‘किसान सच्चा पृथ्वीपति है, उसे सरकार से क्यों डरना?’ किसान आंदोलन के लिए गांधीजी के कुछ सबक


जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब गांधी जी को अपना परिचय देने की आवश्यकता पड़ी और हर बार उन्होंने स्वयं की पहचान किसान ही बताई। 1922 में राजद्रोह के मुकद्दमे का सामना कर रहे गांधी अहमदाबाद में एक विशेष अदालत के सामने स्वयं का परिचय एक किसान और बुनकर के रूप में देते हैं। पुनः नवंबर 1929 में अहमदाबाद में नवजीवन ट्रस्ट के लिए दिए गए घोषणापत्र के अनुसार भी गांधी स्वयं को पेशे से किसान और बुनकर बताते हैं। बहुत बाद में सितंबर 1945 में गाँधी जी भंडारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च पूना की यात्रा करते हैं। उनके साथ सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजकुमारी अमृत कौर भी हैं। पुनः संस्थान की विजिटर्स बुक में गांधी अपना परिचय एक किसान के रूप में देते हैं।

1904 में दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के एक शाकाहारी मित्र हेनरी पोलाक ने उन्हें रस्किन की अनटो दिस लॉस्ट भेंट की थी। गांधी जी ने रस्किन के विचार- एक श्रम प्रधान जीवन, भूमि में हल चलाने वाले किसान या किसी हस्तशिल्पकार का जीवन ही अनुकरणीय है- को अपना मूल मंत्र बना लिया। फीनिक्स आश्रम (1904) से खेती उनके आश्रमों की जीवन चर्या का एक अंग बन गई। भारत लौटने के बाद अहमदाबाद के सत्याग्रह आश्रम (1915) में फलों और सब्जियों की खेती होती रही। बाद में जब वर्धा से कुछ दूरी पर 1936 में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना हुई तब भी गांव और किसान गाँधी जी की प्राथमिकताओं के केंद्र बिंदु रहे। अनेक विद्वानों ने सेवाग्राम आगमन के पश्चात पहली प्रार्थना सभा में ही गांधी जी को यह कहते उद्धृत किया है कि हमारी दृष्टि देहली नहीं देहात की ओर होनी चाहिए। देहात हमारा कल्प वृक्ष है।

गांधी जी की दृष्टि में किसान और हिंदुस्तान एक दूसरे के पर्याय हैं। अहिंसा और निर्भयता किसान का मूल स्वभाव हैं और शोषण तथा दमन के विरुद्ध सत्याग्रह उनका बुनियादी अधिकार। हिन्द स्वराज (1909) में वे लिखते हैं-

आपके विचार में हिंदुस्तान से आशय कुछ राजाओं से है किंतु मेरी दृष्टि में हिंदुस्तान का मतलब वे लाखों लाख किसान हैं जिन पर इन राजाओं का और आपका अस्तित्व टिका हुआ है। मैं आपसे विश्वासपूर्वक कहता हूं कि खेतों में हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे। किसान किसी की तलवार के बस न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते और न ही वे किसी की तलवार से भय खाते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मृत्यु का भय छोड़ दिया है। तथ्य यह है कि किसानों ने, प्रजा मंडलों ने अपने और राज्य के कारोबार में सत्याग्रह को काम में लिया है। जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है।

हिन्द स्वराज, नवजीवन, अहमदाबाद, पृष्ठ 58-59

आज की हमारी सरकार भले ही किसानों की योग्यता और बुद्धिमत्ता पर संदेह करती हो और किसानों के साथ चर्चा करने वाले अनेक वार्ताकार उन्हें नासमझ के रूप में चित्रित करते हों किंतु गांधी जी उनमें एक आजाद, जाग्रत और प्रबुद्ध नागरिक के दर्शन करते हैं-

इन भारतीय किसानों से ज्योंही तुम बातचीत करोगे और वे तुमसे बोलने लगेंगे त्योंही तुम देखोगे कि उनके होंठों से ज्ञान का निर्झर बहता है। तुम देखोगे कि उनके अनगढ़ बाहरी रूप के पीछे आध्यात्मिक अनुभव और ज्ञान का गहरा सरोवर भरा पड़ा है। भारतीय किसान में फूहड़पन के बाहरी आवरण के पीछे युगों पुरानी संस्कृति छिपी पड़ी है। इस बाहरी आवरण को अलग कर दें, उसकी दीर्घकालीन गरीबी और निरक्षरता को हटा दें तो हमें सुसंस्कृत, सभ्य और आजाद नागरिक का एक सुंदर से सुंदर नमूना मिल जाएगा।

