सांप्रदायिक माहौल में चुनावी हार-जीत का मतलब: संदर्भ पश्चिम बंगाल


2013 में जब लग रहा था कि भाजपा के केंद्र में आने की संभावना है, तब कई लोग यह कहते थे कि ऐसा नहीं होगा क्योंकि तेलुगुदेशम पार्टी जैसे क्षेत्रीय दल उनको समर्थन नहीं देंगे। फिर धीरे-धीरे 2014 आने तक यही लोग कहने लगे कि कांग्रेस ने भाजपा की जीत की ज़मीन तैयार की है। जब भाजपा जीत गई तो उन्होंने कहा कि यह सांप्रदायिकता की जीत नहीं है क्योंकि बड़ी तादाद में लोगों ने विकास के पक्ष में भाजपा को वोट दिए हैं। आज उसी तरह बंगाल में भी भाजपा को समर्थन की वजहें ढूंढी जा रही हैं।

भाजपा खुले आम सीना ठोक कर यह दिखा रही है कि वह तृणमूल कांग्रेस से ज्यादा हिंसक हो सकती है। प्रधानमंत्री खुले आम मंच पर से किसी शोहदे की तरह दिद्दी ओ दिद्दी के ताने मारकर स्त्रियों के साथ छेड़खानी की संस्कृति को बढ़ावा देता है। शीतलकूची में केंद्र के भेजे गए सिपाही सीधे सीने पर निशाना ताक कर चार लोगों का क़त्ल करते हैं तो भाजपा का नेता कहता है कि आठ को गोली मारनी चाहिए थी। यह सब जय श्री राम के नारों के साथ होता है। जब हम भाजपा की बढ़त की सांप्रदायिकता से अलग कोई और वजह ढूंढते हैं, तो इन बातों से नावाकिफ नहीं होते हैं। दरअसल, एक सांप्रदायिक माहौल में हम खुद कब फिरकापरस्ती की चपेट में फंस चुके हैं, यह सोचना न चाहते हुए हम दूसरी वजहें ढूंढते रहते हैं।

भाजपा को अक्सरियत का बढ़ता समर्थन और संघ की रणनीति

संघ के समर्थन से खड़े हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में बहुसंख्य शहरी हिंदुओं की बड़ी भागीदारी रही जो कांग्रेस के पतन का कारण बनी

2014 से पहले तीन दशकों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने क्रमबद्ध तरीके से हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र के प्रति भावनात्मक माहौल तैयार करने का काम किया था। भारत में आज़ादी के तुरंत बाद दो दशकों तक जिस धर्मनिरपेक्ष उदारवाद का वर्चस्व सियासी रंगमंच पर रहा वह दरअसल समाज में जगह नहीं बना पाया था। 1971 में बांग्लादेश का बनना वहां की जनता के लिए आज़ादी थी, पर संघ के लिए मुसलमान मुल्क पाकिस्तान को हिन्दू देश भारत द्वारा पछाड़ा जाना था। बहुसंख्यक हिन्दू इस बात से सहमत थे। इसलिए अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को दुर्गा कह कर संबोधित किया था। 1977 में जनता पार्टी की खिचड़ी सरकार का सबसे ज्यादा फायदा किसी को मिला तो वह संघ को मिला और इसके द्वारा चुनावी राजनीति में प्रभावी हस्तक्षेप के लिए जनसंघ के बड़े हिस्से को भाजपा का नया रूप दिया गया।

1984 में दिल्ली में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों के क़त्लेआम में संघ के कार्यकर्ता शामिल थे। भारत बदल रहा था और इसके साथ ही मुख्यधारा का मुहावरा बदल रहा था। खास तौर से हिन्दी पट्टी में झूठ और नफ़रत का प्रचार तंत्र बढ़ रहा था। लोगों को यह समझाया गया कि हिन्दू गौरव को छल बल कौशल से प्रतिष्ठित करना है। ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’, ‘हिंदुस्तान में रहना है तो हिन्दू होकर रहना होगा’ जैसे नारे हर जगह सुनायी देने लगे। अजीब बात थी कि ऐसे देश में जहां कुल आबादी का 80 फीसद हिन्दू हैं, वहां कहा गया कि हिन्दू खतरे में है। अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों में अयोध्या में राममंदिर बनाने के नाम पर संघ ने मजबूत किलेबंदी कर ली थी। दिसंबर 1992 आया, बाबरी मस्जिद तोड़ी गई। इसी दौरान मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों में ‘आस्था का सवाल’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ जैसी धारणाएं उभरीं। जॉर्ज फर्नांडीज़ जैसे प्रखर समाजवादी संघ के रंग में घुल गए। नब्बे के दशक में आर्थिक नवउदारवाद और अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई और तालीम-सेहत जैसे हर खित्ते में बढ़ते निजीकरण के साथ दो-चार सरकारों की उठापटक के बाद आखिर अटल बिहारी की सरकार आई। पोखरण और कारगिल हुए, नए बने टीवी चैनलों पर नरेंद्र मोदी जैसे संघ और भाजपा के प्रवक्ता आक्रामक होकर ज़हर फैलाने लगे।

बात बोलेगी: जो सीढ़ी ऊपर जाती है, वही सीढ़ी नीचे भी आती है!
सांप्रदायिकता 360 डिग्री: बाबरी से लखनऊ वाया गुजरात

