फारवर्ड प्रेस के नाम को और कितना गंदा करोगे प्रधान संपादक?


कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनमें सार्वजनिक और व्यक्तिगत का फर्क करना सिर्फ बौद्धिक  चालाकी ही कही जानी है। दलित-बहुजनों की पत्रिका फारवर्ड प्रेस के मालिक और प्रधान संपादक के नाम लिखे इस पत्र को सार्वजनिक रूप से जारी कर  इस चालाकी को तिलांजलि दे रहा हूं। वहां जिस दिशा में चीजें बढ़ रहीं हैं, उसमें मेरा और चुप रहना अपराध होगा।

लेखक का पूर्वकथन

आयवन कोस्का जी,

 विश्वास है कि आप कैनेडा में सपरिवार मजे में हैं।

चर्चित दलित लेखिका दिवंगत सुजाता पारमिता जी की बेटी जुन्हाई सिंह[i] ने मुझे  ईमेल भेजा है और मदद की गुहार लगायी है। उन्होंने अपने मेल में बताया है कि फारवर्ड प्रेस ने सुजाता पारमिता की किताब छापने के लिए उनसे रुपये की माँग की और लगभग दो लाख रुपये ठग लिये। ये पैसे उन्होंने आपके कर्मचारियों और आपके चार्टेड अकाउंटेंट को दिए हैं। फारवर्ड प्रेस ने उन्हें यह भी झाँसा दिया कि आप लोग सुजाता जी के नाम से एक वेबसाइट बनाएंगे, जिससे उनकी ग्लोबल स्तर पर चर्चा होगी!

फारवर्ड प्रेस ने किताब तो नहीं ही छापी; आप लोगों की ओर से उन्हें आपत्तिजनक ईमेल और व्हाट्सऐप सन्देश भेजे गये। इन सन्देशों में जिस प्रकार की अश्लीलता है, उसे मैं यहां नहीं लिखना चाहता।

जुन्हाई ने जो ईमेल मुझे भेजा है उसमें उन्होंने अपनी व्यथा को विस्तार से बताया है कि किस प्रकार से पिछले एक साल से आप लोगों ने उनका और उनके परिवार का जीवन नरक बना रखा है। उनके कुछ मित्रों ने भी इस सम्बन्ध में मुझसे सम्पर्क कर हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है। पिछले एक सप्ताह  में इस सम्बन्ध में जो बातें मेरे सामने आयी हैं, उनसे बहुत आश्चर्यचकित तो नहीं हूं, सिर्फ़ यह सोच रहा हूं कि आप लोग कितना नीचे गिरेंगे?

यह पहली बार नहीं है, जब आप यह सब कर रहे हैं। जब मैं फारवर्ड प्रेस में कार्यरत था, उस समय भी आप कई लेखकों के कामों का कॉपीराइट महज़ 10-20 हज़ार रुपये देकर ख़रीद चुके हैं। राजकिशोर जी ने ‘जाति का विनाश’ और कंवल भारती ने ‘मदर इंडिया’ को अनूदित करने में जो श्रम लगाया था, उसका कॉपीराइट अपने नाम करने में आपको शर्म तक नहीं आई। हाल ही में मुझे मालूम चला है कि राजकिशोर जी की पत्नी ‘जाति का विनाश’ से संबंधित अनुबंध के बारे में जानना चाहती थीं, लेकिन आप लोगों ने उन्हें अनुबंध नहीं भेजा। चूंकि यह किताब कई यूनिवर्सिटियों के कोर्स में लगी है और आम लोगों में भी इसकी बड़ी मांग है, सो आपने इससे खूब कमाई की। यही बर्ताव आपने कंवल भारती द्वारा अनूदित ‘मदर इंडिया’ के साथ किया।

इसी प्रकार, दलित पैंथर के संस्थापक जेवी पवार की किताब ‘दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास’ का हिंदी अनुवाद करवाने के नाम पर आपने किताब कॉपीराइट ही अपने नाम कर लिया। उन्हें तो आपने एक कौड़ी भी नहीं दी। ये वही जेवी पवार हैं, 70 के दशक में जिनका एक इंटरव्यू आपने किशोरों के लिए निकलने वाली एक पत्रिका के लिए किया था। वह इंटरव्यू आपके जीवन की एकमात्र पत्रकारिता है, जिसे फारवर्ड प्रेस के हर कार्यक्रम में पीपीटी स्क्रीन पर दिखा कर साबित करते रहते हैं कि आप पत्रकार हुआ करते थे। जिंदगी में सिर्फ एक बार, अपनी किशोरावस्था में किशोरों की एक पत्रिका में प्रकाशित होकर खुद को पत्रकार साबित करना! अजीब पाखंड है आपका।

मेरे वहां रहते हुए इन कामों के लिए आपकी पत्नी, सिल्विया कोस्का जो कि फारवर्ड प्रेस की आधिकारिक मालकिन हैं, संपादकीय टीम पर किस प्रकार का दबाव बनाती थीं, उसे याद कर आज भी सिहरन होती है। यहां तक कि मेरे फारवर्ड प्रेस छोड़ने के बाद आपने पेरियार पर केंद्रित मेरी किताब को भी, मेरा नाम हटाकर फारवर्ड प्रेस के नाम से छाप लिया। इसके अलावा आपने किस-किस प्रकार से मेरे और अन्य लेखकों के बौद्धिक-उत्पादों को चुराया उसके विस्तार में मैं यहां फिर से नहीं जाना चाहता।

मुझे याद आ रहा है कि पेरियार की विचारधारा से घनिष्ठता से जुड़ी तमिल पत्रिका कात्तारू के मेरे साथियों से आपकी पत्नी ने पेरियार की किताब हिंदी में छापने के लिए 1 लाख 90 हजार रुपए की मांग की थी। कात्तारू के साथियों ने जब आपकी पत्नी का वह मेल मुझे फारवर्ड किया था, तो मैं शर्म से गड़ गया था।

आर्थिक रूप से भ्रष्ट होना एक मानसिक बीमारी हो जाती है। इस बीमारी से ग्रस्त आदमी हो या संस्थान, यह नहीं देखता कि वह कितने पैसे का भ्रष्टाचार कर रहा है। एक लाख रुपये मासिक वेतन पाने वाला अधिकारी भी अगर भ्रष्ट हो तो 200 रुपये की घूस के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है। फारवर्ड प्रेस तो आर्थिक और नैतिक दोनों रूपों में पूरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। आप पर डॉ. आम्बेडकर के अपमान के लिए मुजफ़्फ़रपुर ज़िला न्यायालय में मुक़दमा चल रहा है। आपने उन्हें अपनी पत्रिका में ईसाई के रूप में दिखाया था। विदेशी अनुदान के पैसों में हेरफेर और हवाला का भी मुक़दमा आप पर है। उससे सम्बन्धित दस्तावेज़ भी मैंने पिछले दिनों देखे हैं।

पिछले तीन साल से फारवर्ड प्रेस से पूरी तरह अलग हूँ, इसके बावजूद आपकी कारस्तानियों की छाया रोज मुझ पर पड़ती है। फारवर्ड प्रेस को स्वरूप देने में मेरी भूमिका रही है, उससे मेरा नाम मेरे चाहने-न-चाहने के बावजूद जुड़ा है, इसलिए इन मामलों पर अनंत काल तक चुप नहीं रह सकता। इसके अलावा, आप अपने इन कारनामों से अपने कर्मचारियों और लेखकों को किस प्रकार के खतरे में डाल रहे हैं, इसे वे कतई नहीं जानते। आप उन्हें यह क्यों नहीं बताते कि फारवर्ड प्रेस चलाने के लिए आपके द्वारा विदेश से अवैध रूप से भेजा जाना वाला पैसा पारिश्रमिक के रूप में उनके बैंक अकाउंटों में पहुंच रहा है, जिससे वे कभी भी आप पर चल रही विभिन्न भारतीय एजेंसियों के जांच के दायरे में आ सकते हैं।

