अनुभव, कल्पना और न्याय: एक समतापूर्ण समाज के निर्माण पर औपनिवेशिक छायाएं


कल्पना मनुष्य का सबसे मूलभूत गुण है। कल्पनाशीलता के चलते ही हम अतीत, वर्तमान व भविष्य की एक समझ बना पाते हैं।  दुनिया को बेहतर और सबको साथ लेकर चलने के लायक बनाने के लिए, हमें प्रत्यक्ष के बारे में समझ बनानी होती है। इससे हम अपने अनुभव से पार जा पाते हैं।  शिक्षा का उद्देश्य ऐसी दशा प्राप्त करना है जहाँ उन दशाओं और अनुभवों को कल्पित किया जा सके, जहाँ हमारा ज्ञान और प्रत्यक्ष अनुभव नहीं पहुँच पाता। यहाँ तक कि अपनी भौतिक काया और आत्मा के बारे में जानने के लिए कल्पना की भूमिका को मनो-समाजशास्त्री जरूरी मानते रहे हैं। 

चार्ल्स होरटन कहते भी हैं जिन्हें देखकर हम कोई राय बनाते हैं, उनके व्यवहार की मनोवैज्ञानिक व्याख्या के लिए कल्पनाशील अंतर्दृष्टि हमारे वजूद का अभिन्न हिस्सा है। इसके बिना हम केवल ऊपरी तौर पर खुद का हाथ टटोलते रह जाएंगे। दार्शनिक कांट कहते भी थे कि बिना विचार के किसी प्रत्यक्ष अनुभव की बात करना अँधेरे में छलांग लगाना है।  इस प्रकार बिना कल्पना के कोई सैद्धांतीकरण संभव नहीं है। कल्पना के बिना आधारभूत और प्राकृतिक अधिकारों के विचार को हम आगे नहीं ले जा सकते हैं। यूटोपिया और डिस्टोपिया का विचार कल्पना के बिना संभव ही नहीं था। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि तथ्यों को जानना एक बात है जबकि उन तथ्यों के आधार पर कोई आन्दोलन खड़ा करना एक अलग बात है। इसी तरह, तथ्यों को जानना एक बात है जबकि उन्हीं तथ्यों के आधार पर भेदभाव को समझना एक अलग बात है। बाद वाली चीजों के लिए आपको कल्पनाशीलता की आवश्यकता होती है। कोई अनुभव करना एक बात है जबकि उस अनुभव को किसी भाषा में प्रकट करना भी महत्वपूर्ण बात है।

भारत की भाषा-दार्शनिक परंपरा में इस पर काफी विमर्श किया गया है। अनुभव और भाषा पर लिखते हुए बिमल कृष्ण मतिलाल कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह सब कुछ अनुभव कर लेता है तो वह भाषा की भूमिका को उपेक्षित कर देता है। वे आगे कहते हैं कि मनुष्य की चेतना जिस कल्पना को प्रसूत करती है, वही आगे चलकर वास्तविक चीज बन जाती है।[1]

इसलिए एक बेहतर दुनिया संभव है- यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि अनुभव और सामाजिक सच्चाइयों के प्रकटीकरण में कल्पना की भूमिका को महत्त्व न दिया जाय। कल्पना अनुभव और सामाजिक सच्चाइयों के प्रकटीकरण के बीच की प्रमुख कड़ी है। कभी-कभी यह प्राथमिक कड़ी भी बन जाती है।  इसे कुछ यों समझ सकते हैं कि कहा जा रहा है कि जो लोग मानव मल-मूत्र अपने सिर पर उठाते हैं, उस अपमान, पीड़ा और कलंकीकरण को वे उसके प्राथमिक संदर्भों के साथ औरों के सामने रख सकते हैं। यहाँ तक कि गंध के अनुभव को वे ही जानते हैं जिन्होंने इसे भोगा है।

गुजराती दलित साहित्यकार चंदू महेरिया के संस्मरण प्रतिमान में ‘गंध’ शीर्षक से छपे हैं। उसे पढ़िए तो आप पाएंगे कि गंध को लेकर जो भाव-बोध उनके अन्दर है, वह अन्य साहित्यकारों में मिलना दुर्लभ क्यों है। वह इसलिए है कि उनकी घ्राण की स्मृति में वह सब कुछ अनुपलब्ध है जो किसी सार्वजनिक शौचालय के पास रहने वाले व्यक्ति की चेतना में उपलब्ध है।

मैं इस परचे में अनुभव, कल्पना और न्याय के मुद्दे पर बात करने का प्रयास कर रहा हूँ। जैसा कि इस परचे का उपशीर्षक बताता है, यह इन तीनों बिंदुओं के आलोक में एक समतापूर्ण समाज के निर्माण की उस प्रक्रिया और सपने के बारे में बात करना चाहता है जो हमारे युग की सबसे बड़ी चिंता है।

आधुनिक समय में समतापूर्ण समाज की बात करना कोई नयी बात नहीं है, इसके लिए ऋषि-महात्मा, डाकू और राजा सभी बात करते रहे हैं लेकिन समतापूर्ण समाज को एक जीवन मूल्य से बढ़कर राजनीति‍क विचार और भाव-बोध में बदलने का श्रेय आधुनिक समय को दिया जाना चाहिए। इसके लिए लोकतंत्र, व्यक्ति की महत्ता और राज्य की भूमिका में हुए बदलावों को जिम्मेदार माना जा सकता है। फ्रांस और अमेरिका की क्रांतियों, तीसरी दुनिया में औपनिवेशिक महाद्वीपों से आजादी और खुद तीसरी दुनिया के आंतरिक सामाजिक और सांस्कृतिक तनावों ने समतापूर्ण समाज की माँग को एक राजनीतिक विचार और जीवन प्रणाली के रूप में स्थापित कर दिया है।

आधुनिक समय के भारत में इसकी एक ठोस माँग उन तबकों से आनी शुरू हुई जो अब तक सरकारों की नीतियों, सार्वजनकि स्पेस, अकादमिक विमर्शों और लोकप्रिय कल्पनाओं से बहिष्कृत रहे हैं।  महात्मा गाँधी ने इनके लिए अंतिम जन और डाक्टर भीमराव आंबेडकर ने इनके लिए ‘बहिष्कृत भारत’ पद-बंध इस्तेमाल किया था। गाँधी ने अंतिम जन पद-बंध उन लोगों के लिए प्रयुक्त किया था जो औपनिवेशिक और उसके ठीक बाद के आज़ाद भारत के शासकों की नजर में ओझल थे, कामगार, किसान, मजदूर और अस्पृश्य थे जिनके बारे में वे 1916 से लगातार जोर देते आ रहे थे। डाक्टर आंबेडकर ने ‘बहिष्कृत भारत’ पद-बंध का इस्तेमाल अस्पृश्य जनों के लिए किया था लेकिन आजादी के बाद के भारत में इसका विस्तार बढ़ता गया है। इसमें पुलिस, अर्ध-सैनिक बलों और सेनाओं द्वारा पीड़ित लोग, पुरुष सत्तावाद की शिकार महिलाएँ, बलात्कार और एसिड अटैक से पीड़ित लोग, वैकल्पिक जेंडर के लोग, वनवासी और तटीय प्रदेशों के सुभेद्य समुदाय, घुमंतू और विमुक्त जन आते हैं। आप चाहें तो इस सूची को और आगे बढ़ा सकते हैं। इनमें से कुछ की साझा कहानियाँ हैं और कुछ की विशिष्ट। यह सभी समूह लोकतंत्र की देहरी पर दस्तक दे रहे हैं। यह दस्तक साहित्य और समाज विज्ञान में ‘भी’ सुनी जा रही है। इनमें से कुछ ने अपनी कहानी स्वयं कही है और कुछ की कहानी ‘दूसरे’ लोग सुना रहे हैं। यह जो ‘दूसरे’ लोग हैं, उनकी आवाज़ की प्रमाणिकता पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है।

भारतीय आधुनिकता, स्वधर्म और लोक-संस्कृति के एक राजनीतिक मुहावरे की तलाश

कहने का आशय यही कि कल्पना और भाषा की अपनी भूमिका है, और अनुभवों की अपनी भूमिका। किसी एक पक्ष पर जोर देकर दूसरे या तीसरे पक्ष को उपेक्षित कर देना ठीक बात नहीं होगी। हमें कल्पना, भाषा और अनुभव पर सोचते समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। हाँ, मैं यह जरूर कहूँगा कि कल्पनाशीलता के मिश्रण से एक निष्क्रिय अनुभव एक सक्रिय आवाज़ में तब्दील हो जाता है। इन सक्रिय आवाज़ों से समाज को बेहतर बनाया जा सकता है। आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गाँधी, डॉ. आंबेडकर, भगत सिंह और एच. जे. खांडेकर के जीवन को देखें तो पाएंगे यह चारों नेता गरीब, मजदूर, वेश्याओं, महिला, किसान, अस्पृश्य, आदिवासी और मुस्लिम जनों के बारे में, उनके जीवन को मानवीय और न्यायपूर्ण बनाने के लिए लड़ रहे हैं। आंबेडकर ने महिला आधिकारों पर जो बोला, लिखा और अपने समय के समाज को प्रभावित किया, उसे आप किसी पुरुष की वाणी और अनुभवहीनता कहकर ख़ारिज नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार भगत सिंह ने मजदूरों के बारे में बात की। भगत सिंह फैक्ट्री में काम नहीं करते थे तो क्या इस आधार पर उनके लिखे को ख़ारिज़ कर दिया जाय? भारत की संविधान सभा में घुमंतू समुदायों के बारे में आंबेडकर नहीं बोल रहे थे बल्कि एच. जे. खांडेकर उनके बारे में आवाज़ उठा रहे थे। इससे आंबेडकर का महत्त्व किसी तरह से कम नहीं हो जाता। गाँधी अंतिम जन की बात कर रहे थे और आज उन्हें सबसे ज्यादा अविश्वसनीय बनाने के कुत्सित प्रयास किए जा रहे हैं। इसके लिए गाँधी को बुर्जुवा जातिवादी तक कह दिया जाता है। मैं फिर कहूँगा कि इन चारों नेताओं के कहे और लिखे हुए को पढ़िए। अनुभव एवं भाषा के जिस पक्ष की ओर बिमल कृष्ण मतिलाल इशारा कर रहे थे, वह इनके जीवन और विचार में घट रहा होता है।

वास्तव में राजनीति, समाज विज्ञानों और साहित्य में अनुभव की बात तब तक नहीं उठी थी, जब तक इनकी दुनिया समरूप थी। समाज की नेतृत्वकारी भूमिकाओं और शक्ति-संरचना को नियंत्रित करने वाले दायरों में जब नए समूह जैसे दस्तकार, अछूत, महिलाएँ, छोटे किसान और श्रमिक शामिल हुए तो उन्होंने उस दुनिया पर सवाल उठाए जिसके बारे में कहा जा रहा था, इसे बदला नहीं जा सकता। उन्होंने ईश्वर के द्वारा बनायी गयी दुनिया और उसकी व्याख्या में अपने अनुभवों के वृत्तांतों से धक्का मार दिया। 1970 के दशक से ही दलित, घुमंतू, पिछड़े जन, अल्पसंख्यकों और महिलाओं ने ‘ऑन बिहाफ़ ऑफ़’ पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था। उन्होंने कहना शुरू किया कि कोई किसी की तरफ से कैसे बोल सकता है- जाके पांव न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई? 1980 के बाद कांशीराम के उदय, दलित महिला नेताओं की पहली पीढ़ी के उभार के बाद और प्रिंट संस्कृति के लोकतांत्रीकरण ने हाशियाई तबक़ों के अनुभवों को सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में रखने का प्रयास किया।

यह परिघटना अलग-अलग तरीके से महाराष्ट्र से लेकर केरल तक, गुजरात से गुवाहाटी तक घटी है। अनुभव का सवाल साहित्य और समाज विज्ञान की सैद्धांतिक और रचनात्मक संकल्पना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अपनी मशहूर किताब ‘क्रैक्ड मिरर: एन इंडियन डिबेट एक्सपीरियंस एंड थ्योरी’ में सुंदर सुरक्कई और गोपाल गुरू ने इस सवाल के ऐतिहासिक और सैद्धांतिक पहलुओं पर जोर दिया है। राजनीति विज्ञानी गोपाल गुरू ने ज्ञान के सृजन के लिए अनुभव को जरूरी माना है जबकि दार्शनिक सुंदर सुरक्कई ने ज्ञान को सीखने, समझने और हासिल करने के लिए सिखावनहारी को महत्त्व दिया है।

यहाँ पर पर मैं ‘कल्पना’ के बारे में बात करना चाहता हूँ।  इससे पहले आप एक कन्नड़ लोककथा सुनिए। इसे कन्नड़ और संस्कृत साहित्य के जानकार डी. आर.  नागराज सुनाया करते थे।  कथा कुछ यों है :

चंद्रकीर्ति और रविकीर्ति नाम के दो राजा जानी दुश्मन थे, हालांकि दोनों में से किसी को भी इस दुश्मनी का ठीक-ठीक कारण नहीं पता था, लेकिन वे दुश्मन थे। एक दिन रविकीर्ति ने चंद्रकीर्ति को एक लड़ाई में हरा दिया। इस लड़ाई की कहानी और भी मंत्रमुग्धकारी है। चंद्रकीर्ति की बहन ने रविकीर्ति के मुखड़े को एक चित्र में देखा और उस पर फ़िदा हो गयी और उसने महल का मुख्य दरवाज़ा खोल कर विजेता की मदद कर दी। रविकीर्ति ने हारे हुए राजा को जेल में डाल दिया लेकिन फिर भी वह पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ। उसने चंद्रकीर्ति को अपना जाती गुलाम बना लिया। उसका अंतिम लक्ष्य हारे हुए राजा के आत्म-सम्मान को पूरी तरह से नष्ट कर देना था। इसमें कोई नयी बात नहीं थी। शक्तिशाली समूह, मदांध पुरुष और अनियंत्रित सत्ता संरचनाएं अपने विरोधियों के साथ यही करती हैं। आप इसे व्यक्तिगत और समकालीन राजनीतिक दायरों में देख सकते हैं जहाँ हर उस समूह की आवाज़ को अविश्सनीय बना दिया जाता है जो इनके खिलाफ उठती है। इसके बाद उनका सम्मान नष्ट कर दिया जाता है। सम्मान नष्ट करने के लिए राज्य बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और विभिन्न प्रकार की मीडिया की मदद लेता है।

हाँ, तो इस प्रकार क्या हुआ कि रविकीर्ति मौक़े-बेमौक़े अपने दास का मान मर्दन करने लगा।  चंद्रकीर्ति का कोई मित्र भी नहीं था, सिवाय एक बंदर के जो उसके साथ था। अपमान और यातना को सह सकने में अक्षम होने पर वह पागल हो गया। शायद उसने रविकीर्ति के सामने पड़ने पर पागल होने का स्वांग रचा था।  फिर भी विजयी और दंभी राजा को उस पर विश्वास नहीं था। वह भी आश्चर्य में था कि भला इतनी यातना सहने के बाद भी कोई व्यक्ति जिंदा कैसे रह सकता है? एक रात को वह चुपके से उस जेल में गया जहाँ चंद्रकीर्ति कैद था। वह देखता क्या है कि बंदर रविकीर्ति की नक़ल कर रहा है- जैसा रविकीर्ति अपने दरबार में किया करता था। राजा की हरकतों की नकल बंदर द्वारा उतारे जाते देखकर चंद्रकीर्ति खूब हँस रहा था। राजा को लगा कि अरे यह तो मेरी बेइज़्ज़ती है। उसने बंदर को मार डालने का हुक्म सुना दिया। बंदर की हत्या के कुछ दिन बाद चंद्रकीर्ति फिर प्रसन्न रहने लगा। अब राजा ने एक दिन फिर छुपकर देखा। चंद्रकीर्ति तो अकेले में हँस रहा था। राजा ने उससे पूछा कि अब वह कैसे हँसता है? चंद्रकीर्ति ने जवाब दिया कि अब बंदर उसकी कल्पना में है। वह उसे प्रत्येक रात को अपनी कल्पना में ले आता है।[2]

कन्नड़ और संस्कृत साहित्य के जानकार डी. आर.  नागराज

वास्तव में इस लोककथा के माध्यम से नागराज मनुष्य के जीवन में हास्य की ताकत बता रहे थे। इस कथा को थोड़ा और ध्यान से सुनें तो पाएंगे कि मनुष्यों के सबसे भीषण क्षणों में कल्पना सत्ता के खिलाफ़ न केवल फ़ितनागिरी(सबवर्जन) करती है बल्कि वह हिंसा और अत्याचार से मुक्ति की राह खोलती है। दुनिया के तमाम कमज़ोर समूह अपने कमजोर क्षणों में कल्पना की इस ताकत से जिन्दा रहते हैं और अत्याचारी सामाजिक और राजनीतिक संरचनाओं से तब तक बचे रहने की कोशिश करते हैं जब तक कि उसे बदल देने की हैसियत में न आ जाएँ।

