ओबीसी वोट की होड़ में कैसे दब गया जातिगत जनगणना का मुद्दा


देश के पांच राज्‍यों में चल रहे विधानसभा चुनाव और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए जातिगत राजनीति करने वाली पार्टियां अपने-अपने वोट बैंक साधने के लिए प्रयासरत हैं। देश का ओ.बी.सी. समुदाय कुल आबादी का 50 प्रतिशत से अधिक है। जाति आधारित राजनैतिक पार्टियां इस समुदाय को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए जी तोड़ प्रयास कर रही हैं, इसीलिए जाति जनगणना करने की मांग एक बार फिर से तेज हो गयी है।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने जनवरी 2021 में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जाति आधारित जनगणना कराये जाने का प्रस्ताव पेश किया जिसे ध्वनि मत से पारित किया गया। इसके तहत उद्धव ठाकरे सरकार ने केंद्र से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी) की जनसंख्या जानने के लिए जाति आधारित जनगणना कराने का अनुरोध किया। इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी जनगणना में ओ.बी.सी की गणना के लिए प्रस्ताव पास किया है। बिहार के विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने भी प्रधानमंत्री मोदी से मिलकर जाति‍ जनगणना की मांग की है। उ.प्र. में भी पूर्व मुख्यमत्री अखिलेश यादव ने प्रेस कांफ्रेंस करके जाति‍ जनगणना की मांग की। कांग्रेस ने भी उ.प्र विधानसभा में इसकी मांग उठायी है।

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार, बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव, उ.प्र. में अखिलेश यादव ओ.बी.सी को वोटर के रूप में देख रहे हैं। इनकी सोच ओ.बी.सी को अपने-अपने पाले में करके सत्ता में पहुँचने की है। इनके लिए जाति जनगणना की मांग मात्र वोट बैंक के अलावा कुछ भी नहीं है। इन लोगों का यह नारा कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का सीधा सा मतलब है आरक्षण। तो आरक्षण इनको मिलेगा कहाँ – शिक्षा में और नौकरी में। शिक्षा का धीरे-धीरे निजीकरण किया जा रहा है, शिक्षा पर रोक लगायी जा रही है, शिक्षकों की लगातार कमी होती जा रही है। पूरे देश में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को बर्बाद कर दिया गया है। न तो वहां शिक्षक हैं न ही संसाधन, निजी विद्यालय इतने महंगे हैं कि जिनको सचमुच शिक्षा की जरूरत है वह तो शिक्षा प्राप्त ही नहीं कर सकते। जहां तक नौकरियों का सवाल है सरकार सभी सरकारी संस्थान निजी हाथों को बेच रही है। बी.जे.पी. सरकार ने संसद में कहा कि सरकार किसी सरकारी उपक्रम को जब निजी हाथों में सौंप देती है तब उसमें आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। अगर आरक्षण 100% कर दिया जाय तो इसका किसी समुदाय को क्या फायदा होगा, जब सरकार के पास शिक्षा और कोई नौकरी ही नहीं है!

ओ.बी.सी के नेता जितनी तेजी से जाति गणना के लिए दबाव बना रहे है सरकार उतनी ही तेजी से सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर रही है। रेल, परिवहन, उड्डयन, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, दूरसंचार, सड़क, पेट्रोलियम सभी कुछ जो सरकारी है बिक चुका है या बिकने को तैयार है। बिकने के बाद वहां आरक्षण है ही नहीं। कभी भी इन राजनैतिक पार्टियों ने शिक्षा और सरकारी संस्थानों के निजीकरण का विरोध तो किया ही नहीं उल्टे यह लोग इस नेक कार्य में बराबर के भागीदार रहे हैं।

