अयोध्‍या का गांधी, जिसने 1949 में ही कांग्रेस को हिटलरवाद से आगाह कर दिया था!


जो व्यक्ति केके नायर को सबसे सही तरीके से समझते थे वे थे अक्षय ब्रह्मचारी। यह वे ही थे जिन्होंने हिंदू महासभा की अयोध्या रणनीति के पीछे के भयावह इरादों को समय रहते समझ लिया था। ब्रह्मचारी सच्चे गांधीवादी थे। वे एक दयाशील और समझौता-विहीन धर्मनिरपेक्ष, उच्च आदर्शों वाले राजनीतिज्ञ थे जो अहिंसा में विश्वास करते थे। वे ऊंचे कद के भारी और मजबूत शरीर वाले व्यक्तित्व थे। उनका पहनावा बिना दिखावे का लेकिन आकर्षक था, मोटे कपड़े के कुर्त्ते और लुंगी में वे रहते थे। उनका सिर मुंडा रहता था, बिना दाढ़ी-मूछों वाला चेहरा, ललाट पर चंदन का त्रिपुंड। उनकी आवाज महीन थी किंतु आंखों में तेजी और गहराई।

1949 में वे 33 वर्ष की उम्र में फैजाबाद जिला कांग्रेस कमिटि के सचिव और यूपी प्रादेशिक कांग्रेस कमिटि के सदस्य थे। जिस प्रकार हिंदू संप्रदायवादी बाबरी मस्जिद पर कदम-ब-कदम कब्जा कर रहे थे उससे वे बहुत ही दुखी थे। नवम्बर 1949 के मध्य में जब मुसलमानों की कब्रें उखाड़ी जा रही थीं और मस्जिद के बाहर की कब्रगाह अपवित्र की जा रही थी तो अक्षय ब्रह्मचारी वह जगह देखने स्वयं गए। उन्होंने यह प्रश्न जिला कलेक्टर केके नायर के सामने उठाया, इस बात से बेखबर कि यह सारा कांड उन्हीं नायर की सांठ-गांठ से हो रहा है। लेकिन सच्चाई समझने में उन्हें देर नहीं लगी क्योंकि नायर से मिलने के कुछ ही घंटों के अंदर संप्रदायवादियों का एक हुजूम ब्रह्मचारी के घर में घुस आया और उन पर बुरी तरह हमला कर दिया। आश्चर्य तो उन्हें तब हुआ जब इन उपद्रवियों ने वही सारी बातें दोहराई जो कुछ घंटों पहले उन्होंने नायर से कही थीं। यह कांड 15 नवंबर 19497 को हुआ, मस्जिद में चोरी से मूर्ति रखे जाने के महीने भर पहले।

अक्षय ब्रह्मचारी महासभाइयों और ‘विरक्त’ पत्रिका द्वारा चलाए जा रहे साम्प्रदायिक अभियान का निरंतर विरोध करते रहे, मस्जिद में मूर्ति रखे जाने से पहले भी। उन्होंने बाबा राघव दास समेत कांग्रेस के नेताओं को भी नहीं छोड़ा जो इस सांप्रदायिक वातावरण के निर्माण में सक्रिय भाग ले रहे थे। यह वातावरण इतना जहरीला हो चुका था कि अयोध्या के मुसलमानों के लिए खुलकर बाबरी मस्जिद पर अपने दावो के लिए लड़ना या आवाज उठाना असंभव हो गया था।

अभिराम दास के नेतृत्व में कुछ तत्वों द्वारा मस्जिद पर कब्जा कर लेने के बाद यह ब्रह्मचारी ही थे जिन्होंने नायर को मूर्ति हटाने संबंधी उनकी जिम्मेदारी के बारे में याद दिलाया और इस बात पर भी जोर दिया कि बाबरी मस्जिद को उसके मूल स्वामियों को वापस लौटाया जाए। राज्य गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को 20 फरवरी 1950 को दिए गए ज्ञापन में ब्रह्मचारी ने कहा कि यदि नायर चाहते तो 23 दिसंबर 1949 को ही मूर्ति हटाई जा सकती थी:

‘‘मैं (23 दिसंबर 1949 को) दोपहर करीब 12 बजे जिला मजिस्ट्रेट के साथ बाबरी मस्जिद गया। मूर्ति वहां रखी हुई थी। कुछ लोग मस्जिद के पास जमा हो गए थे। उस वक्त मस्जिद बचाई जा सकती थी और मूर्ति हटाई जा सकती थी लेकिन जिला मजिस्ट्रेट ने ऐसा करना उचित नहीं समझा।’’