हरिजन 28 जनवरी 1939

गांधी जी किसानों के शोषण को देश की सबसे गंभीर समस्या मानते थे और उन्होंने बारंबार अपने लेखों और भाषणों में इसे देश की स्वतंत्रता के मार्ग में बाधक बताया है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर 6 फरवरी 1916 को दिए गए ऐतिहासिक भाषण में गांधी जी कहते हैं:

जब कहीं मैं कोई आलीशान इमारत खड़ी हुई देखता हूं; तब ही मन में आता है; हाय यह सारा रुपया किसानों से ऐंठा गया है। जब तक हम अपने किसानों को लूटते रहेंगे या औरों को लूटने देंगे, तब तक स्वराज्य की हमारी तड़पन सच्ची नहीं कही जा सकती है. देश का उद्धार किसान ही कर सकता है।

आज से लगभग 77 वर्ष पूर्व गांधी यह उद्घोष करते हैं कि जमीन उसी की होनी चाहिए जो उस पर खेती करता है न कि किसी जमींदार की। वे किसानों को जमींदारों और पूंजीपतियों के शोषण से बचने के लिए सहकारिता की ओर उन्मुख होने का परामर्श देते हैं। वे खेतिहर मजदूरों के हकों की चर्चा करते हैं। आज तो भूमिहीन किसान और कृषि मजदूर चर्चा से ही बाहर हैं और सहकारिता को खारिज करने की हड़बड़ी सभी को है। गांधी जी के अनुसार:

किसानों का- फिर वे भूमिहीन मजदूर हों या मेहनत करने वाले जमीन मालिक हों – स्थान पहला है। उनके परिश्रम से ही पृथ्वी फलप्रसू और समृद्ध हुई है और इसलिए सच कहा जाए तो जमीन उनकी ही है या होनी चाहिए, जमीन से दूर रहने वाले जमींदारों की नहीं। लेकिन अहिंसक पद्धति में मजदूर किसान इन जमींदारों से उनकी जमीन बलपूर्वक नहीं छीन सकता। उसे इस तरह काम करना चाहिए जमींदार के लिए उसका शोषण करना असंभव हो जाए। किसानों में आपस में घनिष्ठ सहकार होना नितांत आवश्यक है। इस हेतु की पूर्ति के लिए जहां वैसी समितियां ना हों वहां वे बनाई जानी चाहिए और जहां हों वहां आवश्यक होने पर उनका पुनर्गठन होना चाहिए। किसान ज्यादातर अनपढ़ हैं। स्कूल जाने की उम्र वालों को और वयस्कों को शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा पुरुषों और स्त्रियों दोनों को दी जानी चाहिए। वहीं खेतिहर मजदूरों की मजदूरी इस हद तक बढ़ाई जानी चाहिए कि वे सभ्यजनोचित जीवन की सुविधाएं प्राप्त कर सकें यानी उन्हें संतुलित भोजन और आरोग्य की दृष्टि से जैसा चाहिए वैसे घर और कपड़े मिल सकें।

द बॉम्बे क्रॉनिकल, 28-10-1944

आज हम देख रहे हैं कि केंद्र सरकार द्वारा जबरन थोपे गए तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध देश के किसान आंदोलित हैं। किसानों को मिलते जन समर्थन और आंदोलन के देशव्यापी स्वरूप के कारण केंद्र सरकार भयभीत है और वह साम-दाम-दंड-भेद किसी भी विधि से किसानों को परास्त करना चाहती है। गांधी जी ने बहुत पहले ही हमें चेताया था कि यदि किसानों की उपेक्षा और शोषण एवं दमन जारी रहा तो हालात विस्फोटक बन सकते हैं। उन्होंने लिखा:

यदि भारतीय समाज को शांतिपूर्ण मार्ग पर सच्ची प्रगति करनी है तो धनिक वर्ग को निश्चित रूप से स्वीकार कर लेना होगा कि किसान के पास भी वैसी ही आत्मा है जैसी उनके पास है और अपनी दौलत के कारण वे गरीब से श्रेष्ठ नहीं हैं। यदि पूंजीपति वर्ग काल का संकेत समझकर संपत्ति के बारे में अपने इस विचार को बदल डाले कि उस पर उनका ईश्वर प्रदत्त अधिकार है तो जो सात लाख घूरे आज गांव कहलाते हैं उन्हें आनन-फानन में शांति, स्वास्थ्य और सुख के धाम बनाया जा सकता है। केवल दो मार्ग हैं जिनमें से हमें अपना चुनाव कर लेना है, एक तो यह कि पूंजीपति अपना अतिरिक्त संग्रह स्वेच्छा से छोड़ दें और उसके परिणाम स्वरूप सब को वास्तविक सुख प्राप्त हो जाए। दूसरा यह कि अगर पूंजीपति समय रहते न चेते तो करोड़ों जाग्रत किंतु अज्ञानी और भूखे रहने वाले लोग देश में ऐसी गड़बड़ मचा दें जिसे एक बलशाली हुकूमत की फौजी ताकत भी नहीं रोक सकती। मैंने यह आशा रखी है कि भारत इस विपत्ति से बचने में सफल होगा।

यंग इंडिया, 5 दिसंबर 1929

गांव की उपेक्षा और किसानों को मालिक से मजदूर बनाकर जबरन शहरी कारखानों की ओर धकेलना आधुनिक विकास प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा है। गांधी जी ने बहुत पहले ही इसे भांप लिया था:

मेरा विश्वास है और मैंने इस बात को असंख्य बार दुहराया है कि भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांव में बसा हुआ है. लेकिन हम भारतवासियों को ख्याल है कि भारत शहरों में ही है और गांव का निर्माण शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए ही हुआ है। हमने कभी यह सोचने की तकलीफ ही नहीं उठाई कि उन गरीबों को पेट भरने जितना अन्न और शरीर ढकने जितना कपड़ा मिलता है या नहीं।

हरिजन, 4 अप्रैल 1935

गांधी जी ने स्वयं किसान आंदोलनों का सफल नेतृत्व किया। उनकी प्रेरणा से अनेक किसान आंदोलन प्रारंभ हुए और उनके मार्गदर्शन में कामयाब भी हुए। अहिंसा और सत्याग्रह इन किसान आंदोलनों के मूलाधार थे। अप्रैल 1917 का चंपारण सत्याग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि आज की परिस्थितियों से यह बहुत अधिक समानता दर्शाता है। चंपारण के गरीब किसानों, भूमिहीन कृषकों एवं कृषि मजदूरों को खाद्यान्न के बजाए नकदी फसल लेने के लिए बाध्य किया जाता था। चंपारण के किसानों का शोषण बहुस्तरीय था- बागान मालिक जमींदार और अंग्रेज। नील की खेती के लिए बाध्य करने के तीन क्रूर तरीके और छियालीस प्रकार के अवैध कर – उस समय लगभग 21900 एकड़ कृषि भूमि उससे प्रभावित थी।

गाँधी जी के मार्गदर्शन में 2900 गाँवों के तेरह हजार किसानों की समस्याओं को लिपिबद्ध किया गया। गाँधी जी के वैज्ञानिक अहिंसक आंदोलन को विफल करने हेतु तुरकौलिया के ओल्हा कारखाने में अग्निकांड किया गया, किन्तु गाँधी जी संकल्प डिगा नहीं बल्कि दृढ़ ही हुआ। तब बिहार के अंग्रेज डिप्टी गवर्नर एडवर्ड गेट ने चंपारण एग्रेरियन कमिटी का गठन किया। गाँधी जी इसके सदस्य थे। इस समिति की सिफारिशों के आधार पर तीन कठिया प्रथा (प्रति बीघा यानी 20 कट्ठा में 3 कट्ठा में नील की खेती की अनिवार्यता) को समाप्त किया गया, लगान की दरें कम की गईं और कुछ मुआवजा भी किसानों को मिला।