सन 1881 में देश की पहली जनगणना अंग्रेजों द्वारा की गयी जिसके पीछे उनका उद्देश्य अलग-अलग समूह की गणना करके उनके जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करना था। 1931 में अंग्रेजों ने जो जनगणना की वह जातीय जन गणना थी और उसे जारी भी किया गया। 1941 में भी अंग्रेजों द्वारा जातीय जनगणना की गयी लेकिन उसे जारी नहीं किया गया। आजादी के बाद 1951 में जातीय गणना करने की मांग की गयी लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह कह कर इसे कराने से इनकार कर दिया कि इससे देश का ताना-बाना बिगड़ सकता है। 1931 के बाद से आज तक जाति जनगणना नहीं की गयी, लेकिन प्रत्येक जनगणना में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जाति गणना की गयी और उसे जारी भी किया गया। अन्य जातियों की गणना  जारी नहीं की गयी। मण्डल कमीशन में 1931 की जनगणना के आधार पर ही विभिन्न जातियों का अनुमान लगाया गया। वही अनुमान प्रक्रिया अब तक जारी है। बीच-बीच में जाति जनगणना कराए जाने की मांग भी की गयी लेकिन उसे सत्ता पक्ष द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। मजेदार पहलू यह है कि जब वही लोग विपक्ष में होते हैं तो जातिगत जनगणना की जोरदार मांग करते हैं। सत्ता मिलते ही जातिगत जनगणना के खतरे गिनाने लगते हैं।

जाति जनगणना क्यों?

आज भारत में लगभग चार हजार जातियों का समूह है। बी.पी. मण्डल ने अपनी रिपोर्ट में 3743 जातियों की जानकारी दी थी और शैक्षणिक तथा सामाजिक गैर-बराबरी को ख़त्म करने के लिए सरकार को 40 सिफारिशें भी सौंपी थीं। पहले पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने 1955 की अपनी रिपोर्ट में 1961 में होने वाली जनगणना में जातिगत जनगणना करने की अनुशंसा की थी। यह जातिगत जनगणना केवल जातियों की संख्या और इन जातियों में रहने वाले लोगो की कुल संख्या गिनकर मात्र उसके आंकड़े जारी करना नही है। जातिगत जनगणना से देश में जातियों की संख्या और उनकी आबादी की जानकारी के साथ जनसंख्या घटने बढ़ने की दर, जनसंख्या का घनत्व, महिला-पुरुष का अनुपात, मकानों की संख्या, कच्चे और पक्के मकानों में रहने वाले, झुग्गियों में रहने वाले और किराये पर रहने वाले लोगों की संख्या का पता चलता है। इसी से यह भी पता चल जाता है कि देश में कितने लोग बेघर हैं, यह भी पता चलता है कि कितने ऐसे लोग हैं जिनका कोई स्थाई निवास ही नहीं है (घुमंतू जातियां)। देश में कितनी भाषाएं और बोलियां हैं। लोगों की शैक्षणिक स्थिति क्या है – कितने लोग निरक्षर हैं, कितने साक्षर हैं, कितने लोग स्नातक हैं। इसी के साथ यह भी पता चलता है कि कितने बच्चे किस कक्षा के बाद स्कूल छोड़ देते हैं। कितने लोगों को रोजगार मिला है, कितने लोग बेरोजगार और अर्ध बेरोजगार हैं। कितने लोग खेती करते हैं और कितने लोग कृषि मजदूर हैं। इसी के साथ यह भी पता चल जाता है कि पिछले 10 वर्षो में कितने लोग किसान से कृषि मजदूर बन गये। भिन्न-भिन्न जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति क्या है इसका पता चलता है। कितने लोग रिक्शा चलाते हैं, कितने ठेला लगाते हैं, कितने लोग सड़क पर सोते हैं और कितने लोग भीख मांग कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं, इत्यादि। यह सब जानकारी देश की सरकार के पास होनी जितनी जरूरी है उतना ही इन आंकड़ों को जारी करना भी जरूरी है जिससे देश की जनता को यह पता चल सके कि हम जिस समाज में रहते हैं वह कैसा है। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थिति क्या है और देश की जनता अपने समाज के लिए क्या-क्या कर सकती है और क्या-क्या करने के लिए सरकारों को मजबूर कर सकती है।

किसी भी समुदाय की सम्पूर्ण जानकारी रखना और उसे जारी करना कितना आवश्यक है यह दो उदाहरण से समझा जा सकता है। स्वामीनाथन कमीशन 2004 और सच्चर कमिशन 2005। केंद्र सरकार ने 2004 में एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स का गठन किया। इस आयोग ने पांच रिपोर्टें सरकार को सौंपी थी। आखिरी और पांचवीं रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 में सौंपी। उनकी सिफारिशों में किसानों की दशा को बेहतर कैसे बनाया जाय उसके कुछ मुख्य बिंदु निम्न हैं :