जाहिर है नायर समस्या सुलझाना नहीं चाहते थे लेकिन ब्रह्मचारी ने अपना संघर्ष बंद नहीं किया। उन्होंने अपना विरोध जारी रखा, भले ही इसका मतलब अकेले ही यात्रा करना था। अयोध्या और फैजाबाद में सभी महत्वपूर्ण सांप्रदायिक लोग इकट्ठा हो गए थे और मुसलमान इतना डरे हुए थे कि खुलकर नहीं आ रहे थे। सांप्रदायिक तत्व अयोध्या की सड़कों पर बिना किसी डर के खुले आम घूम रहे थे और ब्रह्मचारी को ‘इस्लाम-प्रेमी’ तथा ‘अशांति फैलाने वाला’ बता रहे थे। कुछ ही दिनों के अंदर ब्रह्मचारी को अयोध्या छोड़ देना पड़ा। उनके जाने के बाद भीड़ ने आकर उनके घर का ताला तोड़ दिया और घर पर कब्जा कर लिया।

लेकिन इससे इस अपराध के विरूद्ध ब्रह्मचारी द्वारा संघर्ष करने का संकल्प और भी मजबूत हो गया। उन्हें पता था कि अयोध्या की घटनाओं का किसी समुदाय के धार्मिक या ऐतिहासिक विश्वास से कोई संबंध नहीं था और जो कुछ हो रहा था वह एक व्यापकतर राजनैतिक षड्यंत्र का हिस्सा था। वे यह भी जानते थे कि यदि अपराध करने वालों को सजा नहीं मिली तो उनका उत्साह और भी बढ़ जाएगा और वे सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए नए मुद्दे खड़े करेंगे।

इसीलिए वे कब्रों और मस्जिद पर कब्जे को अयोध्या तथा फैजाबाद में घट रही घटनाओं के साथ जोड़कर देख रहे थे। इसमें एक घटना थी फैजाबाद के स्टार होटल के राष्ट्रवादी मुस्लिम मालिक को केके नायर द्वारा मनमाने तरीके से निकाल बाहर किया जाना। नायर ने यह कार्रवाई एक छद्म व्यक्ति द्वारा छद्म आरेाप लगवाकर की थी। इसका उद्देश्य था फैजाबाद के प्रमुख मुसलमानों में से एक को परेशान करना ताकि समूचे समुदाय में आतंक फैलाया जाए। सुप्रसिद्ध गांधीवादी और महात्मा गांधी द्वारा स्थापित साप्ताहिक पत्रिका ‘हरिजन’ के संपादक केजी मशरूवाला पत्रिका के 19 अगस्त 1950 के अंक में लिखते हैंः

‘‘एक दिन एक जासूस ने कलेक्टर को सूचित किया इस होटल में हथियार छिपाकर रखे गए हैं। होटल की पड़ताल की गई लेकिन उसमें कुछ नहीं मिला। होटल के परिसर में चार व्यक्ति पाए गए। उनमें से एक सुलतानपुर से था। वह बिस्कुट खरीदने होटल आया हुआ था। उसे धारा 109 (सीआरपीसी थी) के अंतर्गत गिरफ्रतार कर लिया गया। बाद में उसे रिहा कर दिया गया। जिला मजिस्ट्रेट ने होटल के मालिक को इसे खाली करने को कहा और वास्तव में अपनी उपस्थिति में खाली करवाया। बाद में दुकान का अधिकार एक अन्य व्यक्ति को दे दिया गया जिसने वहां अपना होटल खोल लिया जिसका नाम ‘‘गोमती होटल’’ रखा गया।

इसका उद्घाटन स्वयं जिला जज ने किया और इस अवसर पर अन्य सरकारी अधिकारी भी उपस्थित थे। कहा जाता है कि स्टार होटल के मालिक एक पुराने राष्ट्रवादी मुस्लिम थे और एक समय मुस्लिम लीग ने उनका उनके राष्ट्रवादी विचारों के लिए बायकाट किया था।’’

