नीति से अधिक नीयत पर निर्भर है भारतीय शिक्षा का भविष्य


सीबीएसई ने कोविड-19 के बाद उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों और शिक्षण दिवसों की संख्या में आई कमी का हवाला देते हुए 9वीं से 12वीं के पाठ्यक्रम में 30 प्रतिशत की कटौती की है। विशेषकर पॉलिटिकल साइंस और इकोनॉमिक्स विषयों में अनेक महत्वपूर्ण अध्यायों अथवा इनके भागों को पूर्ण या आंशिक रूप से हटाए जाने पर बहुत से शिक्षा विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी आहत एवं हतप्रभ हैं।

कक्षा नवमी के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेटिक राइट्स तथा स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन जैसे अध्यायों को हटा दिया गया है जबकि नवमी कक्षा के ही अर्थशास्त्र के सिलेबस से फ़ूड सिक्योरिटी इन इंडिया नामक अध्याय पर सीबीएसई के कर्ता धर्ताओं की कैंची चली है। इसी प्रकार कक्षा दसवीं के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर एवं चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी जैसे महत्वपूर्ण अध्यायों को हटा दिया गया है। कक्षा ग्यारहवीं के पॉलिटिकल साइंस के पाठ्यक्रम से फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म जैसे अध्याय हटा दिए गए हैं। लोकल गवर्नमेंट नामक अध्याय से दो यूनिटें हटाई गई हैं- व्हाई डू वी नीड लोकल गवर्नमेंट्स? तथा ग्रोथ ऑफ लोकल गवर्नमेंट इन इंडिया। कक्षा 12वीं के राजनीति विज्ञान के सिलेबस से सिक्युरिटी इन द कंटेम्पररी वर्ल्ड, एनवायरनमेंट एंड नेचुरल रिसोर्सेज, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया तथा रीजनल एस्पिरेशन्स जैसे चैप्टर्स हटा लिए गए हैं। प्लांड डेवलपमेंट नामक अध्याय से चेंजिंग नेचर ऑफ इकोनॉमिक डेवलपमेंट तथा प्लानिंग कमीशन एंड फाइव इयर्स प्लान्स जैसी यूनिट्स हटा ली गई हैं। वहीं भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्याय से इंडियाज रिलेशन्स विद इट्स नेबर्स: पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका एंड म्यांमार टॉपिक को हटाया गया है। बिज़नेस स्टडीज के पाठ्यक्रम से जीएसटी और विमुद्रीकरण जैसे हिस्से विलोपित किए गए हैं।

इधर राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने 12वीं के पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया है। राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर एक अध्याय जोड़ा गया है। साथ ही जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की राजनीति से जुड़ा पैराग्राफ हटा दिया गया है।

एनसीईआरटी के पूर्व डायरेक्टर कृष्ण कुमार ने एक साक्षात्कार में कहा- “पुस्तकों से अध्यायों को हटाकर बच्चों के पढ़ने और समझने के अधिकार को छीना जा रहा है। सीबीएसई ने जिन अध्यायों को हटाया है उनमें अंतर्विरोध है।  आप संघवाद के अध्याय को हटाकर संविधान बच्चों को पढ़ाएं, ये कैसे होगा? आप सामाजिक आंदोलन के अध्याय को हटाएं और इतिहास पढ़ाएं, ये कैसे होगा?  इतिहास सामाजिक आंदोलनों से ही तो जन्म लेता है। ये कटौती बच्चों में रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देगी।“ 

विवाद के बाद सीबीएसई ने अपनी सफाई में कहा है कि कोविड-19 के परिप्रेक्ष्य में कक्षा 9 से 12 के पाठ्यक्रम में सत्र 2020-21 के लिए 30 प्रतिशत की कटौती करने हेतु उसका युक्तियुक्तकरण किया गया है। यह 30 प्रतिशत की कटौती 190 विषयों में केवल एक सत्र हेतु ही की गई है। सीबीएसई ने कहा कि यह कटौती कोविड-19 के कारण उत्पन्न स्वास्थ्य आपातकाल जैसी परिस्थितियों के मद्देनजर विद्यार्थियों को परीक्षा के तनाव से बचाने के लिए उठाया गया कदम है। हटाए गए अध्यायों से वर्ष 2020-21 की परीक्षा में कोई प्रश्न नहीं पूछे जाएंगे। यह हटाए गए विषय आंतरिक मूल्यांकन का भी हिस्सा नहीं होंगे। स्कूलों को एनसीईआरटी द्वारा तैयार अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर का पालन करने के लिए कहा गया है। जिन विषयों को मीडिया में गलत ढंग से – पूरी तरह हटाया गया- बताया जा रहा है वह या तो एनसीईआरटी के अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर का हिस्सा हैं या युक्तियुक्त किए गए पाठ्यक्रम का भाग हैं। सीबीएसई ने कहा कि हमने स्कूलों को निर्देशित किया है कि हटाए गए हिस्सों का यदि अन्य संबंधित विषयों को स्पष्ट करने हेतु पढ़ाया जाना आवश्यक हो तो उनकी चर्चा पढ़ाई के दौरान की जा सकती है। यद्यपि सीबीएसई ने हटाए गए अध्यायों और टॉपिक्स को अपने वेबसाइट में डिलीटेड पोरशन्स के रूप में ही अपलोड किया है।

केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने आलोचनाओं का उत्तर देते हुए कहा कि पाठ्यक्रम में कटौती को लेकर बिना जानकारी के अनेक प्रकार की बातें कही जा रही हैं। इन मनगढ़ंत बातों का उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना है। शिक्षा के संबंध में राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह दुःखद है। शिक्षा को राजनीति से दूर रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक गलत नैरेटिव बनाया जा रहा है। पाठ्यक्रम में 30 प्रतिशत की कटौती करते समय मूल अवधारणाओं को यथावत और अक्षुण्ण रखा गया है। उन्होंने यह भी कहा कि पाठ्यक्रम कटौती के संबंध में उन्होंने सुझाव मांगे थे और उन्हें खुशी है कि लगभग डेढ़ हजार लोगों ने अपने सुझाव दिए।

इन तमाम सफाइयों के बावजूद यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि पाठ्यक्रम में यह कटौती शिक्षा के सिद्धांतों और मूलभूत उद्देश्यों के सर्वथा प्रतिकूल है। बस यह तय करना शेष है कि यह कितनी अविचारित है और कितनी शरारतपूर्ण। सीबीएसई की सफाई जितनी सतही, लचर और औपचारिक है उससे भी ज्यादा उथला और असंगत है केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री का बयान।

हमारे देश में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब से अंग्रेजों द्वारा सार्वजनिक परीक्षाओं को ज्ञान प्राप्ति का पर्याय बनाया गया, तब से पाठ्यक्रम निर्माताओं और परीक्षाओं के आयोजकों के बीच एक शाश्वत सा संघर्ष  चलता रहा है। हमारे देश में परीक्षा का स्वरूप जिस प्रकार का बना दिया गया है उसमें किसी विषय पर अपनी अभिरुचि के अनुसार गहन अध्ययन करने, कल्पनाशील होने और स्वविवेक का प्रयोग करने के लिए कोई स्थान नहीं है। विद्यार्थी को उसकी पाठ्यपुस्तकों और मॉडल आंसर में जो कुछ लिखा है उसे यथावत उत्तर पुस्तिका में कॉपी करने पर सफल माना जाता है और उसे अच्छे अंक मिलते हैं। परीक्षा पद्धति के इस स्वरूप और परीक्षाओं को हमारे तंत्र में मिलने वाले महत्व के कारण ज्ञान प्राप्ति और वास्तविक अधिगम तथा परीक्षा प्रणाली में दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं रह गया है। शिक्षण का वास्तविक उद्देश्य विद्यार्थियों में मूलभूत मानवीय मूल्यों का विकास करना है। यह उद्देश्य अब गौण बना दिया गया है। विभिन्न अवधारणाएं किस तरह परस्पर संबंधित हैं और किस प्रकार यह हमारे जीवन की पूर्णता में योगदान देती हैं, इस अन्तर्सम्बन्ध के अध्ययन के लिए कोई स्थान परीक्षा प्रणाली द्वारा नियंत्रित होने वाली शिक्षण पद्धति में नहीं है। यही कारण है कि सीबीएसई एक यांत्रिक तरीके से पाठ्यक्रम में तीस प्रतिशत की कटौती करने में कामयाब हो सका- एक ऐसी कटौती जो किसी विवेकवान शिक्षा मर्मज्ञ द्वारा पाठ्यक्रम के समग्र मूल्यांकन पर आधारित चयन नहीं लगती बल्कि किसी लिपिक द्वारा कैंची से काटकर पाठ्यक्रम संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया का निर्वाह अधिक प्रतीत होती है। सीबीएसई ने अपनी समझ से इस प्रकार परीक्षाओं का बोझ हल्का कर दिया।