चंपारण सत्याग्रह

यह सत्याग्रह का देश में प्रथम सफल प्रयोग था। उस काल के अंग्रेज शासकों की भांति आज की नवउपनिवेशवादी शक्तियां किसानों की भूमि पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग द्वारा अपना नियंत्रण कर उनसे अपनी मनचाही फसलों की खेती कराना चाहती हैं। गांधी जी के अहिंसक आंदोलन को नाकामयाब करने के लिए हिंसा पर आधारित कुटिल प्रयास किए गए थे।26 जनवरी 2021 को भी  कुछ वैसे ही षड्यंत्र रचे गए। किंतु गांधी जी ने धैर्य न खोया, आंदोलन का अहिंसक और पारदर्शी स्वरूप बरकरार रहा। सत्ता के सारे षड्यंत्र विफल हुए और किसानों की जीत हुई।

गांधी जी की प्रेरणा से भी अनेक सत्याग्रह आंदोलन हुए। यह आंदोलन किसानों की समस्याओं से संबंधित थे। सरदार पटेल ने इन आंदोलनों का सफल संचालन किया था। खेडा (1918), बोरसद (1922-23) और बारडोली (1928) जैसे आंदोलनों की सफलता का रहस्य गांधी जी के अनुसार किसानों का राजनीतिक उपयोग करने की घातक प्रवृत्ति से पूरी तरह दूरी बनाए रखना था। गांधी जी के अनुसार यह आंदोलन इसलिए सफल रहे क्योंकि ये किसानों की बुनियादी और अनुभूत दैनंदिन समस्याओं पर अपने को केंद्रित रख सके और इनमें राजनीति को प्रवेश का अवसर नहीं मिल पाया। पुनः गांधी जी इन आंदोलनों के अहिंसक स्वरूप पर बल देते हैं। उनके अनुसार जिस दिन किसान अपनी अहिंसक शक्ति को पहचान लेंगे, उस दिन दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें रोक नहीं सकती। (कंस्ट्रक्टिव प्रोग्राम: इट्स मीनिंग एंड प्लेस, नवजीवन, अहमदाबाद, पृष्ठ 22-23)।

बारडोली सत्याग्रह के संबंध में गांधी जी ने कहा:

किसान जो धरती की सेवा करता है वही तो सच्चा पृथ्वीपति है उसे जमींदार या सरकार से क्यों डरना है।

वर्तमान किसान आंदोलन के नेतृत्व को गांधी जी की यह सीखें बार बार स्मरण करनी चाहिए। आंदोलन का स्वरूप सदैव अहिंसक रहे। आंदोलन पूर्णतः अराजनीतिक हो। आंदोलनकारियों का फोकस पूरी तरह किसानों की समस्याओं पर बना रहे। सबसे बढ़कर किसानों को अपनी अहिंसक शक्ति पर विश्वास हो तो सफलता अवश्य मिलेगी।

किसानों का मार्ग दुरूह है, संघर्ष लंबा चलेगा किंतु गांधी जी ने स्वतन्त्रतापूर्व जो मंत्र दिया था उसका अक्षर अक्षर आज प्रासंगिक है:

अगर विधानसभाएं किसानों के हितों की रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध होती हैं तो किसानों के पास सविनय अवज्ञा और असहयोग का अचूक इलाज तो हमेशा होगा ही। लेकिन अंत में अन्याय या दमन से जो चीज प्रजा की रक्षा करती है वह कागजों पर लिखे जाने वाले कानून, वीरता पूर्ण शब्द या जोशीले भाषण नहीं है बल्कि अहिंसक संघटन, अनुशासन और बलिदान से पैदा होने वाली ताकत है।

द बॉम्बे क्रॉनिकल, 12 जनवरी 1945

एक प्रश्न किसानों की सत्ता में भागीदारी का भी है। इस संबंध में गांधी जी ने अपनी राय बड़ी बेबाकी और साफगोई से रखी थी। प्रसिद्ध किसान नेता एन जी रंगा को किसानों की समस्याओं पर दिए गए विस्तृत साक्षात्कार में गांधी जी ने कहा:

मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि हमें लोकतांत्रिक स्वराज्य हासिल हो – और यदि हमने अपनी स्वतंत्रता अहिंसा से पाई हो- तो जरूर ऐसा ही होगा तो उसमें किसानों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ हर किस्म की सत्ता होनी चाहिए।