यह घटना मस्जिद में मूर्ति रखे जाने के कुछ दिनों पहले की हे। स्टार होटल के मालिक मुहम्मद बशीर के पुत्र मुहम्मद अहमद बताते हैं कि इस घटना ने मुसलमानों के बीच इतनी असुरक्षा की भावना भर दी कि पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) जाने का नया सिलसिला आरंभ हो गया। मुहम्मद अहमद जो 1949 में मात्र आठ वर्ष के थे, उन दिनों को साफ-साफ याद करते हैंः

‘‘उन दिनों कुछ ठेले वाले और घोड़ागाड़ी वाले हमारे घर के बाहर रहा करते थे। इस घटना के बाद वे अचानक पूर्वी पाकिस्तान चले गए। कुछ मुसलमान जो रह गए थे मेरे पिता के पास आए और उनसे फैजाबाद न छोड़ने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि यदि वे चले जाएंगे तो अधिकतर मुसलमान भी चले जाएंगे। हालांकि स्टार होटल के बंद होने से बड़ा धक्का लगा, लेकिन मेरे पिता ने यहीं रहने का फैसला किया। मैं बचपन में देखता था कि वे अपने सिर पर बिस्कुट का टोकरा लिए बेचने निकल जाया करते। कुछ महीनों बाद 1950 में मेरे पिता ने मुकदमा जीत लिया। हालांकि हमें स्टार होटल वापस नहीं मिला, लेकिन मेरे पिता को इस बात का संतोष मिला कि उन्हेांने खुद को निर्दोष साबित कर दिखाया।’’

शायद नायर और हिंदू संप्रदायवादियों का यह उद्देश्य ही था कि वे मुसलमानों को पाकिस्तान जाने पर मजबूर कर दें। बशीर ने उनका सामना साहस के साथ किया। उन्हें अपना जीवन नए सिरे से और कम हैसियत से आरंभ करना पड़ा। उनकी कड़ी मेहनत रंग लाई और 1998 में अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने एक नई बेकरी खोली जो पुराने स्टार होटल के बगल में ही मौजूद है। वह फैजाबाद के प्रसिद्ध स्थानों में है और मुहम्मद अहमद की देखरेख में बशीर के पोते चलाते हैं।

1949 के अंत और 1950 के आरंभ में अयोध्या फैजाबाद क्षेत्र में मुसलमानों को परेशान करने के कई उदाहरण मिलते हैं। 1950 की एक घटना में, जिसकी रिपोर्ट स्वयं अक्षय ब्रह्मचारी जी ने की थी, हिंदू संप्रदायवादियों ने एक मुस्लिम महिला की मृत्यु पर उसे दफनाने नहीं दिया। प्रशासन ने भी मदद करने से बिल्कुल ही इन्कार कर दिया। उस महिला के संबंधी 22 घंटों तक एक कब्र से दूसरी तक दौड़ते रहे और आखिरकार उस शव को अयोध्या के बाहर ही जाकर दफन करना पड़ा। ब्रह्मचारी ने कई अन्य ऐसी घटनाओं का उल्लेख किया जिसमें यहां मुसलमानों के जीवन को दूभर करने का प्रयास किया गया था।

इस गांधीवादी की दृष्टि में ये सभी अलग-अलग घटनाएं वास्तव में एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं। इन सबका उद्देश्य एक ही था- फैजाबाद का पूर्ण हिन्दूकरण। अक्षय ब्रह्मचारी नायर और हिंदू संप्रदायवादियों की मंशा को स्पष्टतः समझ रहे थे। नायर खुले तौर पर मुसलमानों के अधिकार छीनने के लिए हिंदू संप्रदायवाद की मदद कर रहे थे। उनके लिए वैरागियों और फैजाबाद के व्यापारियों की मदद करना आसान था। इसलिए जिला प्रशासन से सहायता की आशा करना बेकार था। राज्य सरकार और प्रदेश की कांग्रेस पार्टी पूरी तरह उदासीन थी।

फिर भी अक्षय ब्रह्मचारी ऊपर के अधिकारियों और नेताओं को सावधान करते रहे, खासकर लखनऊ में लेकिन जब धारा 145 का पूरी तरह उल्लंघन और विकृतीकरण होता रहा तो उनके सामने उस रास्ते पर चलने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया जिसे महात्मा गांधी ने दिखाया था और जिनके वे आजन्म शिष्य रहे।