फिर 2002, गोधरा कांड और दंगे हुए। 2004 में भाजपा के कुशासन को पलट कर कांग्रेस और मनमोहन सिंह का दौर आया। भ्रष्टाचार बढ़ता रहा, हर खित्ते में निजीकरण बढ़ता चला। लोगों में आर्थिक असुरक्षा बढ़ रही थी। केंद्र से भाजपा छूटी पर हर कहीं संघ ने घुसपैठ की हुई थी। मानव विकास आँकड़ों में हमेशा ही दस राज्यों और कई केंद्र प्रशासित क्षेत्रों से पीछे रहने वाले राज्य गुजरात पर झूठ का अंबार खड़ा किया गया और ‘गुजरात मॉडल’ का मुहावरा फैलाया गया (मानव विकास में आज गुजरात 21वें स्थान पर है)। झूठ को जबरन सच कहने के साथ ही मोदी की अगुवाई में संघ ने एक धौंस की संस्कृति खड़ी की- हिन्दू खतरे में है और उसे बचाने के लिए छप्पन इंच के सीने वाले नेता की ज़रूरत है। शाखाओं के अलावा दुर्गा वाहिनी, हिन्दू सेना जैसे संगठित स्वयंसेवकों की लड़ाकू वाहिनियां तैयार की गईं। सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को एक बौद्धिक आधार पर खड़ा किया जा रहा था। नए डिजिटल मीडिया युग में आम लोगों को सरकारी नीतियों की खामियों और भ्रष्टाचार के बारे में पहले से कहीं ज्यादा सूचना मिल रही थी। भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन‍, स्त्रियों की सुरक्षा का सवाल, ऐसे कई मुद्दे थे जिनकी वजह से सरकार बदलने का माहौल पनप चुका था। देश भर में और खास तौर पर दिल्ली में इंडिया अगेंस्‍ट करप्‍शन के अन्‍ना आंदोलन में संघ के कार्यकर्ताओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इससे कांग्रेस के विरोध में जनमत बनाने में संघ को सफलता मिलती रही।

संदेह के महान क्षण में
संघ, इंटेलिजेंस और अफसरशाही का खिचड़ी आंदोलन

2002 में गुजरात के दंगों के बाद जगह-जगह दंगे होने लगे। दो लड़कों की लड़ाई को बढ़ा-चढ़ा कर मॉर्फ किए वीडियो बाँट कर मुजफ्फरनगर में दंगे करवाए गए। यह रोचक बात थी कि मोदी, भाजपा और संघ की नफ़रत की राजनीति से पूरा देश वाकिफ था, पर राष्ट्रवाद, विकास आदि मुहावरों का जामा पहना कर लोग उसे अपना रहे थे। कांग्रेस के विरोध में दूसरे सभी दलों के प्रति व्यापक अविश्वास का माहौल फैलाने में संघ कामयाब हो रहा था। 

जर्मनी में नात्सी और भारत में संघ की बढ़त में समानताएं

इतना कुछ होने पर भी कई लोग कहते रहे कि यह सांप्रदायिकता की जीत नहीं है क्योंकि बड़ी तादाद में लोगों ने विकास के पक्ष में भाजपा को वोट दिए हैं।

भारत में तीन दशकों में जो कुछ हो रहा था, पिछली सदी में जर्मनी में ऐसा ही सब कुछ एक दशक में हो गया था। संयोग से गोधरा की घटना और बर्लिन में जर्मनी के संसद वाली इमारत राइख़स्टाख़ में आगज़नी एक ही तारीख 27 फरवरी को हुई थी। राइख़स्टाख़ की आग के लिए कम्युनिस्टों को जिम्मेदार ठहराया गया था और गोधरा के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया गया। जर्मनी में हिटलर की जीत में वसाय के समझौते की मुख़ालफत, भयानक आर्थिक मंदी, जर्मन गौरव और कुंठाएँ आदि कई कारण थे। यूरोपी मुल्कों में लोकतांत्रिक व्यवस्था अभी जड़ जमा ही रही थी और अलग-अलग सियासी खिलाड़ी चुनावी दंगल में अपना फायदा-नुकसान तौलते रहते थे। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद शिखर पर था। चौथे दशक तक खनिज तेल आदि संसाधनों के बड़े व्यापारी हिटलर की सरकार को माली मदद भी दे रहे थे। दशक के अंत में जब तक यहूदी बुद्धिजावी, कलाकार और वैज्ञानिक जर्मनी से भागने को मजबूर हो गए थे तब तक बहुतों को ऐसा नहीं लगा कि हिटलर और नात्सी पार्टी की महत्वाकांक्षाएं बड़े कत्लेआम तक जा सकती हैं। पूँजी और सांप्रदायिकता के गठबंधन से भय का जैसा माहौल जर्मनी में बना था, वैसा ही भारत में भी हुआ।