बोर्ड को इस बात से कोई सरोकार नहीं लगता कि पाठ्यक्रम निर्माताओं के क्या उद्देश्य रहे होंगे और क्या कटौती के बाद पाठ्यक्रम एक बेहतर नागरिक और मनुष्य बनाने में सक्षम हो पाएगा। प्रोफेसर यशपाल ने 1993 में पाठ्यक्रम का बोझ हल्का करने के लिए बनाई गई एक समिति के प्रमुख के रूप में यह बताया था कि किस प्रकार कोई असम्बद्ध पाठ्यक्रम मूल अवधारणाओं की सही समझ विकसित करने में बाधक बन जाता है तथा अरुचिकर, असंगत व भार स्वरूप लगने लगता है। उन्होंने तब यह कल्पना भी नहीं की होगी कि पाठ्यक्रम का भार कम करने के लिए मूल अवधारणाओं पर ही कैंची चला दी जाएगी।  

यदि पाठ्यक्रम में यह कटौती केवल सीबीएसई के कर्ताधर्ताओं की अज्ञानता और अनगढ़ सोच का ही परिणाम होती तो शायद क्षम्य भी होती, किंतु यह देश की माध्यमिक शिक्षा को संचालित करने वाले संस्थान की सत्ता के सम्मुख सम्पूर्ण शरणागति को प्रदर्शित करती है और इसीलिए चिंतित भी होना पड़ता है और भयग्रस्त भी। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने विरोधी दलों द्वारा फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म, डेमोक्रेटिक राइट्स, स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन, डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर,  चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स तथा लोकल गवर्नेंस जैसे अध्यायों को हटाए जाने पर किए जा रहे विरोध को राजनीति से प्रेरित बताया। यह सारे विषय हमारे प्रजातंत्र, संविधान, सामाजिक ढांचे और स्वाधीनता आंदोलन में निहित जिन मूल अवधारणाओं और बुनियादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं क्या वे मूल्य तथा अवधारणाएं राष्ट्रीय, सार्वभौमिक और सार्वत्रिक नहीं हैं? क्या इन मूल्यों को भारत के विरोधी दलों द्वारा थोपे गए मूल्य कहा जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि स्वाधीनता के बाद देश का इन अवधारणाओं और मूल्यों से संचालित होना कांग्रेस समर्थक या वाम बुद्धिजीवियों का षड्यंत्र था? क्या इन मूल्यों और अवधारणाओं को विरोधी दलों की विरासत मानकर नहीं हटाया गया है? 

जो कुछ हुआ है वह कोई संयोग नहीं है बल्कि प्रयोग है। यह देखा जा रहा है कि इन आधारभूत मूल्यों एवं अवधारणाओं को रद्दी की टोकरी में डालने पर भारतीय जनमानस की क्या प्रतिक्रिया होती है? दुर्भाग्यवश, अपने वेतन-भत्तों और सुरक्षित जीवन पर ध्यान केंद्रित करने वाला शिक्षक वर्ग शिक्षा को नौकरी मान रहा है और उसमें सड़क पर आने का साहस नहीं है, वह गुरु की भूमिका में आने को तत्पर नहीं है। यह देखना आश्चर्यजनक है कि विरोधी दलों का विरोध प्रतीकात्मक है और बयानबाजी तक सीमित है।

यह समझने के लिए कि पाठ्यक्रम से हटाए गए विषय वर्तमान केंद्र सरकार को क्यों नापसंद हैं, हमें उन विचारकों की ओर जाना होगा जिनके प्रति केंद्र में सत्तारूढ़ दल असाधारण सम्मान प्रदर्शित करता है और यदि वह स्वयं को पार्टी विद डिफरेन्स कहता है तो संभवतः इन्हीं विचारकों के चिंतन की ओर संकेत करता है जिसमें बहुलतावाद, प्रजातंत्र,  भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अहिंसक व धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा महात्मा गांधी की केंद्रीय भूमिका और आजाद भारत के स्वरूप को निर्धारित करने वाले संविधान का संपूर्ण नकार निहित है।