अब ब्रह्मचारी के सामने आमरण अनशन ही एकमात्र रास्ता बच रहा था। उन्होंने बिना समय खोए यह मार्ग अपनाया। 17 जनवरी 1950 को, गोपाल सिंह विशारद की याचिका के एक दिन बाद, उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को एक संक्षिप्त और सीधा सा पत्र लिखा। इसमें उन्होंने पूरे अयोध्या की घटनाओं के प्रति सरकार के रूख पर अपनी गहरी निराशा प्रकट की और 26 जनवरी 1950 से सरकार को उचित कदम उठाने पर मजबूर करने के लिए आमरण अनशन पर बैठने का अपना इरादा प्रकट किया।

‘‘मुझे इस बात का खेद है कि बारम्बार कोशिशों के बावजूद मैं आपको अयोध्या की घटनाओं की गंभीरता समझा नहीं पाया हूं। मैं महसूस करता हूं कि  महात्मा गांधी के उच्चतम बलिदान के बाद हमारा हृदय भय और आशंका से भर गया है जबकि जिन आदर्शों के लिए उन्होंने अपनी जान की कुर्बानी दी उन्हें आगे बढ़ाने की दृढ़ता और भावना हममें होनी चाहिए थी। मैं यह भी महसूस करता हूं कि हममें जनता को राष्ट्रपिता के आदर्शों की ओर लाने का साहस नहीं है। लगता है कि अयोध्या की एक छोटी घटना देश की राजनीति में महत्व धारण करती जा रही है। यदि हम आरंभ में ही सावधान रहते तो यह घटना रोक सकते थे।

‘‘आज न केवल सांप्रदायिक संगठनों के सदस्य अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए सांप्रदायिक जहर फैला रहे हैं बल्कि कुछ जिम्मेदार कांग्रेसी भी इस प्रभाव से बच नहीं पाए हैं।

‘‘यह मेरा दृढ़ विचार है कि यह सांप्रदायिक जहर समाप्त करने के लिए और महात्माजी के आदर्शों को स्थापित करने के लिए हमें उनके द्वारा अपनाए गए बलिदान के रास्ते पर चलना चाहिए। इसी एक रास्ते से हम सफलता  की ओर बढ़ सकते हैं।

‘‘इसलिए मैंने 26 जनवरी 1950 की सुबह से लखनऊ में प्रदेश कांग्रेस कमिटि के द्वार पर आमरण अनशन करने का फैसला किया है।’’

अनशन 26 जनवरी को आरंभ नहीं हो सका। उस दिन भारत को गणतंत्र घोषित करते हुए देश का संविधान घोषित किया गया लेकिन अनशन चार दिनों बाद 30 जनवरी को शुरू हो गया और जल्द ही लखनऊ और अयोध्या तक इसकी हलचल मचने लगी।

अयोध्या के मुसलमानों को इसमें आशा की एक किरण दिखाई देने लगी लेकिन वे इतने डरे हुए थे कि अक्षय ब्रह्मचारी के समर्थन में निकलने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। दूसरी ओर महासभा और ‘विरक्त’ ने अनशन से ध्यान हटाने के लिए तुरंत अलग अभियान आरंभ कर दिया। अक्षय ब्रह्मचारी को तत्काल एक टेलीग्राम भेजा गया जिसमें उनसे अपना अनशन तोड़ने की अपील की गई क्योंकि ‘‘अयोध्या के मुसलमानों को कोई समस्याएं नहीं थीं।’’ इस टेलीग्राम को प्रामाणिक और प्रभावी बनाने के लिए इस पर इक्कीस मुसलमानों को हस्ताक्षर करने पर मजबूर किया गया।

उधर महासभाई पत्रिका ‘विरक्त’ ने एक विज्ञप्ति में कहा, ‘‘अक्षय ब्रह्मचारी जो कुछ कह रहे हैं वह झूठ है। अयोध्या में 1934 से कोई हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ है न ही किसी मुसलमान का घर जलाया गया है और न ही कोई मुसलमान मारा गया है। अयोध्या में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंध पहले जैसे ही अच्छे बने हुए हैं। जहां तक बाबरी मस्जिद का सवाल है उस पर कोर्ट विचार कर रही है और वह जो कुछ तय करेगी दोनों पक्षों को मान्य होगा।’’ टेलीग्राम के समान विज्ञप्ति को भी दस स्थानीय मुसलमानों के हस्ताक्षर के साथ प्रकाशित किया गया।

