त सवालों के परिप्रेक्ष्य में भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, जो कांग्रेस के समय में पेश किए गए विदेशी विश्वविद्यालय अधिनियम को लेकर शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण का विरोध करता रहा है लेकिन वर्तमान में विद्यार्थी परिषद् शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण का समर्थन कर रहा है। काशी प्रांत के अध्यक्ष अखिलेश पांडेय इस विषय में कहते हैं कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में जो आवश्यकताएं हैं हमें उनके साथ कदमताल मिलाना है। कहीं न कहीं नई शिक्षा नीति की जरुरत इसलिए पड़ी है क्योंकि हम पुरानी शिक्षा पद्धति के कारण विश्वस्तर पर खुद को कम्पलीट नहीं कर पा रहे हैं।
अखिलेश आगे कहते हैं विद्यार्थी परिषद् निजीकरण का विरोध करता है लेकिन यदि हमारी पॉलिसी अच्छी होगी तो हम निजीकरण का लाभ उठा सकेंगे। आज के जमाने में हर चीज में प्रतिस्पर्धा का दौर है तो हम एकदम शुद्ध रूप से सोचेंगे कि निजीकरण का विरोध कर दें तो ऐसा करना थोड़ा सा अव्यावहारिक है। वे आगे इसी बात से अगली बात जोड़ते हुए कहते हैं कि एक बात जरूर है कि निजीकरण के दौर में जो आम आदमी और गरीब छात्र हैं उनके हित सुरक्षित होने चाहिए, यदि ऐसा नहीं होगा तो हम सरकार से इसकी लड़ाई लड़ेंगे।
आरक्षण के खात्मे की शुरुआत
महात्मा ज्योतिबा फुले ने कहा था कि किसान और मजदूर जो वस्तुतः उत्पादन में लगे हैं और सरकार को बहुत राजस्व देते हैं इसलिए शिक्षा पर नीति बनाते समय उनके बच्चों को केंद्र में रखना चाहिए। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में फुले यह बात कह रहे थे, तब से लेकर आज तक भारतीय शिक्षा कई सोपानों से गुजरी है, लेकिन शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक न्याय का सवाल आज भी बना हुआ है।
नेशनल सेंपल सर्वेक्षण 2014 की (एसएफआई की बुकलेट) मानें तो 100 आदिवासी विद्यार्थियों में से मात्र 12 अपनी हायर सेकेंडरी शिक्षा पूरी कर पाते हैं और 100 में से सिर्फ तीन आदिवासी विद्यार्थी अपना ग्रेजुएशन या इससे अधिक की शिक्षा पूरी कर पाते हैं। दलितों में यह संख्या 15 की है जो कि हायर सेकेंडरी तथा 100 में से 3.4 दलित ही हैं जो अपना स्नातक या अधिक की शिक्षा पूरी कर पाते हैं। कुल मिलाकर पूरी आबादी का 7.1 फीसद स्नातक की डिग्री प्राप्त कर पाता है। नेशनल सैंपल सर्वेक्षण की यही रिपोर्ट बताती है कि स्कूल से ड्रॉप आउट होने का बहुत बड़ा कारण आर्थिक तंगी का होना है।
नई शिक्षा नीति, 2020 में आरक्षण पर प्रत्यक्ष तौर पर बात नहीं की गई है जबकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की वर्ष 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों, राज्य विश्वविद्यालयों और डीम्ड विश्वविद्यालयों में मिलाकर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के अध्यापक 19 फीसदी हैं, अनुसूचित जाति के 12 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के 4 फीसदी अध्यापक हैं। केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए तो यह आँकड़ा और भी विचलित करने वाला है जहाँ प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नब्बे फीसदी से अधिक सवर्ण जाति के अध्यापक काबिज हैं और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर तकरीबन पैसठ फीसदी से अधिक। यह आँकड़ा भारत सरकार के हवाले से है जो उच्च शिक्षण संस्थानों में सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व की बात पूरी हो जाने की हकीकत बयाँ करती हैं, और आरक्षण की अनिवार्यता को साबित करती है। सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले लोग सरकार के इस कदम पर शिक्षा नीति की आलोचना कर रहे हैं।