द बॉम्बे क्रॉनिकल, 12 जनवरी 1945

किसानों के हाथों में सत्ता के सूत्र सौंपने की गांधी जी की उत्कट अभिलाषा जीवन के अंत तक बनी रही। 29 जनवरी 1948 को उन्होंने प्रार्थना सभा के दौरान कहा:

मेरा बस चले तो हमारा गवर्नर-जनरल किसान होगा, हमारा बड़ा वजीर किसान होगा, सब कुछ किसान होगा, क्योंकि यहां का राजा किसान है। मुझे बाल्यकाल से एक कविता सिखाई गई – “हे किसान, तू बादशाह है।” किसान भूमि से पैदा न करे तो हम क्या खाएंगे? हिंदुस्तान का वास्तविक राजा तो वही है। लेकिन आज हम उसे ग़ुलाम बनाकर बैठे हैं। आज किसान क्या करे? एमए बने? बीए बने? ऐसा किया तो किसान मिट जाएगा। पीछे वह कुदाली नहीं चलाएगा। किसान प्रधान बने, तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी। आज जो सड़ा पड़ा है, वह नहीं रहेगा।

किसानों को स्वतंत्रता के बाद सत्ता में वैसी केंद्रीय भूमिका नहीं मिल पाई जैसी गांधी जी की इच्छा थी, बल्कि सत्ता में किसानों की भागीदारी में उत्तरोत्तर कमी ही आई। जो किसान सत्ता पर काबिज भी हुए उनका व्यवहार किसानों जैसा खालिस और देसी नहीं रहा। सत्ता की चकाचौंध ने उन्हें दिग्भ्रमित किया। वे गांवों और खेती की उपेक्षा करते और शहरों और उद्योगों की वकालत करते नजर आए। सत्ता और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण के महत्व को वे पहचान न पाए। यदि सत्ता में किसानों की भागीदारी नगण्य है और सत्ता का आचरण किसान विरोधी है तो इसके लिए मतदाता के रूप में किसानों का व्यवहार भी कम उत्तरदायी नहीं है। किसान मतदाता के रूप में जातीय, धार्मिक और दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनते रहे हैं।

आज गांधी जी का स्मरण और उनका पुनर्पाठ इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए जो रणनीति अपनाई जा रही है वह दरअसल गांधी के सपनों के भारत को खंडित करने वाली है। यह घृणा और विभाजन की रणनीति है। जाति-धर्म और संप्रदाय की संकीर्णता को इस किसान आंदोलन ने गौण बना दिया था, किंतु अब इसे धार्मिक पहचान वाले पृथकतावादी आंदोलन के रूप में रिड्यूस किया जा रहा है। विभाजन, संदेह और घृणा के नैरेटिव के अनंत शेड्स देखने में आ रहे हैं। पंजाब-हरियाणा के किसान विरुद्ध सारे देश के किसान का नैरेटिव इस आंदोलन के राष्ट्रीय स्वरूप को महत्वहीन करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

सम्पन्न बड़े किसान के विरुद्ध छोटे और मझोले गरीब किसान का विचार इसलिए विमर्श में डाला गया है जिससे इस आंदोलन से बड़ी आशा लगाए करोड़ों किसानों के मन में संदेह पैदा हो। ईमानदार और जिम्मेदार मध्यम वर्ग विरुद्ध अराजक और अनपढ़ किसान की चर्चा इसलिए की जा रही है कि उदारीकरण और निजीकरण के आघातों की पीड़ा भूलकर मध्यम वर्ग किसान विरोध में लग जाए। हिंदू-मुसलमान और हिंदू-सिख तथा राष्ट्रभक्त- देशद्रोही जैसे पुराने विभाजनकारी फॉर्मूले भी धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहे हैं। देशवासी एक दूसरे को शत्रु मानकर आपस में संघर्ष कर रहे हैं। यह गांधी का भारत तो नहीं है। गांधी अब नहीं हैं किंतु उनकी सीखें हमारे पास हैं। यदि हम अहिंसा, सत्याग्रह,त्याग, बलिदान, प्रेम, करुणा और सहिष्णुता पर अपनी आस्था बनाए रख सके तो देश को हर संकट से मुक्ति दिला सकते हैं।


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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