गोविन्द बल्लभ पंत की प्रादेशिक सरकार अक्षय ब्रह्मचारी के अनशन की अनदेखी नहीं कर सकी। अनशन आरंभ होने के कुछ ही दिनों बाद लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें इसे समाप्त करने पर मना लिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि सरकार अयोध्या और फैजाबाद में सांप्रदायिक तनाव दूर करने के लिए उचित कदम उठाएगी और यह भी कि उनके अनशन से सरकार का यह संकल्प और भी दृढ़ हो गया है। ब्रह्मचारी ने अपना अनशन 4 फरवरी 1950 को समाप्त कर दिया।

लेकिन सरकार उदासीन बनी रही और ब्रह्मचारी ने अपना संघर्ष जारी रखा। एक पखवाड़े बाद 20 फरवरी 1950 को उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को एक और पत्र लिखा। उसके साथ अयोध्या और फैजाबाद के संबंध में एक विस्तृत मेमोरेंडम भी संलग्न थाः

‘‘अस्थाई रूप से अपना अनशन समाप्त करने के बाद मुझे बुखार हो गया और अभी हाल तक मैं प्रादेशिक कांग्रेस कमिटि के दफ्तर में बीमार पड़ा हुआ था। इसलिए मैं उस संबंध में आपसे कुछ समय तक संपर्क स्थापित नहीं कर सका। लेकिन मुझे यह जानकर बड़ी पीड़ा हुई कि अयोध्या और फैजाबाद में परिस्थिति निरंतर बिगड़ती ही जा रही है। भड़काऊ भाषण और प्रदर्शन अभी जारी हैं। कुछ सम्मानित मुस्लिम जनों पर हमले किए गए हैं। सिर्फ इसलिये कि उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया है कि बाबरी मस्जिद हमेशा ही हिंदू मंदिर रहा है, जैसा कि कुछ हिंदू संप्रदायवादी उनसे मनवाना चाहते थे। मुसलमानों के सामाजिक बायकाट का प्रचार खुलकर किया जा रहा है। मुसलमान आतंकित हैं और वे अपने परिवारों को अपने संबंधियों के पास अधिक सुरक्षित स्थानों पर भेज दे रहे हैं। कुछ तो जगह छोड़कर भाग भी गए हैं।

‘‘मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि इस पत्र के लिखने तक ऐसा कोई भी कदम मेरी जानकारी में नहीं आया है जिससे परिस्थिति सुधरे।

अयोध्या में धर्म और ऐतिहासिक आस्था के नाम पर जो कुछ किया जा रहा है वह वास्तव में आतंकी तरीकों का प्रयोग करके कुछ लोगों द्वारा राजनैतिक महात्वाकांक्षा पूरा करने का जरिया मात्र है। ऐसे गंभीर खतरों के समय भी यदि हम उनसे लड़ने में ढिलाई बरतते हैं तो ये लोग गंभीर समस्या को और भी गंभीर रूप दे देंगे। वे अधिक गड़बड़ी फैलाना चाह ते हैं ताकि कांग्रेस की सत्ता बिखर जाए और उनके फासिस्टवादी उद्देश्य पूरे होअ!’’

ब्रह्मचारी जी कुछ समय तक गंभीर रूप से बीमार रहे लेकिन फिर वे ठीक होने लगे और फिर काम में लग गए। उन्होंने शास्त्रीजी को एक के बाद दूसरी चिट्ठी भेजना आरंभ किया लेकिन दूसरी ओर पूरी चुप्पी साध ली गई थी और वे ठगा हुआ सा महसूस करने लगे। उन्होंने सरकार के विरूद्ध नया सत्याग्रह आरंभ करने के बारे में सोचा। यह बात उन्होंने शास्त्रीजी को 31 मई, 1950 को लिखे अपने एक पत्र में स्पष्ट कर दी। अयोध्या की परिस्थिति की ओर सरकार की पूर्ण उदासीनता की ओर ध्यान दिलाने के अलावा पत्र में अल्टीमेटम भी दिया गया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘यदि आगामी 15 जून तक कोई संतोषजनक कार्रवाई नहीं की गई’ तो वे अपना अन शन पुनः आरंभा कर देंगे।