2013 में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई। ज्ञानपीठ सम्मानित लेखक अनंतमूर्ति जैसे कई लोगों ने कहा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनती है तो उन्हें देश छोड़ना पड़ सकता है, पर सांस्कृतिक विविधता की वजह से कहीं कोई उम्मीद बची हुई दिखती थी। धीरे-धीरे बुद्धिजीवियों में टूटने की प्रक्रिया बढ़ती चली। सबसे पहले पूरी तरह ध्वस्त होने वाले मीडिया घराने थे। तरक्कीपसंद लोगों को राष्ट्रद्रोही कहकर उनका मजाक उड़ाने से शुरू कर वामपंथियों और समाजवादियों को पूरी तरह नकारने का माहौल बनाने में मीडिया ने आक्रामक पहल दिखाई। मुख्यधारा का तेज़ी से घोर सांप्रदायिकीकरण हो रहा था और यह समझते हुए भी जैसे न समझने का नाटक चल रहा था। जर्मनी में नात्सी सत्ता में आए, दूसरा विश्व-युद्ध हुआ और वे खत्म हो गए- यह सब डेढ़ दशकों में हुआ। हमारे यहां लोकतांत्रिक संस्थाएं सौ साल पहले के जर्मनी की तुलना में काफी मजबूत रही हैं और साथ ही भारत में विविधता जर्मनी से कहीं ज्यादा है, इसलिए सत्ता हड़पने में संघ को वक्त लगा है। बुद्धिजीवियों की हत्याएं या अल्पसंख्यकों का कत्लेआम भी धीरे-धीरे हो रहा है। दाभोलकर के बाद गोविंद पानसारे, एमएम कुलबर्गी और गौरी लंकेश जैसों की हत्याएं और भीमा कोरेगाँव की हिंसा से जुड़े झूठे मुकदमों में दर्जन से ज्यादा बुद्धिजीवियों को क़ैद करना, युवा और छात्र नेताओं को क़ैद करना, यह सब धीरे-धीरे होता चला।

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निरंकुशता के स्रोत, प्रतिरोध के संसाधन

गौर करने की बात यह है कि मीडिया और भाजपा की आइटी सेल के जरिये मुख्यधारा के विमर्श को बदलने में संघ कामयाब होता रहा और बड़ी तादाद में लोगों ने झूठ जानते हुए भी उनकी बातों को सच कहना शुरू कर दिया। जर्मनी में गैर-यहूदी जनता के व्यापक समर्थन के पीछे नात्सी प्रशासन की कुशलता भी थी। जर्मन टेक्नोलॉजी उन दिनों दुनिया में सबसे बेहतरीन थी। सामाजिक-आर्थिक स्थिति में तेजी से बेहतरी आई थी। प्रशासन में काबिल पेशेवर लोग थे। संघ की सरकार में काबिल लोग कम और जाहिलों की भरमार है। इसलिए झूठ और मक्कारी का सहारा लेने को ये मजबूर हैं। आज हम फासिस्ट मुसोलिनी के इटली और नात्सी जर्मनी के बारे में पढ़ते हैं या फिल्में देखते हैं और सोचते हैं कि क्या लोगों को यह पता नहीं था कि उनके साथ क्या हो रहा है? पता था, पर उस वक्त उनके ज़हन में राष्ट्रवाद की धुंध छायी हुई थी।

ऐसा ही आज भारत में मुख्यधारा के उन लोगों के साथ हो रहा है जो सब कुछ जानते-देखते हुए भी भाजपा के पक्ष में तर्क गढ़ते हैं। 2014 में वे विकास का मुहावरा गढ़ रहे थे, तो आज बंगाल के चुनावों में वे तृणमूल कांग्रेस की हिंसा के जवाब का मुहावरा गढ़ रहे हैं। 2014 में विकल्प और भी थे, पर जिस सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की धौंस का सपना लोगों के ज़हन में डाला गया था, बाक़ी सारे दल उसके खिलाफ थे। यही भाजपा की जीत की मुख्य वजह थी। यह बात वे सब अच्छी तरह जानते थे, जो लोग तब भाजपा की जीत की दूसरी वजहें ढूंढ रहे थे। दूसरी वजहें ढूंढना औरों को धोखा देना तो है ही, यह खुद को भी धोखा देना है।

बंगाल का चुनाव, भाजपा को बढ़त और सांप्रदायिक सोच

सांप्रदायिकता हमेशा हिंसक रूप में ही सामने दिखे, ऐसा नहीं है। सांप्रदायिकता भले लोगों की भली बातों में भी होती है। हिंसा के खिलाफ कहते हुए, साथ ही यह कहना कि संघी जीत गए तो नफ़रत की विचारधारा की जीत नहीं होगी, यह महज सरलीकरण नहीं है। किसी भी चुनाव में बीस-बीस प्रार्थी होते हैं। उनमें से सांप्रदायिक ताकत को चुनना सिर्फ इसलिए कि वजह यह है या वह है, यह तो बचकानी सी बात हुई। मान लीजिए सारे सांसद निर्दलीय चुने जाएं तो क्या देश में कोई बड़ा संकट आ जाएगा? कतई नहीं! निर्दलीय सांसद आपस में मिलकर गठबंधन बनाएंगे और सरकार चलाएंगे। दरअसल, हम चाहें या न चाहें, सरकार तो प्रशासनिक ढांचा चलाता है, अफसरशाही चलाती है, सियासी पार्टियाँ उनको नियंत्रण में रखती हैं। भले अफसर मंत्रियों के भ्रष्टाचार में फँसने से कैसे बचें, इसी कोशिश में ज़िंदगी बिता देते हैं।

यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है!

