क्‍या अब मूल्यहीन राजनीति के विकल्प के बारे में नहीं सोचना चाहिए?


राजनीतिक दलों और नेताओं की मुख्य चिंता आज यह है कि कैसे सत्ता पर काबिज हुआ जाए और अधिकतम समय तक वहां टिका रहा जाए। अब यहां पर हर कोई सत्ता का हिस्सा बनना चाहता है। कब्जायी हुई कुर्सी न छोड़ी जाए, फिर उसके लिए जो भी करना पड़े। सत्ता में रहकर हर तरह के निजी स्वार्थ साधने की सुविधा होती है। रुतबा होता है और यह भाव भी कि वह शासक हैं। लोकतंत्र यहीं क्षय होने लगता है। गौर करने की बात है कि इसमें हाशिये के समूहों के नेता भी शामिल हैं। वे जो सदियों तक सामाजिक विद्वेष और विषमता से प्रभावित रहे। अब इसे ये चतुर लोग सिद्धांतों के साथ खड़ा होने के बजाय संभावनाओं के साथ चलने के तौर पर प्रचारित करने लगे हैं। यह कहने में इन्हें कतई कोई संकोच नहीं होता। सिद्धांत और विचारधारा इनके लिए हास्यास्पद हैं। जनता ने भी यही मान लिया है। स्पष्टतः यह सिर्फ निज स्वार्थ साधने और लोभ-लाभ का खेल है, कोई जनकल्याण का उपकरण नहीं। यह किसी भी तरह जनहित में नहीं है। इसकी आलोचना की जानी उचित ही है।

अतः वैकल्पिक राजनीति पर सोचने की महती आवश्यकता है। मोटे तौर पर इसमें सबसे बुनियादी बात यह होनी चाहिए कि नैतिक न्यूनतम जरूरतों के हिसाब से समाज के हर नागरिक को जीवनयापन की व्यवस्था हो। यह शर्त सार्वभौमिक तौर पर लागू होती है क्योंकि इसमें हर किसी के लिए सम्मान है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या चुनावी राजनीति में दलों द्वारा सत्ता के बदलाव से समाज की नैतिक न्यूनतम जरूरतें पूरी होती या हो सकती हैं? हो सकती हैं अगर चुनाव सिर्फ सत्ता हासिल करने मात्र का जरिया न हों। जनता के प्रति उत्तरदायित्व निर्वहन के लिए हों। इसलिए उन वास्तविक तत्वों को समझना जरूरी है जिनके आधार पर नैतिक न्यूनतम के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है।

राजनीति की आलोचना का मतलब तब ही उचित है जब एक आदर्श राजनीति का विकल्प पेश किया जाए। ऐसी राजनीति नैतिकता और बौद्धिक प्रयासों और अंततः जनसरोकारों की प्रतिबद्धता पर आधारित होनी चाहिए। इसमें यह क्षमता होनी चाहिए कि समीकरणों और जोड़-तोड़ के आधार पर होने वाली पतित राजनीति का सामना कर सके। इस लिहाज से कहें तो आदर्श राजनीति का विचार मौजूदा राजनीतिक तंत्र की तरह नहीं हो सकता है।

राजनीति में सर्वोपरि रणनीति यह है कि इसमें एक तरफ सामाजिक, सांस्कृतिक और भौतिक चीजों के प्रति चिंता तो हो लेकिन इसके विचलन से पूरी तरह से बचा जाए। यह चिंता जनसामान्य के उत्थान के लिए हो न कि सत्ता में बने रहने के लिए। यह इसलिए संभव नहीं हो पा रहा है क्योंकि राजनीति को एक ऐसी शक्ति का समानार्थी मान लिया गया है जो सामंती मूल्यों से संचालित होती है, जिसमें वस्तुतः राजा और प्रजा का ही नव्य संस्करण झलकता है, जो लोकतंत्र के सिद्धांत और उद्देश्य के विपरीत है। सत्ताधारी पार्टी अपनी विशेष स्थिति का फायदा उठाकर उन नेताओं को अपने साथ ला सकती है जो वास्तविकता में एक तरह से दूसरे दलों के लिए बोझ बन गये हैं, लेकिन उन्हें शामिल करके सत्ताधारी पार्टी समावेशी राजनीतिक पार्टी के तौर पर स्थापित होना चाहती है। दल-बदल को राजनीतिक मान्यता प्राप्त है। इसलिए अब राजनीतिक दिशा को तय करने का काम ‘संभावनाओं की राजनीति’ के जरिये हो रहा है। जाहिर है ऐसी राजनीति समाज और देश के लिए खतरनाक है।