  1. किसानों को फसल उत्पादन मूल्य से 50% ज्यादा मिलने की व्यवस्था की जाय।
  2. किसानों को अच्छी क्वालिटी के बीज कम दामों पर मुहैया कराये जाएं।
  3. गाँव में किसानों की मदद के लिए विलेज नॉलेज सेण्टर या ज्ञान चौपाल बनाया जाय।
  4. महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड जारी किये जाय।
  5. किसानों के लिए कृषि जोखिम फण्ड बनाया जाय ताकि प्राकृतिक आपदाओं के आने पर किसानों को मदद मिल सके।
  6. खेतिहर जमीन और वनभूमि को गैर कृषि उद्देश्यों के लिए कारपोरेट को न दिया जाय।
  7. किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज की दर 4% की जाय।

देश के मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की हालत को जानने के लिए 9 मार्च 2005 को जस्टिस राजेंद्र सच्चर के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन हुआ था। कमेटी ने 403 पेज की रिपोर्ट 30 नवम्बर 2006 को लोकसभा मे पेश की जिसमें कहा गया कि देश में मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर है। कमेटी की महत्वपूर्ण सिफारिशें निम्न हैं :

  1. 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध कराना, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सरकारी स्कूल खोलना, स्कॉलरशिप देना, मदरसों का आधुनिकीकरण करना।
  2. रोजगार में मुसलमानों का हिस्सा बढ़ाना, मदरसों को हायर सेकंडरी स्कूल बोर्ड से जोड़ने की व्यवस्था करना।
  3. प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के मुसलमानों को ऋण सुविधा उपलब्ध कराना और प्रोत्साहन देना, मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में और बैंक शाखाएं खोलना, महिलाओं के लिए सूक्ष्म वित्त प्रोत्साहित करना।
  4. मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कौशल विकास के लिए आई.टी.आई और  पोलिटेक्कनिक संस्थान खोलना।
  5. वक्फ सम्पतियों का बेहतर इस्तेमाल।
  6. अल्पसंख्यक बहुल इलाकों को एस.सी. के लिए आरक्षित न किया जाय।
  7. मदरसों की डिग्री को डिफेन्स, सिविल और बैंकिंग परीक्षा के लिए मान्य करने की व्यवस्था करना।

इन कमीशनों की रिपोर्टों का क्या हुआ? सरकार ने क्यों लागू नहीं किया? अगर लागू किया तो क्या-क्या किया? आगे इसके बारे में क्या योजना है आदि के बारे में चर्चा एक अलग विषय है। यहां इस रिपोर्ट की चर्चा करना इसलिए जरूरी है कि यह सारी स्थितियां जाति जनगणना में स्पष्ट रूप से आएगी और उन आंकड़ों को जारी करना इसलिए भी जरूरी है  कि देश की जनता को यह पता चल सके कि सरकार उनके लिए क्या-क्या कर रही है। अगर नहीं कर रही है तो उसके लिए एकजुट हुआ जा सके।

स्वामीनाथन की रिपोर्ट के आधार पर किसान यह समझ सके कि देश के किसानों कि दशा क्या है और उसके लिए जिम्मेदार कौन है। अब स्वामीनाथन की रिपोर्ट को लागू करने के लिए किसान आन्दोलनरत हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही देश के लोगों को यह पता चला कि बहुसंख्यक मुसलमान किस भयावह दशा मे अपनी जिन्दगी गुजार रहे हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर ही देश के बुद्धिजीवी, समाजसेवी, सामाजिक संस्थाएं मुसलमानों के उत्थान के लिए मुखर हुईं।

जाति जनगणना के बाद ही विभिन्न समुदाय की स्थिति के अनुसार नीतियों का निर्धारण विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की जानकारी, असमानता को दूर करने के उपाय, उन जातियों की पहचान जो मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं और ऐसी जातियां या समुदाय जो विलुप्त होने की कगार पर है उनको बचाने और उनके उत्थान के उपाय, वित्त आयोग द्वारा राज्यों को अनुदान निर्धारण, रोजगार की व्यवस्था, शैक्षणिक सस्थानों में संसाधनों की बढ़ोत्तरी, समाज के सबसे निचले तबके को ध्यान में रखते हुए कल्याणकारी कार्यक्रमों का संचालन इत्यादि कार्य सरकार को करने होते हैं ।

जाति जनगणना का विरोध :