कहने का मतलब यह नहीं कि सियासी पार्टियों को वोट न दिए जाएं। यहां बात मिसाल के लिए रखी गई है कि किसी एक पार्टी के खिलाफ होने से यह ज़रूरी नहीं होता कि बदतर पार्टी को वोट दे दें। जब सांप्रदायिक और नफ़रत की राजनीति के पक्ष में हम वोट देते हैं तो दरअसल हम उन्हें चुन रहे होते हैं। ऐसा करते हुए हम अपनी सांप्रदायिक सोच के मुताबिक काम कर रहे होते हैं। इसलिए सांप्रदायिकता के विरोध में खड़े हर किसी को इस खतरे को पहचानना होगा। बंगाल में ‘नो वोट टू बीजेपी’ का आंदोलन इसी खतरे की पहचान करते हुए खड़ा हुआ है। इस आंदोलन से अब तक कई फिल्में, नियमित रेडियो प्रोग्राम, कई जिलों में जुलूस और रैलियों के जरिये प्रचार और लाखों पोस्टर आ चुके हैं।  

वजहें कुछ भी हों, सवाल यह है कि हुआ क्या

रिकार्डो पोलाक ने बीबीसी के लिए 2007 में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई थी ‘द डे इंडिया बर्न्ड’। भारत और पाकिस्तान की आज़ादी के साठ साल बाद बँटवारे पर बनी इस फिल्म में बँटवारे पर दुबारा नज़र डाली गई। 1946-47 की घटनाओं और उस दौर की शख्सियतों पर कई फिल्में बनी हैं। आम तौर पर भारत में लोग यही मानते हैं कि जिन्‍ना की अगुवाई में मुस्लिम लीग ने अड़ियल रुख अपनाया और 1946 के दंगों के बाद कांग्रेस भी मजबूर हो गई। गाँधी की कोशिशें नाकाम रहीं और मुल्क बँट गया। रिकार्डो पोलाक की फिल्म में बँटवारे की सियासी वजहों से अलग सामाजिक कारण ढूंढने की कोशिश की गई है।

फिल्म में कुछ बुज़ुर्गों के साक्षात्कार हैं, जो 1947 में छोटे बच्चे थे। इनमें से एक सोम आनंद हैं, जिनके पिता लाहौर में बैंक मैनेजर थे और आखिरी दिनों में वे दिल्ली चले आए थे। अपने बचपन के हवाले से वे बतलाते हैं कि बँटवारे की मुख्य वजह यह थी कि हिन्दू ऊँची जाति के परिवारों में संपन्न मुसलमानों के साथ भी छुआछूत का व्यवहार किया जाता था। इसी तरह कभी पहलवान रह चुके एक आम मुसलमान का कहना था कि हालाँकि अखाड़े में कुश्ती करते हुए सबका पसीना गड्डमड्ड हो जाता था पर हिन्दू लोग उनको पानी की टोंटी से सीधे पानी नहीं पीने देते थे और एक अलग पाइप लगाकर उसमें से आते पानी को ही दोनों हाथों पर डाल कर पीने देते थे। फिल्म में जो बात नहीं दिखती है वह यह कि पूरब में यानी बंगाल में यह छुआछूत पंजाब की तुलना में कहीं ज्यादा था और आज भी है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि बँटवारे को सांप्रदायिक ताकतों की जीत नहीं कहना चाहिए, बल्कि इसे मुसलमानों में असुरक्षा की भावना और हिन्दुओं की बढ़ती ताकत के प्रति प्रतिक्रिया का नतीजा मात्र समझना चाहिए। तथ्य होते हुए भी ऐसा निष्कर्ष ऐतिहासिक रूप से अधूरा है।

जर्मनी में नाज़ी शासन और आइंस्टीन: कुज़नेत्सोव की पुस्तक से एक प्रसंग

आज़ादी और बँटवारे के बाद दक्षिण एशिया में सांप्रदायिक ताकतें लगातार और अधिक मजबूत हुई हैं। सरहद के दोनों ओर इनकी बढ़त को बँटवारे से फायदा मिला है। असुरक्षा और ब्राह्मणवाद से जूझने के लिए बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को समर्थन दिया पर इसके विकल्प भी मौजूद थे। मौलाना आज़ाद और करोड़ों मुसलमानों ने कांग्रेस को चुना, मुजफ्फर अहमद जैसे लाखों लोगों ने कम्युनिस्ट पार्टी को चुना। पाकिस्तान बना तो जिन्ना ने इसे मुसलमानों के लिए महफूज़ मुल्क कह कर भी धर्मनिरपेक्षता पर जोर दिया। पर आज कौन नहीं जानता कि क्या हुआ। पाकिस्तान तो इस्लामी कट्टरपंथ की दबोच में आया ही, भारत में भी फिरकापरस्ती बढ़ती चली। यानी कि कई विकल्पों में से जब हम सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और उसकी लड़ाकू नफ़रत की राजनीति को चुनते हैं तो वजह हम कुछ भी बतलाएं हम दरअसल सांप्रदायिकता को ही चुन रहे होते हैं, हम खुद सांप्रदायिक हो चुके होते हैं, हम अपने संप्रदाय की जीत के लिए ही लड़ रहे होते हैं।