इस प्रकार कल्पना एक रणनीति बन जाती है जिसके द्वारा एक भुरभुरी जमीन पर खड़े होकर बेहतर भविष्य का सपना देखा जा सकता है। इससे बेहतर रचनाएँ संभव होती हैं। प्रतिकूल समयों में यह कल्पना शक्ति मानवता को आगे ले जाती है। आप द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद के समय को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा। इसे दूसरी तरह से देखने की कोशिश करें। ऐसा हो सकता है कि आप हँसोड़ों को गंभीरता से न लेते हों लेकिन यह हंसोड़ ही हैं जो किसी भीषण शासन में अपनी कल्पना शक्ति के बल पर सत्ता के प्रतिपक्ष में हँसता-हँसाता रहता है। ऐसे में हँसना सत्ता की मुखालफत बन जाता है। आखिर इक्कीसवीं शताब्दी में लोग चार्ली चैपलिन के हंसोड़पन को क्यों याद करते हैं? वे इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने अपने अभिनय से यूरोपीय-अमेरिकन पूंजीवाद, श्रमिकों के शोषण और यूरोपीय इतिहास एवं श्रेष्ठताबोध से निकली तानाशाही की खुलकर आलोचना की, वह भी तानाशाही के चरम दौर में। यह चार्ली चैपलिन की कल्पनाशक्ति ही है जो युद्ध और तानाशाही के बीच फंसे मनुष्यों के लिए हँसने की गुंजाइश उपलब्ध कराती है। दो महाद्वीपों में अलग-अलग समयों में नागराज और चैपलिन के उदाहरण दिखाते हैं कि सत्ता को हास्य कैसे उसकी औकात बताता रहता है।

कल्पनाशक्ति इससे आगे जाती है। वह भोक्ता से आगे जाते हुए ‘द्रष्टा’ के जीवन-बोध को भी रचती है। कल्पना द्रष्टा को उसी सामाजिक धरातल पर ले जाती है जहाँ अत्याचार और हिंसा की रचना की जाती है। सवाल इसी संरचना को बदलने का है। चूँकि साहित्य समाज का दर्पण कहा जाता है तो समाज में प्रचलित विभिन्न प्रकार की कल्पनाओं को साहित्‍य साथ में लाता है। चूँकि कल्पना एक सामाजिक और राजनीतिक उत्पाद भी है तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जैसा वातावरण, वैसी ही कल्पना। वैदिक काल के कवि की कल्पना से आधुनिक काल के कवि की कल्पना नितांत भिन्न होगी। इसका एक कारण राजनीतिक वातावरण भी हो सकता है। पिछले सात-आठ वर्षों में हिंदी साहित्य और औपनिवेशिक इतिहास पढ़ते हुए मुझे हमेशा लगता रहा है कि उपनिवेश ने भारतीय साहित्य की कल्पना को बाधित और नियंत्रित किया है।

भारतीय भाषाएँ, अंग्रेजी और औपनिवेशिक सत्ता के सांस्कृतिक वर्चस्व का सवाल

इसे कुछ ऐसे समझ सकते हैं:  हिंदी साहित्य के व्यापक संसार में घुमंतू जन अपना कोई आंगिक साहित्य(आर्गेनिक लिटरेचर) नहीं रच सके हैं जबकि हिंदी भाषी प्रदेशों में उनकी पर्याप्त संख्या है। हिंदी के साहित्यकारों ने उनके बारे में जो कुछ लिखा है, वह एक खास किस्म के औपनिवेशिक ज्ञान का पुनरुत्पादन ही है। औपनिवेशिक भारत में प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘प्रेम का उदय’ में एक कंजर दंपत्ति की कहानी कही है। इस कहानी में पत्नी बंटी अपने पति भोंदू को चोरी करने के लिए यह कहकर उकसाती है कि समुदाय के अन्य सदस्य चोरी तो करते ही हैं, उसे भी करनी चाहिए। यह औपनिवेशिक भावबोध का आभ्यांतरीकरण था, हालाँकि प्रेमचंद ने इस कहानी में हृदय परिवर्तन के अपने कथा शिल्प के द्वारा एक सुखद अंत किया है लेकिन वे उस औपनिवेशिक निर्मिति को हिंदी साहित्य में ला रहे थे जिसे उनके समय के मानवविज्ञान ने लोकप्रिय बनाया था। इसी प्रकार रांगेय राघव ने 1957 में राजस्थान के घुमंतू समुदायों में से एक समुदाय करनट के बारे में ‘कब तक पुकारूँ’ नामक उपन्यास लिखा। यह उपन्यास हिंदी के बहुपठित उपन्यासों में गिना जाता है। रांगेय राघव ने इस उपन्यास को प्रामाणिक तरीके से लिखने का प्रयास किया और उपन्यास की शुरुआत में उन्होंने दो पृष्ठों की एक भूमिका लिखी जिससे पाठक उपन्यास को आसानी से पढ़ सके। इस भूमिका का पहला ही अनुच्छेद इस प्रकार शुरू होता है- “नट कई तरह के होते हैं। इनमें करनट जरायमपेशा कहे जाते हैं। इनकी कोई नैतिकता नहीं होती। इसमें मर्द औरत को वेश्या बनाकर उनके द्वारा धन कमाते हैं। ज्यादातर ये लोग चोरी आदि करते हैं और ढोल मंढ़ना, हिरन की खाल बेचना इनका काम है।”