जाति जनगणना मे प्राप्त आंकड़ों के आधार पर ही सरकारें अपनी जनकल्याणकारी नीतियों का निर्धारण कर सकती हैं जिससे वंचित समुदाय को उनके अधिकार मिल सकें। जातिजनगणना कराने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। आजादी के बाद से लेकर आज तक कोई भी सरकार जाति जनगणना कराने के लिए तैयार नहीं हुई। कांग्रेस ने 2011 में SECC (सोशियो इकोनोमिक कास्ट सेन्सस) आधारित आंकड़े जुटाए थे। आंकड़े जुटाने में 4000 करोड़ रु. की भारी भरकम राशि खर्च की गयी, लेकिन कांग्रेस सरकार ने इन आंकड़ों को जारी नहीं किया। 2016 में भाजपा सरकार ने जाति को छोड़कर SECC के सभी आंकड़े प्रकाशित किये, लेकिन जातिगत आंकड़े प्रकाशित नहीं किये। जाति का आंकड़ा समाज कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया, विशेषज्ञ ग्रुप भी बना ,उसके बाद क्या हुआ इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की गयी। वर्तमान केंद्र सरकार के गृह राज्यमंत्री नित्यानन्द राय ने 20 जुलाई 2021 को लोक सभा में कहा कि फिलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। पिछली बार की तरह इस बार भी एस.सी. और एस.टी. को ही जनगणना में शामिल किया गया है, जबकि भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा “अगर इस बार भी जनगणना में हम ओ.बी.सी. कि जनगणना नहीं करेंगे तो ओ.बी.सी. को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएंगे ,हम उन पर अन्याय करेंगे।”

  • हिन्दुस्तान अखबार के आर्थिक समीक्षक राकेश किशोर 25 अगस्त 2021 के अपने लेख में कहते हैं कि अगर आर्थिक पैमाने के साथ एक व्यापक जातिगत जनगणना आयोजित की जाती है और उसके आंकड़े कुछ समूहों को उनके मौजूदा लाभों से वंचित करने का प्रयास करते हैं तो देश को एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है।
  • हिन्दुस्तान 24 अगस्त 2021 को अपने सम्पादकीय में लिखता है कि “इस जातिगत जनगणना के फायदे भी हैं और नुकसान भी। क्या इसके फायदे उठाने की समझदारी हमारे राजनीतिक दलों में पर्याप्त है? क्या इसके नुकसान को संभालने के लिए भी पार्टियां तैयार हैं? क्या जातिगत आंकड़े दुरुस्त न होने के कारण जन कल्याणकरी योजनाओं या आरक्षण देने में कोई परेशानी आ रही है ?
  • इलाहाबाद युनिवर्सिटी के जे.बी. पन्त सोशल साइंस इंस्टिट्यूट के निर्देशक प्रो. बद्री नारायण कहते हैं, “अंग्रेजों की ओर से जनगणना लागू करने से पहले जाति व्यवस्था लचीली और गतिशील थी, लेकिन अंग्रेज जब जाति जनगणना ले कर आये तो सब कुछ रिकॉर्ड में दर्ज हो गया इसके बाद जाति व्यवस्था जटिल हो गयी… उसके बाद ही लोग जाति से खुद को जोड़कर देखने लगे, जाति के आधार पर पार्टियां और एसोसिएशन बनने लगे।”

भाजपा के साथ एक बुद्धिजीवी तबका भी है जो जाति जनगणना का विरोध कर रहा है, लेकिन दोनों के स्वार्थ अलग-अलग हैं। एक राजनैतिक हानि-लाभ के द्रृष्टिकोण से विरोध कर रहा है तो दूसरा आर्थिक सुविधाओं में कटौती से भयभीत है। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन दोनों यह साबित करना चाहते हैं कि जाति जनगणना देश और समाज के लिए घातक है।

भाजपा की राजनीति हिंदुत्व पर निर्भर है। उसको आरक्षण का भूत सता रहा है कि जाति जनगणना से अगर ओ.बी.सी. की जनसंख्या बढ़ गयी तो उनको आरक्षण में हिस्सेदारी बढ़ाने का दबाब भाजपा की केंद्र सरकार पर पड़ेगा। तब हिन्दुओं की सवर्ण जातियों द्वारा आरक्षण का विरोध किया जाएगा। आरक्षण में हिस्सेदारी नहीं बढ़ने से हिन्दुओं का एक तबका ओ.बी.सी. उसके खिलाफ हो जाएगा और बढ़ने पर सवर्ण जो भाजपा की हिंदुत्व पर टिकी राजनीति के लिए नुकसानदायक है । क्षेत्रीय पार्टियां जाति आधारित हैं और इनको अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिल जाएगा। भाजपा का हमेशा से यही प्रयास रहा है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़कर सत्ता पर कब्ज़ा किया जाए, लेकिन यह जाति जनगणना उसके गले की हड्डी बन जाएगी। दूसरी बात, अब सरकारें कल्याणकारी राज्य के रूप में नहीं रहीं। जन हित उनके एजेन्डे में नहीं है। सरकारों की अब सभी नीतियां उद्योगपतियों के हित साधने के लिए ही बन रही हैं।

