बात बोलेगी: जो सीढ़ी ऊपर जाती है, वही सीढ़ी नीचे भी आती है!


सत्ता क्यों, कब और कैसे सुनती है? सुनके वह क्या, कब और कैसे करती है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हमें सार्वजनिक जीवन में रहते हुए और एक लोकतन्त्र को करीब से जानने के लिए खुद से पूछते रहना चाहिए। चाहें तो जन आंदोलनों के स्वरूप और उनकी रणनीतियों को धीरज के साथ देखने, परखने और समझने से भी इन सवालों के माकूल जवाब मिल सकते हैं।

आंदोलन क्यों होते हैं? इसके जवाब में मुंशी प्रेमचंद ने कभी कहा था कि आंदोलन इसलिए होते हैं ताकि हम निज़ाम को और खुद को यह बतला सकें कि हम ज़िंदा हैं। इस लिहाज से ज़िंदा होने की शर्त हैं आंदोलन। लोकतन्त्र में आंदोलन उस बुनियादी सिद्धान्त को बार-बार व्यवहार की कसौटी पर परखने जैसा है, जिसे कभी जॉन लॉक ने राइट ट डिमांड यानी मांगने का अधिकार बतलाया था और इसको लोकतन्त्र की बुनियाद कहा था।

आंदोलन क्या हर वक़्त किसी सरकार को नीचा दिखाने या उसकी हंसी उड़ाने या उससे अपनी मांगें मनवाने के लिए होते हैं? शायद नहीं। आंदोलन बुनियादी तौर पर एक लोकतान्त्रिक राज्य के साथ हुए अपने करार को याद दिलाने के लिए होते हैं। इसका सरकार से उतना ही लेना-देना है जितना किसी के घर जाकर उसके दरबान से मिलना। सरकारें राज्य की दरबान हैं। इससे ज़्यादा होने का भ्रम जब सरकारों को हो जाता है, तब वे बेतहाशा ढंग से निर्लज्ज ‘राष्ट्रवादी सरकार’ होने की गति को प्राप्त कर लेती हैं। जैसा हम आजकल देख रहे हैं।

संदेह के महान क्षण में

राष्ट्रवादी सरकारें किसी शराबमुक्त क्षेत्र के किसी होटल या ढाबे पर लिखी इस पंक्ति की तरह हैं कि ‘यहां शराब पीना मना है’। ये पंक्ति वह बात बताती है जो है ही नहीं। असल में यह वो बातें छिपाती है जो सर्वत्र है। यानी एक राष्ट्रवादी सरकार बेतहाशा राष्ट्र के खिलाफ होती हैं। यही विरोधाभास समझते-समझते एक पीढ़ी निकल जाती है और दुनिया में एक दौर का ‘जर्मनी’ बन जाता है।

ये सरकारें आती कैसे हैं और जाती कैसे हैं? जवाब दिलचस्प है। फ़र्ज़ करें कोई मँझा हुआ ब्रोकर आपको एक मकान दिखलाते हुए उसमें लगी सीढ़ी की तारीफ आपको कुछ यूं बताता है, ‘’देखिए जी, यह सीढ़ी है। इससे आप ऊपर जा सकते हैं और खूबी यह है कि इसी से आप नीचे भी आ सकते हैं।‘’ तो हज़रात, ये सरकारें आती हैं आंदोलनों से और जाती भी हैं आंदोलनों से ही। आंदोलन, सरकार के लिए सीढ़ी हैं। इन सीढि़यों पर सरकारें चढ़ती हैं शौक से लेकिन उतरती हैं बेआबरू होकर। उतरती क्या, उतारी जाती हैं।

जिस मौजूदा अश्लील और फूहड़ राष्ट्रवादी सरकार की बात यहां हो रही है, वह एक ऐसे आंदोलन से सत्ता में आयी जो इस बात की मिसाल बन चुका है कि इसकी असफलता ने वह सब कुछ दिया जो इसकी सफलता कभी न दे पाती। थोड़ा उलटबांसी हो गयी। जब इंडिया करप्शन के अगेन्स्ट हो गया और पूरी दिल्ली, नोयडा के न्यूज़ स्टूडियो, आश्रम, सड़कें, चौबारे तिरंगों से पट गए, भारतमाता लफंदरों या लंपटों का तकिया कलाम बन गया और बारहों पहर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक भ्रष्टाचारी उन्माद फैल गया, उस समय की सरकार भलमनसाहत से इस आंदोलन को पुचकारती, सहलाती रही और आंदोलन को सफल हो जाने के रास्ते देती रही।

लेकिन मज़ा सफलता में था कहां? एक अदद सीढ़ी थी जिसने इस आंदोलन के तमाम नेताओं को सत्ता की अलग-अलग मीनारों पर चढ़ा दिया। इन्‍हीं में एक सत्‍ता की केंद्रीय मीनार भी रही।

“सरकार के खिलाफ़ गुस्सा बढ़ रहा है, अन्ना आंदोलन के सबक और घुसपैठियों के प्रति सतर्क रहें लोग”!