ब्रह्मचारी द्वारा दी गई तारीख से तीन दिनों पहले शास्त्रीजी ने उत्तर दिया कि अयोध्या की स्थिति अब पहले से बेहतर है और चूंकि मामला अदालत में है इसलिए सरकार ज्यादा कुछ नहीं कर सकती है।

सरकार का यह रूख देखकर ब्रह्मचारी समझ गए कि आगे पत्राचार फिजूल है। इसलिए उन्होंने फिर से आमरण अनशन करने का फैसला लिया और इस प्रकार जनता के सामने सरकार का पर्दाफाश करना चाहा लेकिन उससे पहले उन्होंने शास्त्रीजी को उन उदाहरणों की एक लंबी लिस्ट भेजी जिनमें सरकारी हस्तक्षेप परिस्थिति को बचा सकता था। 26 जून 1950 के इस पत्र में उन्होंने अन्य मसलों के साथ यह भी पूछा कि पिछले कुछ महीनों में सांप्रदायिक तनाव के लिए जिम्मेदार लोगों के विरूद्ध क्यों कोई कार्रवाई नहीं की गई जो पोस्टर, हैंडबिल और भाषणों के जरिए जहर फैला रहे थे और पीड़ितों को कोई राहत क्यों नहीं दी गई। यह भी कहा गया कि सरकार ने नष्ट की गई कब्रों और मस्जिदों को पुनरूद्धार क्यों नहीं किया जो बाबरी मस्जिद के अलावा थे और जिन पर सांप्रदायिक तत्वों ने कब्जा जमा लिया था। पत्र में अदालत द्वारा पक्ष में फैसला दिए जाने के बावजूद स्टार होटल उसके वैध मालिक को देने में सरकार की असमर्थता का उल्लेख भी किया गया।

‘‘इस प्रकार कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका बाबरी मस्जिद के साथ कोई संबंध नहीं है। यदि उन्हें समय पर हल किया जाता तो परिस्थिति आसानी से सुधर सकती थी। इसके उल्टे अल्पसंख्यक समुदाय के लोग परेशानी और अन्याय का शिकार बन रहे हैं। जैसा कि मैंने अपने ज्ञापन में कहा है गड़बड़ी पैदा करने वाले तत्व अपनी सफलता से अधिक उत्साहित हो गए हैं और अब वे ऐसी परिस्थिति पैदा करना चाहते हैं जिसमें मुसलमानों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए।’’

‘‘कृपया यह कहने के लिए मुझे क्षमा करें कि सरकार फैजाबाद और लखनऊ में अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह असफल रही है और नपुंसक साबित हुई है। अब मेरे सामने सिर्फ बापू द्वारा दिखाया गया मार्ग ही बचता है। इसलिए मैं अब अपना अनशन फिर से शुरू करने पर मजबूर हूं। लेकिन उससे पहले मैं यह आवश्यक समझता हूं कि अयोध्या और फैजाबाद संबंधी सारे तथ्य तथा इस सिलसिले में आपके एवं मेरे बीच का पत्रचार भी प्रकाशित हो। मैं इस विषय पर आपके उत्तर और सहमति की प्रतीक्षा 10 जुलाई तक करूंगा। उसके बाद मैं अपने आंतरिक प्रकाश तथा श्रीराम की प्रेरणा से उचित तिथि निश्चित करके अपना अनशन आरंभ कर दूंगा।’’

ब्रह्मचारी अपनी लड़ाई साथ ही दिल्ली तक ले गए। 8 जुलाई 1950 को नेहरू के साथ उनकी लंबी मुलाकात हुई। इसमें उन्होंने अयोध्या एवं फैजाबाद की स्थिति और राज्य सरकार की अकर्मण्यता और उदासीन रूख से नेहरू को अवगत कराया। अगले ही दिन नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री को लिखकर उनका ध्यान परिस्थिति की गंभीरता की ओर खींचा और इस बात की आशंका प्रकट की कि ‘‘हम फिर किसी दुर्घटना की ओर बढ़ रहे हैं।’’

नेहरू के निर्देशानुसार ब्रह्मचारी ने 13 जुलाई को शास्त्री के साथ समस्याओं पर चर्चा की लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। अंत में उन्होंने शास्त्री को 24 जुलाई, 1950 को पत्र लिखा:

‘‘आपके साथ बातचीत और पत्रचार से ऐसा लगता है कि सरकार समस्या के मूल तत्वों को छूना नहीं चाहती है। मैं अयोध्या में वर्तमान भयावह स्थिति की ओर कांग्रेस के नेताओं का ध्यान खींचने में असफल रहा हूं। फलस्वरूप मैं 4 फरवरी 1950 को समाप्त किए गए अनशन को फिर से आरंभ करने पर मजबूर हूं। मैं अपना अनशन 22 अगस्त को फिर से आरंभ करूंगा। मैं अपनी ओर सौहार्द्रपूर्ण रवैये के लिए आपको धन्यवाद देना चाहूंगा।’’

अपने वादे के अनुसार अक्षय ब्रह्मचारी ने अपना दूसरा अनशन लखनऊ में प्रादेशिक कांग्रेस कमिटि के कार्यालय के बाहर आरंभ कर दिया। यह अनशन लंबा था जो 32 दिनों तक चला। इस अनशन का कारण बताते हुए उन्होंने कहाः

‘‘मैं अयोध्या और फैजाबाद की घटनाओं को सिर्फ मंदिर-मस्जिद विवाद के संदर्भ में ही नहीं देखता हूं बल्कि मैं इसे अधिकतर नागरिकों के अधिकारों की दृष्टि से भी देखता हूं। यदि किसी नागरिक को इस देश में रहना है और वह आस्तिक है तो उसे पूजा-स्थल का भी अधिकार है। यदि उसे इस देश में रहना है तो अपनी मृत्यु के बाद उसे भूमि का एक ऐसा टुकड़ा भी मिलना चाहिए जहां उसकी चिता जलाई जाए या दफन किया जाए। जो भी सत्ता नागरिकों के इन मूल अधिकारों का हनन करती है वह जनतांत्रिक नहीं कहला सकती है। यदि ऐतिहासिक आधार पर किसी मंदिर को मस्जिद में बदल दिया गया है या मस्जिद को मंदिर में तो सरकार इसे सिद्धांत-रूप में स्वीकार करे और इतिहासकारों की एक समिति का गठन करे जो यह तय करे कि भूतकाल में किस मंदिर को मस्जिद में परिवर्तित किया गया। उस स्थिति में हमें भी यह सोचना पड़ेगा कि इतिहास कहां जाकर रूके। इसके अलावा ये लोग जो आज इनके साथ मिलकर मुसलमानों को खत्म करना चाहते हैं, इस बात के लिए तैयार रहें कि कल ये ही लोग अपनी फासिस्ट राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए हरिजनों के साथ भी यही व्यवहार करेंगे और उसके दूसरे दिन सिखों के साथ भी और चार दिनों बाद देश वैष्णवों तथा शैवों के तथा इसी तरह के अन्य क्षत्रों में बंट जाएगा। इससे चारों ओर हिटलरवादी नीतियां, उससे उत्पन्न आतंक और उथल-पुथल मच जाएगी जो जनतंत्र को पूरी तरह नष्ट कर देगी।’’

इन शब्दों के साथ ब्रह्मचारी ने अपना अनशन आरंभ कर दिया जो कुछ समय साधारण-सी घटना बनी रही। लेकिन समय के साथ इसकी गूंज सत्ता के गलियारों में सुनाई देने लगी। 31 अगस्त को फखरूल इस्लाम, एमएलए, ने प्रश्न-काल के दौरान विधान सभा में यह सवाल उठाया। पैजाबाद में सांप्रदायिक तनाव के संबंध में प्रश्नों की झड़ी लग गई। गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने यह चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया कि जिले में सबकुछ ठीक-ठाक है। जब एक सदस्य ने पूछा कि क्या आप ब्रह्मचारी के अनशन से अवगत हैं तो शास्त्री ने पहले तो अनभिज्ञता दर्शाने का प्रयत्न किया, लेकिन जब अन्य सदस्यों ने भी पूछना शुरू किया तो उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि वे घटनाओं से अवगत हैं लेकिन उन्होंने कोई भी आश्वासन देने से इनकार कर दिया।

6 सितंबर 1950 को फिर यह सवाल विधान सभा में कार्य स्थगन प्रस्ताव के रूप में आया लेकिन सदन में गर्मागर्म बहस के बावजूद अध्यक्ष ने प्रस्ताव स्वीकार करने से साफ इंकार कर दिया क्योंकि सरकार अपनी बात पर अड़ी हुई थी। लेकिन अनशन जारी रहने से विधान सभा के सदस्यों पर दबाव बढ़ने लगा। यह अब आम चर्चा का विषय बन चुका था हालांकि सरकार अभी भी इस गांधीवादी से बातचीत करने को तैयार नहीं थी।