लक्ष्मण यादव दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक (अस्थायी) हैं, विश्वविद्यालयों में सामाजिक न्याय की लड़ाई को लेकर अग्रणी भूमिका में रहे हैं। लक्ष्मण नई शिक्षा नीति में आरक्षण की बात न शामिल होने को सीधा-सीधा सरकार का सोचा-समझा कदम मानते हैं। वे कहते हैं कि आरक्षण के सवाल को दो तरह से देखने की जरूरत है। नई शिक्षा नीति में आरक्षण शब्द का जिक्र न करके इसको बहस से ही गायब कर दिया गया है। दूसरा, जो नीति है वह अपने आप में दलित, पिछड़े, आदिवासियों से शिक्षा के अवसर को छीन रही है। प्राइवेट शिक्षण संस्थान आज भी एक बड़े समुदाय की पहुँच से बाहर हैं। स्कूलों को मेटा स्कूल बनाना और ग्रेडेड आटोनॉमी बनाना, यह सब निजीकरण करने की दिशा में है। इस पूरी पॉलिसी में एक क्लियर एजेंडा है कि यह एंटी सोशल जस्टिस है। लक्ष्मण विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के स्तर पर व्याप्त सामाजिक गैर बराबरी के मुद्दे को अक्सर उठाते रहे हैं। उनके अनुसार संवैधानिक रूप से लागू आरक्षण के आधार पर भी केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में भर्तियाँ नहीं होती हैं, और अब तो आरक्षण को ही नीतिगत रूप से गायब कर देना सामाजिक न्याय की राह को और कठिन बनाना है।
इतिहास विषय के प्राध्यापक शुभनीत कौशिक से यह सवाल पूछने पर कि शिक्षा राज्य का उत्तरदायित्व है या व्यक्तिगत जिम्मेदारी? वे इसके जवाब में कहते हैं कि वस्तुतः शिक्षा राज्य का दायित्व है लेकिन राज्य इसे निजी हाथों में सौंपकर स्वयं इस दायित्व से मुक्त होना चाहता है। इसी कारण शिक्षा में निजीकरण की प्रवृत्ति देखी जा रही है। वे कहते हैं कि शिक्षा में राज्य द्वारा लगाई जाने वाली पूँजी का तात्कालिक लाभ नहीं मिलता, जिससे जीडीपी में शिक्षा से कोई वार्षिक वृद्धि नहीं देखी जाती इसलिए इसे निजी हाथों में सौंप मुनाफा वसूली का साधन मात्र बना दिया जाता है। यह कार्य पूरी दुनिया में विश्व व्यापर संगठन की निगरनी में हो रहा है जो शिक्षा पर किया जाने वाला एक वैश्विक हमला है।
इतिहासकार के प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा जिनके सामने से यह तीसरी शिक्षा नीति गुजर रही है, वे मानते हैं कि अधिकांश शासक, चाहे वो किसी भी विचारधारा के हों वो शिक्षा के बारे में बदनीयत होते हैं क्योंकि उनको पता है कि वास्तव में मनुष्य ने जितने अविष्कार किये हैं। उसमें शिक्षा ही वह अविष्कार है जो मनुष्य का रूपांतरण कर देती है और दुनिया की कोई भी व्यवस्था फिलहाल आदमी का ऐसा रूपांतरण नहीं चाहती जो उसके विरोध में चला जाय इसलिए सारी दुनिया की शिक्षा संस्थाओं में एक तरह की बदनीयती होती है। वह इस शिक्षा नीति में भी है। सरकारें वही परिवर्तन लाना चाहती हैं जो सरकार को मजबूत करे।
लेखक इलाहाबाद स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं