मंदिर-मस्जिद सबके लिए खुले क्यों न हों?

सूरिनाम, गयाना, मोरिशस और अपने अंडमान-निकोबार में मैंने ऐसे कई परिवार देखे हैं, जिनमें पति तो पूजा करता है और उसकी पत्नी नमाज़ पढ़ती है या ‘प्रेयर’ करती है। ये लोग सच्चे आस्तिक हैं लेकिन जो भेदभाव करते हैं, वे जितने आस्तिक हैं, उससे ज्यादा राजनीतिक हैं। वे दूसरों के तो क्या, अपने ही मजहब में अपना संप्रदाय अलग खड़ा कर लेते हैं और उसके जरिये अंधभक्तों को अपने जाल में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

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‘अग्निपथ’ का दूसरा सिरा संघ के निजी सैनिक स्कूलों तक जाता है इसलिए सवाल योजना की मंशा पर है!

पिछले तीन साल के दौरान देश में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदला है कि न तो मीडिया ने संघ के शिकारपुर आर्मी स्कूल की कोई सुध ली और न ही अखिलेश ने ही बाद में कुछ भी कहना उचित समझा। अब ‘अग्निपथ’ के अंतर्गत साढ़े सत्रह से इक्कीस (बढ़ाकर तेईस) साल के बीच की उम्र के बेरोज़गार युवाओं को ‘अग्निवीरों’ के रूप में सशस्त्र सेनाओं के द्वारा प्रशिक्षित करने की योजना ने संघ के आर्मी स्कूल प्रारम्भ किए जाने के विचार को बहस के लिए पुनर्जीवित कर दिया है।

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आधुनिक राष्ट्र-राज्य में प्राचीन भारत और पुराने शहरों के भीतर स्मार्ट शहरों का निर्माण!

जिस स्वरूप के राष्ट्र-निर्माण की पीड़ा या प्रक्रिया से हम गुज़र रहे हैं उसमें तानाशाही सर्वहारा की नहीं बल्कि धर्म की स्थापित होने वाली है। इस्लामी राष्ट्रों में उपस्थित एक धर्म विशेष के साम्राज्य या धार्मिक तानाशाही के समानांतर बहुसंख्यकों द्वारा पालन किए जाने वाले धर्म की तानाशाही।

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बंदरों को आदमी होना ही नहीं था: विभांशु केशव की दस लघु कथाएं

डॉक्टर साहब सोचते- मेरी जानकारी में मेरे खानदान ने पैसे के अतिरिक्त कुछ कमाया नहीं। फिर लड़की इज्जत लेकर कैसे चली गई? मेरे खानदान वालों ने इज्जत का खजाना कहाँ छुपा रखा है?

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UP चुनाव: अखबारों, प्रत्याशियों और प्रशासन ने मिल कर कैसे उड़ायी आदर्श आचार संहिता की धज्जियां

सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के बांगरमऊ, उन्नाव से प्रत्याशी अनिल कुमार मिश्र के मुताबिक हफीजाबाद में 22 फरवरी 2022 को चुनाव से पहले वाली शाम भाजपा के लोगों द्वारा पैसे बांटे गए। अनिल कुमार मिश्र ने उन्नाव जिले के चुनाव अधिकारी को रात सवा नौ बजे लिखित शिकायत भेजी।

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भाजपा और संघ की असली समस्या कांग्रेस और ‘परिवार’ नहीं बल्कि देश की जनता है!

‘विश्व गुरु’ बनने जा रहे भारत देश के प्रधानमंत्री को अगर अपना बहुमूल्य तीन घंटे का समय सिर्फ़ एक निरीह विपक्षी दल के इतिहास की काल-गणना के लिए समर्पित करना पड़े तो मान लिया जाना चाहिए कि समस्या कुछ ज़्यादा ही बड़ी है।

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जो मांग के लिए जाए वह सम्मान ही क्या है और देने वाले की अपनी प्रामाणिकता क्या है?

इन सम्मानों का लालच इतना बढ़ गया है कि पद्मश्री जैसा सम्मान पाने के लिए लोग लाखों रु. देने को तैयार रहते हैं। समाज के प्रतिष्ठित और कुछ तपस्वी लोग ऐसे नेताओं के आगे नाक रगड़ते रहते हैं, जो उनकी तुलना में पासंग भर भी नहीं होते।

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केरल: सच को झूठ से अलग न कर पाने की मजबूरी से निकला ‘न्याय’!

सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी और मामले में पूर्व में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए जज ने अपने ऑर्डर में कहा कि जब सच को झूठ से अलग करना सम्भव न हो, जब अनाज और भूसा पूरी तरह आपस में मिल गए हों; विकल्प यही बचता है कि सभी साक्ष्यों को ख़ारिज कर दिया जाए।

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UP: चुनाव में ऊंट की करवट भांप कर उससे पहले ही उधर लेट जाने वाले

मौर्य ने अपने इस्तीफे के जो कारण बताए हैं, वे तो सिर्फ बताने के लिए हैं लेकिन उनके इस्तीफे का असली संदेश यह है कि उ.प्र. के चुनाव में ऊँट दूसरी करवट बैठनेवाला है। जिस करवट ऊँट बैठेगा, उसी करवट हम पहले से लेटने लगेंगे। वरना क्या वजह है कि मौर्य-जैसे कई नेता बार-बार अपनी पार्टियां बदलने लगते हैं? ऐसे नेता ही आज की राजनीति को उसके पूर्ण नग्न रुप में उपस्थित कर देते हैं।

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प्रधानमंत्री दोहरे दबाव में हैं, बठिंडा प्रकरण को मतदान होने तक भुला दिया जाना चाहिए

किसी भी जीते-जागते लोकतंत्र में उस देश के मतदाताओं/नागरिकों द्वारा अपनी माँगों को लेकर किए जाने वाले शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शनों को देश के अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों की जान पर ख़तरे की आशंका से जोड़कर देखना अथवा प्रचारित करना प्रजातांत्रिक मूल्यों और व्यवस्थाओं में किस सीमा तक उचित समझा जाना चाहिए! क्या दुनिया की अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी हमारी तरह का ही सोच क़ायम है?

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