अस्सी साल पहले हिटलर जिन भी कारणों से सत्तासीन हुआ हो, आज हम किसी जर्मन से पूछें कि जब हिटलर ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर सत्ता पर कब्जा कर लिया तो जीत किसकी हुई, तो विरला ही कोई होगा जो यह न कहेगा कि जीत उस विचारधारा की हुई थी जो यहूदी नस्ल को जर्मनी की सभी समस्याओं की जड़ और आर्य श्रेष्ठता को बेहतर सोच मानती है। इस समझ तक आने के लिए एक विश्व युद्ध होना पड़ा, करोड़ों लोगों की मौत हुई। अरबों परिवार हमेशा के लिए उखड़ गए और इस्रायल जैसा एक और फासीवादी मुल्क बन गया, जो फिलस्तीनी मुसलमानों का उसी तरह सफाया करना चाहता है जैसा हिटलर ने यहूदियों के साथ किया था।

भाजपा के पक्ष में कुतर्क

भाजपा को जिताने के पक्ष में सांप्रदायिक ज़हन से कई कुतर्क निकलते हैं, जैसे भाजपा को केंद्र और राज्यों में बहुमत हासिल हो जाने से सत्ता में रहने को लेकर संघ परिवार को कोई असुरक्षा न होगी, डबल इंजिन की सरकार होगी, इसलिए सांप्रदायिक दंगों जैसे जो तरीके अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए संघ परिवार अपनाता रहा है उनमें कमी आएगी। छह साल पहले मैंने लिखा था कि अगर किसी को ऐसा लगता है तो वे भयंकर भ्रम में हैं। सचमुच वे भ्रम में नहीं हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह बकवास है। उस लेख से कुछ बातें दुहराना ठीक होगा।

पश्चिम बंगाल में (कई इलाकों में) लंबे समय से गुंडा संस्कृति का वर्चस्व है। साठ के दशक में वामपंथियों का सरकार में आना आसान नहीं था। जैसे सौ साल पहले लोग मानते थे कि ब्रिटिश शेर को भारत से निकालना आसान नहीं है, वैसे ही आज़ादी के दो दशक बाद तक अन्य राज्यों की तरह बंगाल में भी लोग मानते थे कि कांग्रेस को हराना आसान नहीं है। वामपंथियों के सत्तासीन होने की प्रक्रिया में व्यापक हिंसा हुई। सरकारी दमन के खिलाफ संगठित जनांदोलन करते हुए जनता के प्रतिनिधि सरकार में आ तो गए, पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए लगातार पार्टी को संघर्ष करना पड़ा। नतीजतन, तक़रीबन उसी तरह का छल बल कौशल जो संघ परिवार में दिखता है, वाम ने भी अपनाया। एक मायने में संघ से वे पीछे थे। संघ के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के वैचारिक प्रहार में कमी नहीं आई, बस नवउदारवादी विकास का मुहावरा साथ जुड़ गया। पर संसदीय वाम का वैचारिक पक्ष कमजोर होता रहा, यहां तक कि सदी के अंत तक कहना मुश्किल होता जा रहा था कि वैचारिक स्तर पर कांग्रेस और सीपीएम में फर्क कितना रह गया है। आम लोग, खास तौर से नई पीढ़ियां भय और पार्टी के स्तर के भ्रष्टाचार (जो कांग्रेस के व्यक्ति-स्तर के भ्रष्टाचार से अलग है) के व्यापक माहौल से तंग आ चुके थे। अंततः नंदीग्राम और सिंगूर कांड के बाद जन-आक्रोश विस्फोट बन कर फैला (आज यह दावा फिर से सामने आ रहा है कि इसमें वाम-विरोधी षड़यंत्र था) और चौंतीस साल के बाद वाम दल राज्य की सत्ता खो बैठे। तृणमूल कांग्रेस जनादेश से सत्ता में आई। बुद्धिजीवियों के बड़े तबके ने उनके समर्थन में खुल कर लड़ाई लड़ी, पर सत्ता में आते ही नए दल ने हिंसक तरीकों से अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया। कुछ वर्षों में ही स्थिति हद से ज्यादा बिगड़ गई। वाम के शासन में पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त सुरक्षा थी और बंगाल में बड़े सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए, पर वाम अपने वैचारिक आधार को मजबूत न बना सका और हिंदुओं के एक हिस्से में हमेशा से बसी सांप्रदायिक भावना बढ़ती गई कि वाम का मुसलमानों के प्रति तुष्टीकरण का रवैया है। तृणमूल कांग्रेस का कोई खास वैचारिक पक्ष है ही नहीं इसलिए सत्ता की राजनीति पर ध्यान रखते हुए उन्होंने मुसलमानों के लिए और भी नरम रुख दिखलाया जिसकी प्रतिक्रिया में भाजपा का जनाधार बढ़ा। अब संघ को लहू की बू मिल गई है। सीपीएम के कार्यकर्त्ताओं में ताकत नहीं है कि वे तृणमूल कांग्रेस के गुंडों से लड़ सकें पर लोगों में आक्रोश है और इसका भरपूर फायदा संघ उठाएगा। संघ का तरीका आसान है। पहले कोई छोटी घटना को अंजाम दो, जैसे कहीं कोई हिंदू मुसलमान लड़के-लड़की के मामले को तूल दो, फिर अफवाहें फैलाओ, फिर दंगा करवा दो। इस सबमें सांप्रदायिक भावनाएं बढ़ती ही रहेंगी और संघ का जनाधार बढ़ता रहेगा। आदिवासी इलाकों में उन्होंने एकल विद्यालय जैसे तंत्र खोल ही रखे हैं जहां संकीर्ण सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का ज़हर बचपन से भरा जाता है।

समयांतर, 2016

तुष्टीकरण

‘तुष्टीकरण’ का मुहावरा सांप्रदायिक सोच का हिस्सा है। यह हर कोई जानता है कि देश भर में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बहुसंख्यकों से कहीं ज्यादा बदतर है। यह बंगाल के लिए भी सच है। तो ‘तुष्टीकरण’ का मतलब क्या है?