महात्मा गांधी की सविनय अवज्ञा और असहयोग की रणनीति श्री गोलवलकर को उतनी ही विचलित करती थी जितना सीएए और एनआरसी का विरोध करती अहिंसक जनता वर्तमान सरकार की आंखों में खटकती है। श्री गोलवलकर एक ऐसी जनता की अपेक्षा करते हैं जो कर्त्तव्यपालक और अनुशासित हो। ऐसी जनता जिसकी प्रतिबद्धता लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हो, न कि सत्तारूढ़ दल के प्रति, उन्हें स्वीकार्य नहीं है। वे गांधी जी की आलोचना करते हुए लिखते हैं- “विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय तथा महाविद्यालय के बहिष्कार की योजना पर बड़े-बडे व्यक्तियों ने यह कहकर प्रखर टीका की थी कि यह बहिष्कार आगे चलकर विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, उद्दंडता, चरित्रहीनता आदि दोषों को जन्म देगा और सर्व नागरिक-जीवन नष्ट होगा। बहिष्कारादि कार्यक्रमों से यदि स्वातंत्र्य मिला भी, तो राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए आवश्यक, ज्ञानोपासना, अनुशासन, चरित्रादि गुणों की यदि एक बार विस्मृति हो गई, तो फिर उनकी प्रस्थापना करना बहुत ही कठिन है। शिक्षक तथा अधिकारियों में अवहेलना करने की प्रवृत्ति निर्माण करना सरल है, किंतु बाद में उस अनिष्ट वृत्ति को सँभालना प्राय: अशक्य होगा, ऐसी चेतावनी अनेक विचारी पुरुषों ने दी थी… जिनकी खिल्ली उड़ाई गई, जिन्हें दुरुत्तर दिए गए, उनकी ही दूरदृष्टि वास्तविक थी, यह मान्य करने की सत्यप्रियता भी दुर्लभ है।“ (मराठी मासिक पत्र युगवाणी, अक्टूबर,1969)। श्री सावरकर गांधी जी की अहिंसक रणनीति के कटु आलोचक थे और गांधी गोंधल पुस्तक में संकलित अपने गांधी विरोधी आलेखों में वे शालीनता की सारी मर्यादाएं लांघ जाते हैं।

टेरीटोरियल नेशनलिज्म का उपहास श्री गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स के दसवें अध्याय में खूब उड़ाया है। उनके अनुसार भारत में पैदा हो जाने मात्र से कोई हिन्दू नहीं हो जाता, उसे हिंदुत्व के सिद्धांत को अपनाना होगा। श्री सावरकर के मुताबिक केवल हिंदू भारतीय राष्ट्र का अंग थे और हिंदू वो थे जो सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमि को अपनी पितृभूमि मानते हैं, जो रक्त-संबंध की दृष्टि से उसी महान नस्ल के वंशज हैं जिसका प्रथम उद्भव वैदिक सप्त सिंधुओं में हुआ था, जो उत्तराधिकार की दृष्टि से अपने आपको उसी नस्ल का स्वीकार करते हैं और इस नस्ल को उस संस्कृति के रूप में मान्यता देते हैं जो संस्कृत भाषा में संचित है। राष्ट्र की इस परिभाषा के चलते सावरकर का निष्कर्ष था कि ‘ईसाई और मुसलमान समुदाय, जो ज़्यादा संख्या में अभी हाल तक हिंदू थे और जो अभी अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हमसे साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिंदू खून और मूल का दावा करें, लेकिन उन्हें हिंदू के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि नया पंथ अपना कर उन्होंने कुल मिलाकर हिंदू संस्कृति का होने का दावा खो दिया है।‘

सावरकर के अनुसार- “हिन्दू भारत में- हिंदुस्थान में- एक राष्ट्र हैं जबकि मुस्लिम अल्पसंख्यक एक समुदाय मात्र।“ सावरकर की हिंसा और प्रतिशोध की विचारधारा को समझने के लिए उनकी पुस्तक भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ का अध्ययन आवश्यक है। इस पुस्तक में  भारतीय इतिहास का पांचवां स्वर्णिम पृष्ठ शीर्षक खण्ड के चतुर्थ अध्याय को सावरकर ने “सद्गुण विकृति” शीर्षक दिया है। इस अध्याय में सावरकर लिखते हैं- “इसके विपरीत महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी आदि तत्कालीन सुल्तानों के समय में दिल्ली से लेकर मालवा तक के उनके राज्य में कोई भी हिन्दू अपने मंदिरों के विध्वंस के संबंध एक अक्षर भी उच्चारित करने का साहस नहीं कर सकता था… तत्कालीन इतिहास के सहस्रावधि प्रसंग इस बात के साक्षी हैं कि यहां शरणार्थी बनकर निवास करने वाले यही मुसलमान किसी बाह्य मुस्लिम शक्ति के द्वारा हिंदुस्थान पर आक्रमण करने  पर विद्रोही बन जाते थे। वे उस राजा को समाप्त करने के लिए जी-तोड़ कोशिश करते थे। यह सब बातें अपनी आंखों से भली-भांति देखने के बाद भी हिन्दू राजा देश, काल, परिस्थिति का विचार न कर परधर्मसहिष्णुता, उदारता, पक्ष-निरपेक्षता को सद्गुण मान बैठे और उक्त सद्गुणों के कारण ही वे हिन्दू राजागण संकटों में फंसकर डूब मरे। इसी का नाम है सद्गुण विकृति।