सुजाता का चले जाना, जैसे किसी नदी का ठहर जाना

आप तो देश छोड़कर भाग चुके हैं। महिषासुर वाले मुकदमे के क्रम में पुलिसवालों से मुझे मालूम चला है कि आप भारत की सारी सम्पत्ति भी बेच चुके हैं। वैसे भी आप दोनों कैनेडियन नागरिक हैं। आपका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा।

आपने अब एक ट्रस्ट बना लिया है, जिसके माध्यम से आप फारवर्ड प्रेस को चला रहे हैं, लेकिन आपने अपने पाठकों और लेखकों को यह नहीं बताया है कि यह ट्रस्ट भारत में नहीं, बल्कि कैनेडा में है[ii] और आपने इसका गठन इसलिए किया है ताकि भारत के कानून आप पर लागू नहीं हों। न ही उनको इनके गुमनाम ट्रस्टियों के बारे में किसी को कुछ मालूम हो। आप अपने लेखकों को यह क्यों नहीं बताते कि आपके ट्रस्ट के पास भारत में सामाचार-संस्थान चलाने की अनुमति नहीं है?

आप आजीवन चर्च में पुरोहित रहे, पत्रकारिता आपने कभी नहीं की। चर्चित क्रिश्चन मिशनरी डब्ल्यू. हेरोल्ड फुलर ने अपनी किताब[iii] में आपकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि आप ब्रामालिया बैपटिस्ट चर्च, कैनेडा से संबंद्ध “ग्लोबल डिसाइपलशिप प्राप्त पादरी” हैं। नीदरलैंड के मुरे मोरमैन नामक वरिष्ठ पादरी ने अपनी किताब[iv] में लिखा है कि आप और आपकी पत्नी “मीडिया मिशन” पर भारत भेजे गए थे। ये बातें बहुत बाद में मुझे एक मित्र से मालूम चलीं। क्यों आपने मुझे इस बारे में नहीं बताया? कभी अपने पाठकों को इस बारे में क्यों नहीं सूचित किया? उल्टे आप हमेशा यह झूठ फैलाते रहे कि भारत आने से पहले आप एक पत्रकार हुआ करते थे। फारवर्ड प्रेस की वेबसाइट पर भी आपने यही लिख रखा है।[v]

आप हम लोगों से मिलने आने वाले हर लेखक को भी यही बताते रहे कि आपके मन में एक पत्रकार के तौर पर दलित और ओबीसी के लिए प्रेम है, इसलिए आप अपने पैसे से यह पत्रिका निकालते हैं। फारवर्ड प्रेस का ऐसा कोई लेखक नहीं है, जो इस सच्चाई को जानता हो।

मैं नास्तिक (Non-religious) हूं, लेकिन मुझे आपके किसी धर्म को मानने से आपत्ति नहीं है। बल्कि मैं तो धर्मांतरण के अधिकार का समर्थन करता हूं। जैसा कि राहुल सांकृत्यायन कहते थे कि हर किशोर को एक बार घर छोड़ अवश्य भागना चाहिए। वैसे ही मैं मानता हूं कि हर व्यस्क को जीवन में कम से कम एक बार अवश्य धर्मांतरण करना चाहिए, तभी उसे इन धर्मों से जुड़े संस्कारों और अंधविश्वासों के पिलपिलेपन का बोध होगा। लेकिन पंडे, पुरोहितों और पादरियों की जगह मीडिया में क्यों होनी चाहिए? मुझे आपकी असलियत पहले पता होती तो मैं कभी आपके साथ काम नहीं करता।