14 सितंबर 1950 को अयोध्या का प्रश्न विधान सभा में तीसरी बार फूट पड़ा। यह मुद्दा प्रश्न के रूप में आया और जल्द ही बहुत सारे पूरक प्रश्न इकट्ठा होते चले गए। शास्त्री ने सरकार का बचाव करने का पूरा प्रयत्न किया लेकिन स्थिति नियंत्रण से बाहर जाने को हो रही थी। मुख्य मंत्री पंत को मजबूरन हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने अयोध्या और फैजाबाद में घटित घटनाओं के संबंध में एक विस्तृत बयान पढ़ा।23 इसके बाद विधान सभा में एक संक्षिप्त-सी चर्चा हुई जिसका उत्तर पंत ने इन शब्दों में दियाः

‘‘मैं कह चुका हूं कि किसी के भी अधिकारों के रास्ते में कोई बाधा नहीं पहुंचानी चाहिए। यदि कोई गलत काम हुआ है तो उसे हमने ठीक करने का प्रयत्न किया है। हमें उन लोगों के लिए खेद है जिन्हें ऐसी घटनाओं से पीड़ा पहुंची है। ऐसी घटनाओं से हम उनसे कम दुखी नहीं हुए हैं। यह हमारी इच्छा और उद्देश्य है कि सभी लोग मिलजुलकर रहें और हर किसी को अपने अधिकारों के प्रयोग की आजादी मिले । हमारे राज्य का वातावरण ऐसा बने जिसमें किसी को भी यहां रहने में खतरा महसूस नहीं हो या वह यह नहीं महसूस करे कि यहां सम्मान, आत्म-सम्मान, खुशी और शांति के साथ नहीं रहा जा सकता है।’’

पंत के वक्तव्य के बाद विधान सभा में बहस अस्थाई तौर पर समाप्त हो गई लेकिन उन्होंने कोई ठोस वादा नहीं किया और प्रमुख समस्याओं की अनदेखी कर गए। इसलिए अक्षय ब्रह्मचारी ने अपना अनशन जारी रखा। जो चौथे सप्ताह में पहुंच चुका था। वे काफी कमजोर हो चुके थे और उनका स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा था। इन परिस्थितियों में दो प्रमुख गांधीवादियों विनोबा भावे और केजी मशरूवाला ने हस्तक्षेप किया और ब्रह्मचारी जी को अपना अनशन समाप्त करने के लिए मना लिया। शास्त्री ने भी पंत के विधान सभा के भाषण का हवाला देते हुए उनसे अनशन तोड़ने की अपील की। मशरूवाला ब्रह्मचारी के मित्र थे। उन्होंने हरिजन में लिखा कि ब्रह्मचारी को इन आश्वासनों को मानने में अभी भी हिचकिचाहट है जो उनके अनुसार पर्याप्त नहीं है। ब्रह्मचारी की आशंकाएं मशरूवाला के विचार में आधारहीन नहीं थी।

हालांकि अक्षय ब्रह्मचारी ने अपना अनशन 22 सितंबर 1950 को अपने मित्रें और शुभाकांक्षियों के दबाव में समाप्त कर दिया लेकिन इस एकाकी योद्धा का संघर्ष जारी रहा। उन्होंने अपना बाकी जीवन बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि समस्या हल करने और सौहार्द्र की जड़ें मजबूत करने में लगा दिया लेकिन यह बाकी सारा समय एक शांत संघर्ष का रहा। उनकी मृत्यु एक लंबी बीमारी के बाद 28 अप्रैल 2010 को लखनऊ के मेयो अस्पताल में हो गई। उनकी मृत्यु का दुख उनके कुछ थोड़े-से मित्रों और लंबे समय तक सहयोगी मीरा बहन ने ही महसूस किया। लखनऊ से बाहर चिनहट में अक्षय ब्रह्मचारी आश्रम है जो आज भी इस अयोध्या के गांधी का कार्य आगे बढ़ाने में लगा हुआ है।


(कृष्‍णा झा और धीरेंद्र कुमार झा की लिखी प्रसिद्ध पुस्‍तक “अयोध्‍या की वह स्‍याह रात” के अंश)  


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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