सावरकर इसी पुस्तक के लाखों हिन्दू स्त्रियों का अपहरण एवं भ्रष्टीकरण उपशीर्षक में लिखते हैं- “वे बलात्कार से पीड़ित लाखों स्त्रियां कह रही होंगी कि हे शिवाजी राजा! हे चिमाजी अप्पा!! हमारे ऊपर मुस्लिम सरदारों और सुल्तानों द्वारा किए गए बलात्कारों और अत्याचारों को कदापि न भूलना। आप कृपा करके मुसलमानों के मन में ऐसी दहशत बैठा दें कि हिंदुओं की विजय होने पर उनकी स्त्रियों के साथ भी वैसा ही अप्रतिष्ठाजनक व्यवहार किया जाएगा जैसा कि उन्होंने हमारे साथ किया है। यदि उन पर इस प्रकार की दहशत बैठा दी जाएगी तो भविष्य में विजेता मुसलमान हिन्दू स्त्रियों पर अत्याचार करने की हिम्मत नहीं करेंगे। लेकिन महिलाओं का आदर नामक सद्गुण विकृति के वशीभूत होकर शिवाजी महाराज अथवा चिमाजी अप्पा मुस्लिम स्त्रियों के साथ वैसा व्यवहार न कर सके। उस काल के परस्त्री मातृवत के धर्मघातक धर्म सूत्र के कारण मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लाखों हिन्दू स्त्रियों को त्रस्त किए जाने के बाद भी उन्हें दंड नहीं दिया जा सका।“

30 नवंबर 1949 के ऑर्गनाइजर के संपादकीय में लिखा गया-  “किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु द्वारा विरचित नियमों का रचनाकाल स्पार्टा और पर्शिया में रचे गए संविधानों से कहीं पहले का है। आज भी मनुस्मृति में प्रतिपादित उसके नियम पूरे विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं और इनका सहज अनुपालन किया जा रहा है। किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए यह सब अर्थहीन है।“

ऑर्गनाइजर जब मनुस्मृति की विश्वव्यापी ख्याति की चर्चा करता है तब हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है उसका संकेत किस ओर है। आम्बेडकर ने यह उल्लेख किया है कि मनुस्मृति से जर्मन दार्शनिक नीत्शे प्रेरित हुए थे और नीत्शे से प्रेरणा लेने वालों में हिटलर भी था। हिटलर और मुसोलिनी संकीर्ण हिंदुत्व की अवधारणा के प्रतिपादकों के भी आदर्श रहे हैं।

श्री विनायक दामोदर सावरकर भी भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे। उन्होंने लिखा- “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीन काल से हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार-विचार का आधार रहा है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि है (सावरकर समग्र, खंड 4, प्रभात, दिल्ली, पृष्ठ 416)।

श्री गोलवलकर ने बारंबार संविधान से अपनी गहरी असहमति की निस्संकोच अभिव्यक्ति की। उन्होंने लिखा- “हमारा संविधान पूरे विश्व के विभिन्न संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का कहीं भी उल्लेख है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और हमारे जीवन का मूल राग क्या है? (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु बेंगलुरु, 1996, पृष्ठ 238)।

आज मजबूत केंद्र के महाशक्तिशाली नेता के कठोर निर्णयों का गुणगान करने में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा व्यस्त है। यह मजबूत सरकार राज्य सरकारों के लोकतांत्रिक विरोध को सहन नहीं कर पाती है। केंद्र का यह अहंकार संघवाद के हित में नहीं है। देश के संचालन की रीति-नीति में जो परिवर्तन दिख रहे हैं उनसे स्पष्ट है कि बहुसंख्यकवाद को वास्तविक लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है, अल्पसंख्यक वर्ग को धीरे-धीरे हाशिए पर धकेला जा रहा है। अखंड भारत का स्वप्न देखते-देखते हमने अपने सभी पड़ोसियों से संबंध खराब कर लिए है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र और हमारी समावेशी संस्कृति से जुड़ी मूल अवधारणाओं के माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम से विलोपन की कोशिश शायद इसलिए की जा रही है कि आने वाली पीढ़ी यह जान भी न पाए कि उससे क्या छीन लिया गया है।

आज नई शिक्षा नीति के आकर्षक प्रावधानों की प्रशंसा में अखबार रंगे हुए हैं, उस नीयत की चर्चा कोई नहीं कर रहा है जो भारतीय शिक्षा का भविष्य तय करेगी।


लेखक रायगढ़ स्थित शिक्षक हैं


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