किसी भी समाज की ‘सभ्यता’ का एक पैमाना यह होता है कि वहां अल्पसंख्यकों के हालात कितने बेहतर हैं। हमारे यहां अक्लियत की हालत बहुत खराब है। इसलिए पहले तो हम यह समझें कि हम बुनियादी तौर पर सभ्य नहीं कहला सकते। तुष्टीकरण का एक अर्थ तृणमूल कांग्रेस का ‘मुस्लिम हिंसा’ पर आँख मूँदना निकाला जाता है। सच यह है कि गुंडे सभी संप्रदायों में से आते हैं। हर पार्टी अपने गुंडों की हिंसा के प्रति आँख मूँद लेती है। सांप्रदायिक माहौल में उलझ कर हम गुंडों की पहचान हिन्दू मुसलमान में करने लगते हैं और तथ्यों को पूर्वाग्रह के साथ चुन कर देखते हैं। ब्रिटिश सरकार ने कई समुदायों को क्रिमिनल ट्राइब्स कहा था, बेशक उनमें से कई लोग अपराधों में शामिल होंगे पर हम उन समुदायों को ऐसा नहीं कहते। क्यों? क्योंकि हम शासकों के पक्ष में किए गए सरलीकरण को ताड़ लेते हैं और अपनी राजनीति को सामने रखते हैं। अमेरिका में मौत की सजा पाने वालों की बहुतायत कुल आबादी में 15 फीसदी वाले काले लोगों में से होती है। उनमें से कई सचमुच अपराधी होते हैं पर हम उनमें से अधिकतर जो निरपराध हैं उनको देख लेते हैं क्योंकि हमारी संवेदना और समझ अपने पूर्वाग्रहों से हमें मुक्त करती है। अपराध की वजहें सामाजिक-आर्थिक बदहाली में होती हैं, सांप्रदायिक सोच से पूर्वाग्रहग्रस्त लोग उन्हें मुस्लिम या हिन्दू में देखते हैं। पार्टी ने ‘मुस्लिम हिंसा’ पर नहीं, अपने गुंडों की हिंसा पर आँख मूँदी। इनमें से ज्यादातर हिन्दू हैं और कुछ मुस्लिम हैं। सांप्रदायिक सोच हमें हिन्दू या मुस्लिम को पहचानने की ओर ले जाती है, दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को हम महज गुंडा कह देते हैं।

बंगाल में राजनीतिक हिंसा की ऐतिहासिक जड़ें और भाजपा का उभार
गाहे-बगाहे: है किस क़दर हलाक-ए फ़रेब-ए वफ़ा-ए गुल!
काफ़िरोफोबिया: इस्लामोफ़ोबिया के आरोप के खिलाफ़ RSS की राजनीति का नया औज़ार

बीसवीं सदी की शुरूआत में बंगाल का दो-तिहाई मुसलमान था और उनमें से ज्यादातर ग़रीब और लाचार था। जाहिर है ज़मींदारों के तमाम लठैत और दूसरे गुंडों में इन ग़रीबों से ही ज्यादा लोग आते थे। इसलिए बंगाली हिन्दू मानस में पहले से ही पूर्वाग्रह भरे हुए हैं, जो मुल्क के बँटवारे और बाद में हुए छिटपुट दंगों की वजह से बचे रह गए हैं। वाम शासन के दौरान इसमें कुछ कमी आई थी। जब सरकार मुसलमानों के लिए कुछ रियायतें देती है तो हिन्दू इसे तुष्टीकरण कहते हैं जबकि ये सामान्य रियायतें होती हैं। तृणमूल की सरकार ने इमामों के लिए माहवार आर्थिक मदद की घोषणा की तो इसे तुष्टीकरण माना गया और तुरंत हिन्दू पुरोहितों के लिए भी ऐसी ही मदद की घोषणा हो गई, पर कोई इसे हिन्दू तुष्टीकरण नहीं कहता। यह मान लिया गया है कि अक्सरियत के लिए उठाया गया कोई कदम तुष्टीकरण नहीं होता, वह महज आस्था का सम्मान होता है। हिंदुत्व की विचारधारा ने इसी ग़फ़लत की ज़मीन पर लंबी छलाँगें मारी हैं।

“बाबरी के बाद प्रगतिशील लोगों ने कश्मीर को मुस्लिम बहुसंख्यक का मुद्दा समझ कर गलती कर दी”!
अयोध्‍या का गांधी, जिसने 1949 में ही कांग्रेस को हिटलरवाद से आगाह कर दिया था!
गाहे-बगाहे: सूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत…