इस प्रकार की भूमिका की पृष्ठभूमि में पाठक सुखराम के जीवन संघर्ष को पढ़ता-समझता है। वह इस समुदाय की औरतों की देह पर ढाए जा रहे अत्याचार के लिए पहले ही अपने को तैयार कर चुका होता है। उसे पहले से ही पता है कि इस समुदाय के लोगों की कोई नैतिकता नहीं होती। इसमें मर्द औरत को वेश्या बनाकर उनके द्वारा धन कमाते हैं। इस प्रकार की पूर्वधारणाओं ने इन समुदायों पर एक सांस्कृतिक सदमा जरूर पहुँचाया है। हालाँकि रांगेय राघव कहानी ‘गदल‘ घुमंतू समुदाय की एक स्त्री और उसकी बहादुरी को बहुत मार्मिक ढंग से रखती है। इसी प्रकार पूर्वी उत्तर प्रदेश के घुमंतू समुदायों के जीवन पर शिवप्रसाद सिंह ने लिखा है। ‘शैलूष’ में बनारस के निकट के इलाकों में नटों के जीवन और उनकी सामाजिक-आर्थिक जीवनशैली को बृहत्तर दृनिया की राजनीतिक समस्याओं से जोड़ा गया है। मैत्रेयी पुष्पा ने ‘अल्मा कबूतरी’ में बुंदेलखण्ड के कबूतरा समुदाय का जीवन प्रस्तुत किया है।

लोकतंत्र में हिस्सेदारी और आज़ादी के अनुभव: घुमंतू और विमुक्त जन का संदर्भ

इन सभी रचनाओं को पढ़ने के बाद, पिछले छ:-सात वर्षों से पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुन्देलखण्ड में एक गहन फील्डवर्क करने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इन रचनाओं में घुमंतू समुदायों का जीवन प्रमाणिक तरीके से प्रस्तुत नहीं हो पाया है। इसका कारण यह है कि इन रचनाकारों ने कल्पना से कम काम लिया, जीवन को ठीक से नहीं देखा और औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड के शिकार हो गए।

जो बात रांगेय राघव, प्रेमचन्द, शिवप्रसाद सिंह और मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में घूम-फिरकर आती है, वही बात ई.ए. एच. ब्लंट और डी.एन. मजूमदार भी कह रहे थे। ई. ए. एच. ब्लंट नटों को चोर मानते हैं। ब्लंट लिखते हैं कि उनकी औरतें मुख्यतः वेश्या होती हैं। इसी प्रकार मानवविज्ञानी डी. एन. मजूमदार ने अपराधी जनजातियों के बारे में जो लिखा है, उसे प्रेमचंद, रांगेय राघव और शिवप्रसाद सिंह के लेखन में देखा जा सकता है।[3]

मैं कहना केवल यही चाहता हूँ कि यदि समाज विज्ञान पर उपनिवेश की ज्ञानमीमांसा हावी है तो साहित्य ने भी उसे जाने-अनजाने अपना लिया है। कम से कम हिंदी साहित्य में इन परिधीय समुदायों के बारे में जो लिखा गया है, उसके बारे में यह बात सच लगती है। यदि अनुभव और कल्पना की स्वतन्त्रता होती तो ऐसी रचनाएँ न आतीं, और वह कुछ सिरजा जाता जिसमें इन समुदायों का ‘जीवन और प्राण’ होता।


(रमाशंकर सिंह इतिहासकार हैं और उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ेलो रह चुके हैं। यह लेख नया पथ में छप चुका है)


[1] बिमल कृष्ण मतिलाल(2005),इपिस्टमोलॉजी, लॉजिक एंड ग्रामर इन इंडियन फिलोसिफिकल एनालिसिस, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 6-7

[2] डी. आर. नागराज(2012), लिसनिंग टू द लूम, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, पृष्ठ 344-46

[3] इस विषय में विस्तार से देखें : रमाशंकर सिंह(2018), लोकतंत्र का परिसर और घुमंतू समुदाय, पृष्ठ 344-62


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