क्षेत्रीय पार्टियों की नजर ओबीसी की जनसंख्या पर है। वह घट रही है या बढ़ रही है दोनों स्थितियों में उनके दोनों हाथ में लड्डू है। जनसंख्या कम होने से उनको यह प्रचारित करने का मौका मिलेगा कि सरकार की नीतियों के कारण  ओ.बी.सी. की जनसंख्या घट रही है, अगर जनसंख्या बढ़ गयी तो आरक्षण में हिस्सेदारी की मांग करके ओ.बी.सी. के बीच अपनी पकड़ मजबूत करेगें जिससे सत्ता में पहुँचने का रास्ता साफ़ हो सके।

देश की जनता अब हाड़-मांस का शरीर नहीं है। वह राजनैतिक पार्टियों के लिए मात्र वोट बैंक है, हार जीत का गणितीय समीकरण है और आरक्षण के लिए औजार है। हिंदुत्व और आरक्षण के दोनों पाटों में फंसी जनता राजनैतिक चेतना के आभाव में पिस रही है। वह यह नहीं समझ पा रही है कि आरक्षण अब उनकी उन्नति का अवसर नहीं रही। आरक्षण राजनैतिक पार्टियों और कॉर्पोरेट घरानों के मजबूत गठबंधन का एक ताकतवर हथियार बन गया है जो जनता की एकता को तोड़ रहा है, समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है।

आजादी के बाद संविधान में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण द्वारा अनेक उपाय किये गये।

1. सामाजिक सुरक्षा।

2. आर्थिक सुरक्षा।

3. शैक्षणिक और सांस्कृतिक सुरक्षा।

4.  राजनैतिक सुरक्षा।

5. सेवा सुरक्षा।

6. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष सुरक्षा।

आरक्षण के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 15(4) में राज्य को सामाजिक-शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किसी भी वर्ग के उत्थान के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबन्ध बनाने की शक्ति प्रदान करता है। संविधान के इसी अनुच्छेद के आधार पर 1953 में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्याकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग द्वारा सौपी गयी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबधित रिपोर्ट स्वीकार कर ली गयी लेकिन अन्य पिछड़ी जाति (ओ.बी.सी.) के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद 1979 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछडे वर्गों की स्थिति का मूल्याकन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना का गठन किया गया। इस आयोग के पास ओ.बी.सी. के लिए कई वास्तविक आंकड़े थे। आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर पिछड़े वर्ग के रूप में 1267 समुदायों का वर्गीकरण किया और उसे 52% बताया। 1980 में आयोग ने एक रिपोर्ट पेश किया जिसमें आरक्षण के कोटा में बदलाव करते हए 22% (15% अनुसूचित जाति और 7.5% अनुसूचित जनजाति) से बढ़ा कर 49.5% की सिफारिश की। 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों के  आधार पर इसे नौकरियों में लागू कर दिया। उसी समय से ओ.बी.सी. भी आरक्षण के दायरे में आ गया। आरक्षण के सम्बन्ध में संविधान सभा में बहस के बाद यह तय किया गया कि 10 वर्ष के बाद आरक्षण की समीक्षा होगी और उसके आगे की दिशा तय की जाएगी, लेकिन 75 वर्षों से बिना किसी समीक्षा के आरक्षण बढ़ाया जाता रहा है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओ.बी.सी. की जनसंख्या कुल आबादी का लगभग 75% है। इन 75 वर्षो में इनका आरक्षण से कितना आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक उत्थान हुआ है? अगर नहीं हुआ है तो क्यों नहीं हुआ है? उनका उत्थान कैसे होगा? यह सवाल किसी भी राजनैतिक पार्टी ने कभी नहीं उठाया। इन राजनैतिक पार्टियों के लिए जाति जनगणना और आरक्षण महज एक चुनावी मुद्दे से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जनता के जनहित के सभी मसले इन सभी राजनैतिक पार्टियों की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रहे हैं।


लेखक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं


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