भाजपा के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता रहा है कि भारत में सांप्रदायिक सोच कभी हावी नहीं हो पाएगी। मध्यवर्ग के उदार लोग अक्सर यह बात कहते हैं। चूँकि अकसरीयत हिन्दू हैं, उन्हें लगता है कि हिन्दू धर्म उदार है और मुसलमानों को दबाकर भले रखें, उनके खिलाफ हिंसा नहीं होगी। असल में हिंसा और पिछड़ेपन का संबंध हमेशा ही सामाजिक-आर्थिक बदहाली से होता है। उन्नीसवीं सदी के नवजागरण की दुहाई देकर यह सोचना कि बंगाल में भाजपा जीत जाए तो हिंदुत्व के एजेंडा पर काम नहीं कर पाएगी, ये बातें बेमानी हैं। उन्नीसवीं सदी में बंकिमचंद्र भी हुए, जिनका ‘आनंदमठ’ बंगाल के सांप्रदायिक विभाजन का वैचारिक आधार बना। भाजपा जीत जाए तो राजा राममोहन राय जैसे सुधारकों की परंपरा से बच नहीं पाएगी, ऐसा सोचना खुद को छलना है। केंद्र में भाजपा है तो संविधान दिवस पर गूगल करें तो आंबेडकर के सामने नतमस्तक नरेंद्र मोदी दिखता है। गाँधी की हत्या करने वाले गाँधी की महानता बखानते हैं, पर यह हैं कौन? कौन सी विचारधारा है! राममोहन राय से न बच सकने वाले भाजपा की विचारधारा क्या होगी? उसका आगे का एजेंडा क्या होगा?

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जर्मनी में ‘नात्सी’ यानी राष्ट्रवादी समाजवाद एक खास तरह की विचारधारा थी, जिसके मुताबिक जर्मनी की हर समस्या यहूदियों की वजह से थी और उनका और अनार्य लोगों का नरसंहार ही हर समस्या का समाधान था। नात्सी विचारधारा में सुधार नहीं हो सकता क्योंकि हिंसा और नफ़रत ही उनका अस्तित्व है। इसलिए वे बहुसंख्यकों के ज़हन में नफ़रत भर कर हर तरह के प्रतिरोध को खत्म करते हैं। नफ़रत और हिंसा को वहां सही मान लिया जाता है। भले लोग, हँसते-खेलते लोग, मानो अंजाने ही इस नफ़रत से भरे होते हैं। बेशक भाजपा विरोधियों में सांप्रदायिकता शून्य नहीं है, होती तो भाजपा को ज़मीन न मिली होती पर जहां हिंसा व्यक्तियों के निहित स्वार्थों की वजह से है उसका प्रतिरोध हो सकता है क्योंकि आम लोगों में मानवता बची होती है जबकि ‘नात्सी’ या हिंदुत्व के प्रभाव क्षेत्र में यह मुमकिन नहीं रहता। हम भारत में हैं इसलिए पाकिस्तान (और अब बांग्लादेश में भी) में कट्टरपंथ पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, पर जो बातें हमारे यहां संघ और भाजपा पर लागू होती हैं यही उन मुल्कों में मुस्लिम कट्टरपंथियों पर लागू होती हैं। 

जनपक्षधर ताकतों में बिखराव और आगे की सोच

पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में अतीत में रह चुके चुनावी गठबंधन जैसी एकजुटता ज़रूरी है

भारतीय लोकतंत्र में जनपक्षधर ताकतें बिखरी हुई हैं। जो विकल्प आम लोगों को दिखते हैं, उनमें से कोई भी जनता की सर्वांगीण भलाई के लिए प्रतिबद्ध नहीं है। चुनावों में कमतर शैतान को चुनना ही विकल्प सा बन कर सामने आता है। यह सही है कि दमन-तंत्र में पिसते हुए लोग अक्सर बौखलाहट में ग़लत विकल्प चुन लेते हैं। जिसका दमन होता है उसके लिए दमन करने वाला ‘नात्सी’ ही है, सही है पर दमनकारी शासन-तंत्र को हटाते हुए नफ़रत और हिंसा को अपनी विचारधारा बना लेना भयंकर भूल है। अपनी मानवता को बचाए रखना है और प्रतिरोध के नए विकल्प ढूँढना है।

हिटलर का अंत विश्वयुद्ध से हुआ था। हमें वैसी तबाही नहीं चाहिए। आज उत्तर भारत में किसानों ने पूँजीवाद और फासीवाद के गठबंधन को सबके सामने उजागर कर दिया है। महामारी के दौरान जाहिल नेतृत्व की सच्चाई खुलने लगी है। फिरकापरस्ती के साये में जो लोग फरवरी 2002 के गुजरात के दंगे भूल गए, नोटबंदी के बाद लाइनों में खड़े 200 लोगों की मौत भूल गए, तालीम, सेहत जैसे तमाम खित्तों के निजीकरण और भगवाकरण से जिनको फ़र्क नहीं पड़ा, पिछले साल लॉकडाउन में अनगिनत जानें चली जाना जिनकी जानकारी में जगह न बना पाई, अगर आज महामारी की चपेट में ही वे कुछ सीख सकें और संघियों के असली स्वरूप को समझ लें और साथ ही लोकतांत्रिक और जनपक्षधर ताकतें एकजुट होकर चुनावी तंत्र में हस्तक्षेप कर सकें तो मुमकिन है कि आगे हालात बेहतर हों। 