छह साल पहले आंदोलन की सीढ़ी पर चढ़कर आयी मौजूदा केंद्रीय सत्ता ने अपने कार्यकाल में हुए ऐसे कितने ही आंदोलनों को खुद को उतारने वाली सीढ़ी नहीं बनने दिया। इसके लिए उसने कई कंधों का सहारा लिया। ये कंधे थे पुलिस के, न्यायालय के, मीडिया के और हिंदुत्‍व की दीक्षा ले चुके बहुसंख्यक हिंदुओं के।

सीढ़ियों में आप हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और कई शिक्षा संस्थानों को गिन सकते हैं। इसी क्रम में मजदूरों, अक़लियतों और किसानों, रेलकर्मियों, बैंककर्मियों, बीमाकर्मियों को भी गिन सकते हैं, जो एक के बाद एक सामने आते रहे और सत्‍ता को धकियाने की सीढ़ी बनते रहे। खुद को ढलने से बचाने के लिए सत्‍ता ने उन तमाम कंधों का सहारा लिया जो पहले उसके नहीं थे। इस तरह सत्‍ता के कंधे, आंदोलन की सीढ़ियों से ज़्यादा मजबूत होते गये। प्रायोजित हिंसा की झूठी कहानियों और कोरोना के आवरण में स्थगित हुआ शाहीन बाग ऐसी आखिरी सीढ़ी था।

लोकतंत्र की अंतिम क्रिया अभी बाकी है!

अब पिछले तीन महीनों से एक नया ज्वार राजधानी के पड़ोस से पूरे वेग से उठा है। इसका तेज जितना ज़्यादा है उससे ज़्यादा है इसकी समझदारी। ऐसा ज्वार जिसे अपने ऊपर लग रहे बेहूदा इल्जामों का जवाब देना आता है; जिसकी बैठकें दिल्ली की सिविल सोसायटी के व्हाट्सएप्प समूहों में नहीं होतीं कि कोई सुल्तान जिसे शत्रु शिविर में पहुंचा दे। यह आंदोलन किसानों का है, जहां किसान ही इस आंदोलन के अगुवा हैं और वे ही इस आंदोलन के भागी भी हैं। वे सरदार हैं तो असरदार भी हैं। उन्‍हें जुबान का मोल पता है और बदज़बानी का तोड़ भी पता है। अपनी धुन में मसरूफ़, ज़िंदादिल, हौसलेवान और कदम दर कदम इरादों में मजबूत होते किसान। इन्हें कोई डिगा सकता है तो वो है राज्य के गेटकीपर की विनम्रतापूर्वक हार का स्वीकार। वरना सब बेकार।

आंदोलन का यह चेहरा इतना ‘आत्मनिर्भर’ है कि इसकी कल्पना उसने भी नहीं की थी जो इस शब्द को टॉयलेट पेपर की तरह इस्तेमाल करने का अभ्यस्त है और वो व्यक्ति जो दुर्योग से देश का प्रधानमंत्री भी है। आंदोलन, शब्दों के मायने बदलते हैं। उन्हें उनकी मूल ध्वनि लौटाते हैं। जिस कानून को कृषि सुधार के लिए बतलाया जा रहा है, ये आंदोलन उस सुधार के अर्थ को बदलने भी दिल्ली आया है। राजधानी, जो सत्ता की मेहरारू की तरह बरती जाने लगी है उसे ये किसान जन-जन की राजधानी बनाने आये हैं। पुलिस, जो नागरिकों की रक्षा के लिए गठी गयी होगी कभी, ये उसे भी एक्सपोज़ करने आये हैं। ये किसान मीडिया को सही खबरें न दिखाने पर नसीहत देने आया है। यह आंदोलन हिंदुस्तान को उस विषैली गंध से मुक्त कराने दिल्ली आया है जिसके वशीभूत होकर बहुसंख्यक अपने आप को भुलाये बैठे हैं। यह आंदोलन अंतत: हम सब को बदलने आया है।

किसान आंदोलन के साथ जनता का सिर्फ़ पेट नहीं, उसकी बोलने की आज़ादी भी जुड़ी हुई है!

जंतर-मंतरीय, रामलीलाई सरकारी आडंबरों से मुक्त ये मुक्त आकाश के आंदोलन हैं। खुले में डेरा डाले ये किसान हमें बताने आये हैं कि अपनी करो फिकर, हमारी तो कट गयी…। ये काटने नहीं, कटने के लिए तैयार होकर आये हैं। इनके साथ इतने लोग हैं कि और मामलों में तो छोड़िए लेकिन किसानों की इस एकता के मामले में हिंदुस्तान को विश्वगुरू होने से कोई नहीं रोक  सकता। सत्ता क्या कर सकती है? बात नहीं करेगी। मत करो। इनकी मांगें नहीं मानेगी? मत मानो। इन्हें अपनी मीडिया लगाकर बदनाम कर सकती है? करे। ये तो पहले ही मीडिया को बदनाम कर चुके हैं। अब मीडिया को अगर खुद को बचाना है तो सँभल कर चले।

सरकार एक बात बहुत निर्लज्ज और बेशर्मी के साथ भूल रही है कि हिंदुस्तान में सिख समुदाय ऐतिहासिक रूप से एक उत्पीड़ित समुदाय है। उसके ज़ख़्मों को छेड़ना आपको कहीं का नहीं छोड़ेगा। दुनिया में बहुत कुछ बदलता है और बहुत तेज़ी से बदलता है। जो बाइडेन की वो तस्वीर आप देख रहे हैं न जिसमें वो जॉर्ज फ्लायड की बेटी के सामने अपने पैर ज़मीन पर टिकाकर माफी मांगते हुए दिखायी दे रहे हैं? उत्पीड़ितों के साथ यही किया जाता है। उनका भरोसा जीता है। उन्हें प्यार किया जाता है। किराये के टट्टुओं को आइटी सेल में बैठाकर गालियां नहीं दिलवायी जातीं। अगर सत्ता को यही ठीक लगता है तो कोई कुछ नहीं कर सकता, सिवा इसके कि ऊपर जाने वाली सीढ़ियों से उसी रास्ते उसे नीचे धकिया दिया जाय।



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