इस दौर के कुछ दावों की हकीकत का जिक्र जरूरी है, जिनके जरिये सकारात्मक राजनीति की दुहाई दी जाती है। गत लोकसभा चुनाव में आरक्षित सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी को राजनीतिक विश्लेषक जाति की राजनीति का अंत मान रहे थे। यह दावा किया जा रहा था कि इससे चुनावी राजनीति में एक सकारात्मक आयाम जुड़ता है, हालांकि यह न्याय की सबसे रियायती अवधारणा है जिसे सामाजिक न्याय कहा जाने लगा है। भाजपा के बारे में यह बात तब कही जा सकती थी जब वह सामान्य सीटों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाती और वे जीत जाते। यह एक वास्तविक सकारात्मक कदम होता। यही बात अल्पसंख्यक और महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर भी लागू होती है। एससी और एसटी उम्मीदवारों के आरक्षित सीटों से जीतने पर तुलनात्मक तौर पर आत्मविश्वास की बढ़ोतरी उन वर्गों में अवश्य होती है जो खुद को अपने मूल सामाजिक समूह से श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन मूल सवाल बरकरार है कि क्या इस तरह की चुनावी राजनीति से ऐसे उम्मीदवार आत्मसम्मान हासिल करते हैं? इस असमान स्थिति की वजह से एससी/एसटी सदस्य और अन्य विधायक, सांसद लोक संस्थानों और सार्वजनिक परिदृश्य में खुद को समान स्थिति में नहीं पाते हैं। यह कड़वी सचाई है।

अल्पसंख्यकों की स्थिति तो अवर्णनीय है। उनके बारे में तो भाजपा की नीति और सोच विघटनकारी ही है। वे चुनाव में ध्रुवीकरण का औजार भर हैं। हां, प्रभावी नेताओं के ‘कल्ट वाले व्यक्तित्व’, उनकी अपार लोकप्रियता और बड़ी पार्टी होने की वजह से ही वे संतुष्टि हासिल कर सकते हैं। यह भी कह सकते हैं कि सत्ता की चाह वाले ऐसे लोग स्वच्छ व्यवस्था और ईमानदार प्रशासन को अलाभदायक स्थायी बोझ मानकर ही चलते हैं। प्रशासन को जनाकांक्षाओं के विरोध में खड़ा करके उसे पंगु, बेईमान, सत्ता समर्पित, चाटुकार और स्वार्थी के रूप में रूपांतरित करके उसे निजी हितों के लिए उपयोग करते हैं। ताकतवर सत्ताधारी पार्टियां इस तरह के आंतरिक पलायन को सही मानती हैं क्योंकि इसके तहत वे उन लोगों को अपने साथ जोड़ने का दावा करती हैं जिन्हें दूसरी पार्टियों ने नजरअंदाज किया। इससे यह दावा तो सही मालूम होता है कि वह समावेशी पार्टी है, लेकिन क्या वे उन्हें नैतिक मानदंडों के आधार पर स्वीकारती हैं? उनके अतीत की समीक्षा करती हैं? या भ्रष्ट लोगों को समेट लेती हैं?

उत्तर नकारात्मक है लेकिन प्रचार उलट किया जाता है। तब क्या इसका निष्कर्ष यह हो सकता है कि ऐसी पार्टियां अच्छी राजनीति कर रही हैं? क्या बेहतर राजनीति की शर्तों को ऐसी पार्टियां पूरा करती हैं? नहीं। अपराधी उम्मीदवार चुनावों में उतारे जाते हैं। पैसों का अकूत प्रभाव स्पष्ट दिखता है। यह धन कैसे आया इस पर सब मौन रहते हैं। चुनावों में हर प्रकार के गलत तरीकों का उपयोग होता है। जाति-धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं को उद्वेलित किया जाता है। राष्ट्रवाद का सहारा लिया जाता है। सामाजिक समरसता को भंग किया जाता है। और दुखांतिका यह है कि हम इस स्थिति को गलत नहीं मानते। सत्ताधारियों ने हमारे मन और मस्तिष्क का इस हद तक अनुकूलन कर दिया है कि हर गलत चीज व्यावहारिक दिखने लगी है और सही चीज अव्यावहारिक। इतना ही नहीं, वह न केवल अव्यावहारिक लगती है बल्कि हम उसे असंभव भी मानने लगते हैं।

पार्टियों का आंतरिक तंत्र ऐसा है जिसमें किसी खास नेता के प्रति नीचे के नेताओं की श्रद्धा को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें आदर्श राजनीति के तहत आने वाला समान लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं दिखता। चुनावी राजनीति के असमान संबंधों का परिणाम यह होता है कि ये प्रतिनिधि आदर्श राजनीति के नैतिक न्यूनतम मानकों से दूर होते चले जाते हैं। ये लोकनायक नहीं बल्कि लोकस्वामी बन जाते हैं। हम इसे निरीह भाव से देखते रहते हैं। शायद हमने इसे अव्यवहारिक और असंभव मान लिया है।

लेकिन दुनिया में न तो कोई अपरिहार्य होता है, न ही विकल्पहीन। बड़े-बड़े लोग आये, चले गये। अच्छे भी और बुरे भी। हां, कभी-कभी हमने उन्हें पहचानने में चूक की और खामियाजा भुगता, लेकिन न तो देश ठहरा न ही राजनीति। दुनिया भी अब तक कायम है। और यह भी, कि कोई भी अमरत्व प्राप्त कर नहीं आता है। एक न एक दिन तो वह जाता ही है। लेकिन हमें यह बताया जाता है कि फलां का कोई विकल्प नहीं है। हम यह मान लेते हैं। और यह भी कि राजनीति ऐसे ही चलती है, हम इसमें कुछ नहीं कर सकते। जबकि ऐसा कतई नहीं है। शायद हमें अब सही और अच्छा सोचने से भी परहेज हो गया है।



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