आज की ऐतिहासिक परिस्थिति ऐसी है कि आगे जहां तक नज़र जाती है, भारत में रूसी या चीनी इंकलाब जैसा कुछ नहीं होने वाला है। सिर्फ चुनावों के जरिये फासिस्ट और हिंदुत्व वर्चस्व को पलटना ही एकमात्र संभावना है। फिर भी अपनी रेटोरिक में हम ऐसी बात करते रहते हैं कि सर्वहारा वर्गों के इंकलाब के लिए काम करना ही हमारा मक़सद है और इसके अलावा कुछ और नहीं होगा। वैचारिक मतभेदों को दरकिनार करना ज़रूरी नहीं है, पर साथ ही जैसे केरल में चल रहे और पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में अतीत में रह चुके चुनावी गठबंधन जैसी एकजुटता ज़रूरी है। बेशक इन तीन राज्यों में वाम सरकारों के शासन पर गंभीर सवाल रहे हैं और अपने ही बीच में से विरोध और सही राह पर ले चलने की मजबूत कोशिशें चलती रहनी चाहिए। पर शासन की बागडोर पाने के बाद उसे खोने से हमें बचना होगा। फासिस्टों की सांगठनिक कामयाबी का बहुत कुछ वाम ताकतों से सीखी बातों और उनको लागू करने पर ही हुआ है। साथ में पैसा, और ज़ुल्म और ब्लैकमेल के लिए राज्य की ताकतों का इस्तेमाल रहा है। वाम को इससे सीखना चाहिए और सत्ता मिलने पर बेहतर, जनपक्षधर और सुरक्षित शासन के लिए सावधानी के साथ काम करना चाहिए।

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फिलहाल वाम के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि चुनावी गठबंधन कैसे बने। वाम कोई छोटी ताकत नहीं रह गया है। अगर सभी इकट्ठे हो जाएं तो आज भी फासिस्टों को मजबूत चुनौती देने वाली वो ही एकमात्र ताकत हैं और इसी समझ के साथ ही फासिस्ट हमेशा वाम पर ही हमला बोलते रहे हैं। हमारी खुशकिस्मती यह है कि सामंती सरमाएदार राज्यसत्ता के सहयोग से कुलकों और उद्योगपतियों के जालिम तंत्र को वाम ने ईमानदारी के साथ हमेशा जैसी टक्कर दी है, तेजी से बढ़े फासिस्ट वर्चस्व के बावजूद उस संघर्ष की याद आज तक आम लोगों के ज़हन से मिटी नहीं है। हम कहते रहते हैं कि हमारे मतभेद हमेशा वैचारिक हैं पर ज़मीनी सच्चाई यह है कि ज्यादातर नहीं तो अक्सर इनकी वजह अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखने और कभी-कभार तो महज अहं की लड़ाई या संबंधों में तुच्छ मनमुटाव होते हैं। चुनावी जंग की हक़ीक़त के मद्देनज़र वाम को इन मुद्दों को सुलझाने की तरकीबें सीखनी होंगी। इसके लिए युवाओं को सामने आना होगा और बड़ों की वैचारिक जड़ता से निकलकर आगे की राह बनानी होगी।

वाम ने अब तक संजीदगी के साथ आंबेडकरवादी और दूसरी तरक्कीपसंद ताकतों के साथ एकजुट होने पर काम नहीं किया है। विडंबना यह है कि तरह-तरह के सरमाएदारों के साथ मिलकर काम करने को दूसरे वाम या आंबेडकरवादी ताकतों की तुलना में ज्यादा प्राथमिकता दी गई है। इससे कोई खास कामयाबी हासिल हुई है या नहीं, खासकर केरल और पश्चिम बंगाल के विरोधाभासों के मद्देनज़र इस पर विवाद जारी है। बेशक आम लोगों ने इसे अच्छी तरह स्वीकार नहीं किया है। सारांश यह कि आज आह्वान यह होना चाहिए कि अपनी ताकत पहचानें (यह कहना छोड़ दें कि हम मामूली ताकत हैं), चुनावों में जीत हासिल करने के लिए आपस में इकट्ठे हों (वैचारिक मतभेद को बनाए रख कर), सभी तरक्कीपसंद ताकतों के साथ एकजुट हों।

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यूरोप में फासीवाद के दौरान आज जैसे समाचार के साधन नहीं थे। आज उनके और हमारे दोनों तरह के विचार कोने-कोने तक पहुँच सकते हैं। नफ़रत एक हद तक पहुँच रखती है पर समझ दूर तक जाती है। हमें लगे रहना होगा। मंज़िल तक जा पाना आसान नहीं है पर जीत हमारी होगी। एक सदी पहले से हमने यह सीखा है कि वैचारिक मतभेद अपनी जगह पर हैं, पर हमें एकजुट होना होगा और बहुलता और विविधता में यकीन रखना होगा। फासिस्टों ने यह बात लोगों के ज़ेहन में डाल दी है कि विकल्प दो हैं- शैतान की बदी या बदतर। हमें इस भ्रम को तोड़ना होगा। विकल्प हम हैं। नेकी के सात रंगों में इकट्ठे हम। हमें खुद इस बात में यकीन करना होगा और लोगों को यकीन करवाना होगा। फासिस्टों को एक भी वोट नहीं।


जन आंदोलनों से करीबी ताल्‍लुक रखने वाले लाल्‍टू हरजिन्दर सिंह कवि, कथाकार, विचारक, अनुवादक और विज्ञान शिक्षक हैं


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