Sujata Parmita’s struggles through the eyes of her daughter

याद करता हूँ कि आप लोगों ने किस चालाकी से झूठ फैलाया कि फारवर्ड प्रेस आप अपने पैसे से निकाल रहे हैं। मैं भी लम्बे समय तक इसी भ्रम में रहा जबकि सच यह है कि इसके लिए आप देश-विदेश की संस्थाओं से अनुदान ले रहे हैं और उससे आलीशान ज़िन्दगी जी रहे हैं। आपकी आय का स्रोत यह अनुदान ही है, जिसका नाम मात्र का हिस्सा आप फारवर्ड प्रेस पर ख़र्च करते हैं; और स्वयं ऐसी ज़िन्दगी जीते हैं जिसे देखकर कोई बड़ा उद्योगपति भी शरमा जााए। अन्यथा न आपको मुद्दों का कोई ज्ञान है, न विचारशीलता से आपका दूर-दूर तक कोई नाता है। एक पत्रकार और सम्पादक के रूप में आपके पास अनुदान के कुछ पैसों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उस बौद्धिक-सम्पदा का लेश मात्र भी आपके पास नहीं है, जो एक संपादक के रूप में आपके पास होना चाहिए था। गूगल का सर्च इंजन काम न करे तो आप देश-दुनिया के बारे में चार लाइनें नहीं लिख सकते। आपको न प्रकाशन की दुनिया में स्वीकार्य लोकाचारों का पता है, न ही कॉपीराइट के नियमों की जानकारी है। आप समझते हैं कि अगर किसी ने आपकी वेबसाइट या पत्रिका के लिए कुछ लिखा और आपने उसे कुछ टका पारिश्रमिक दे दिया, तो उस सामग्री का कॉपीराइट आपका हो गया! जबकि नियम यह है कि अनुवाद समेत सभी प्रकार के रचनात्मक-बौद्धिक उत्पादों का कॉपीराइट उसके सर्जक के पास तब तक रहता है, जब तक कि वह पक्के लिखित करार के तहत उसे बेच न दे। चाहे कोई अखबार हो या पत्रिका या वेबसाइट, जब कोई सामग्री प्रकाशित करती है और उसके लिए पारिश्रमिक का भुगतान करती है तो वह सामग्री के सर्जक से सिर्फ “एक बार प्रकाशन/प्रसारण” की अनुमति प्राप्त कर रही होती है। इसी तरह कोई कर्मचारी अगर किसी पत्रकारिता या प्रकाशन से संबंधित संस्थान में कार्यरत रहते हुए कोई रचनात्मक काम (पुस्तक लेखन, संपादन, अनुवाद, चित्र आदि) करता है तो उस काम का कॉपीराइट संस्थान का नहीं हो जाता। संस्थान का उसके उन्हीं निर्धारित कामों पर हक होता है, जिसके लिए कर्मचारी को नियुक्त किया गया है और जिसका उल्लेख उसके साथ नियुक्ति के समय हुए अनुबंध में हो।

आपको इन नियमों की कोई जानकारी है। आपको आता है तो सिर्फ धार्मिक पाखण्ड, जिससे जुड़े अंधविश्वास आप और आपकी पत्नी अपने कर्मचारियों पर थोपते रहते हैं। इस सम्बन्ध में आपके पूर्व सम्पादकीय-सहकर्मी प्रेम बरेलवी ने आप पर मुकदमा भी दर्ज करवाया है कि आपने उन्हें अपनी धार्मिक प्रार्थनाओं में शामिल होने के लिए मजबूर किया। उन्होंने अपनी शिकायत की कॉपी मुझे पिछले साल भेजी थी, जिस पर उस समय मैंने विवशतावश चुप्पी साध ली थी। अब मैंने सुना है कि प्रेम बरेलवी ने आप पर कथित तौर पर बकाया पैसों के लिए भी मुकदमा किया है, जिसमें उन्होंने मुझे भी तत्कालीन प्रबंध-संपादक के तौर पर आरोपित किया है।

फारवर्ड प्रेस की पहचान आपके धार्मिक अंधविश्वासों के कारण नहीं, बल्कि मेरे और तत्कालीन सम्पादकीय सहयोगियों की प्रतिबद्धता और श्रम के कारण बनी थी। मेरे आने के पूर्व आप अपनी पत्रिका मुफ़्त वितरित करते थे, और उसे भी कोई लेता नहीं था। अनुदान के पैसे पर पलने वाले आपके दो चट्टे-बट्टे उसमें लिखा करते थे, क्या लिखते थे, यह या तो वे स्वयं जानते थे, या फिर ईसा मसीह क्योंकि पत्रिका का कोई पाठक तो था नहीं। देश में आपके जैसे हज़ारों एनजीओ वाले रंगीन पत्रिकाएँ निकालते हैं। आपकी पत्रिका उससे अलग नहीं थी।

बहरहाल, आपने लेखकों को चर्चित करवाने का यह धन्धा कब से शुरू किया है? आपका अपना स्तर क्या है, जो आप सुजाता पारमिता जी को ग्लोबल स्तर पर चर्चित करवाएंगे? आप कोई लेखक हैं? कोई बुद्धिजीवी हैं? या कोई ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्हें लोग जानते हों?

आपके साथ आठ वर्ष तक काम करने के अनुभव के आधार पर दावे के साथ कह सकता हूं कि आप यह भी नहीं जानते हैं कि सुजाता पारमिता कौन हैं और उनका साहित्यिक-सामाजिक योगदान क्या है। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि सुजाता जी भारत के दलित-बहुजनों के बौद्धिक जगत में बहुत लोकप्रिय रही हैं। जिस कैनेडा में आप रहते हैं, उसके समेत दुनिया के अनेक देशों के पुस्तकालयों में उनकी किताबें हैं और उन पर बहुत काम हुआ है। सुजाता जी का एक परिचय यह भी है कि वह विख्यात लेखिका कौशल्या वैसंत्री की बेटी हैं। जुन्हाई उनकी बेटी यानी कौशल्या वैसंत्री की पोती हैं।

यह परिवार आपके फारवर्ड प्रेस द्वारा दिये जाने वाले परिचय की मोहताज नहीं है। जुन्हाई ने फारवर्ड प्रेस से सम्पर्क करके भूल की थी क्योंकि उनका साहित्यिक-जगत से ज्यादा परिचय नहीं है।

बहरहाल, सुजाता पारमिता मुझे माँ की तरह स्नेह देती थीं, और उस रिश्ते से जुन्हाई हमारी बहन हैं।

मैं आपसे आग्रह कर रहा हूँ कि जुन्हाई के पूरे पैसे तत्काल वापस करें और इन कृत्यों के लिए सार्वजनिक माफी मांगें, हालाँकि मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि आपकी पत्नी की सहमति से ही जुन्हाई से पैसे लिए गए हैं। लेकिन अगर आप कहते हैं कि आपके कर्मचारियों ने अपनी मर्जी से यह सब किया है और इसमें आपकी कोई भूमिका नहीं है तो आपको फारवर्ड प्रेस को बन्द कर देना चाहिए। आपसे कोई लेखक सीधे संपर्क नहीं कर सकता, न आप किसी लेखक के ईमेल का उत्तर देते हैं और आपके ये कर्मचारी ही बेवसाइट से लेकर किताबों का प्रकाशन तक करते हैं तो उनके द्वारा किए गए कामों को कैसे फारवर्ड प्रेस से अलग माना जा सकता है?

अगर आप जुन्हाई के प्रसंग में कारवाई नहीं करते हैं, तो वह इस मुद्दे को लोगों के बीच ले जाने के लिए विवश होंगी। जुन्हाई के इस क़दम में मैं आपको उनके के साथ खड़ा मिलूँगा।

प्रमोद रंजन


स्रोत-संदर्भ

[i] https://www.facebook.com/junhaie.sood

[ii] Forward Press. About Forward Press : Official Version. Zenodo, 17 July 2022, p., doi:10.5281/zenodo.6848730.

[iii] Fuller, W. Harold. Sun Like Thunder Following Jesus on Asia’s Spice Road. Australia, FriesenPress, 2015. Pp  61-72. https://issuu.com/simintl/docs/sun-like-thunder-sept2011

[iv] Seim, Brian. ‘Reaching the World at Our Doorstep’. Discipling Our Nation : Equipping the Canadian Church for Its Mission, Church Leadership Library, 2005, http://www.murraymoerman.com/3downloads/donton/don/06-Reaching%20the%20World%20at%20Our%20Doorstep.pdf.

[v] Forward Press. About Forward Press : Official Version. Zenodo, 17 July 2022, p., doi:10.5281/zenodo.6848730.


(प्रमोद रंजन 2011 से 2019 तक फारवर्ड प्रेस के प्रबंध-संपादक रहे हैं। संपर्क : pramod@janvikalp.com)


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