हर्फ़-ओ-हिकायत: कालेलकर आयोग के आईने में ओबीसी आरक्षण का अंतिम दांव


ऐतिहासिक विवादों वाले बीते मॉनसून सत्र में सर्वसम्मति से पास ओबीसी कानून में संशोधन ने  राज्य सरकारों के ये अधिकार दे दिया है कि वे अपने राज्य के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची बना सकते हैं। चूंकि मामला सर्वसम्मति से है इसलिए यह कहना कि आरक्षण मिलने से किसी को नुकसान होगा, ये जरा मंगल ग्रह की बात लगेगी। बहरहाल, इस संशोधन के बाद महाराष्ट्र के मराठों को पिछड़ा वर्ग में आने का रास्ता साफ हो गया है।

ओबीसी संशोधन बिल संसद में पहुंचा ही मराठा आरक्षण की वजह से था। राजनीतिक और सामाजिक तौर पर मजबूत पहचान वाले मराठाओँ को आरक्षण की क्या जरूरत पड गयी ये तो उसके पक्ष में लिखने वाले बुद्धिजीवीयों के लेख से पता चल ही जाएगा, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या बीजेपी की सरकार जो कथित तौर पर सवर्ण समर्थक पार्टी है आरक्षण का पिटारा खोलकर कहीं सवर्णों की नाराजगी तो नहीं मोल ले रही है।

मराठा, जाट और लिंगायत जैसे मजबूत समुदायों के आरक्षण की श्रेणी में आने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार की कई प्रमुख जातियां भी आरक्षण की लिस्ट में शामिल हो जाएंगी। इसको भांपते हुए पिछड़े वर्ग के तीन बड़े नेताओँ ने एक सुर में पिछड़े वर्ग की जनगणना की मांग पुरजोर तरीके से उठा दी है। यानी पहले से आरक्षण का लाभ ले रही जातियों को पिछड़ा वर्ग के खांचे में बदलाव का डर है क्‍योंकि यह राजनीतिक तौर पर उन जातियों के वर्चस्‍व को खत्म कर सकता है।

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दूसरा सवाल, क्या केन्द्र की मोदी सरकार आरक्षण संशोधन के बहाने क्रीमी लेयर की बहस को बढाने की कोशिश में है? चूंकि इसके तहत आरक्षण की पूरी व्यवस्था ही सामाजिक पिछड़ेपन के पैमाने से हटकर आर्थिक आधार पर हो जाएगी! यदि ऐसा है, तो ये बहुत सोची-समझी दूरगामी रणनीति है जिसके तात्कालिक खतरे भी हैं। बीजेपी से सवर्ण नाराज हो सकता है, लेकिन आरक्षण की लिस्ट में आने वाली जातियां खुश ही होंगी।

इस मामले को समझने के लिए हमें इतिहास को पलटना होगा। आजादी के बाद भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान और उन वर्गों के सशक्तिकरण का विचार करना शुरू किया। 29 जनवरी 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में 11 सदस्यों वाले पहले पिछड़ा आयोग का गठन किया गया। दो साल में रिपोर्ट बनकर तैयार हो गयी। आयोग ने 2,399 पिछड़ी जातियों की सूची बनायी जिनमें 837 जातियां अतिपिछड़ी थीं। आयोग ने परंपरागत पेशागत, सामाजिक और शैक्षिक आधार पर पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए चार मानक बनाए और जातिवार जनगणना की सिफारिश की, सभी महिलाओं को पिछड़ी श्रेणी में रखने को कहा, पिछड़े वर्गों के योग्य छात्रों के लिए ‘टेक्निकल’ एवं ‘प्रोफेशनल’ संस्थाओं में 70 प्रतिशत आरक्षण, सरकारी एवं स्थानीय निकायों की नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए श्रेणी ‘एक’ में 25 प्रतिशत, श्रेणी ‘दो’ में 33 प्रतिशत एवं श्रेणी ‘तीन’ व ‘चार’ में 40 प्रतिशत आरक्षण देना की भी सिफारिश की। तत्‍कालीन सरकार ने कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसने पिछड़ों की पहचान के लिए कोई वस्‍तुपरक मानक नहीं बनाया था।

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व्‍यवहार में देखें, तो मोदी सरकार ने दरअसल काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को ही लागू करने की दिशा में ही एक चाल चली है, जिसके तहत पिछड़ी जातियों की सूची राज्य सरकार बनाएगी। कालेलकर आयोग की सिफारिश के तहत जातिगत जनगणना होती है तो महिलाओँ को भी पिछड़ा वर्ग में रखना होगा। ऐसे में बीजेपी ने बड़ा दांव खेला है और मंडल आयोग की सिफारिशों का तोड़ तैयार कर लिया है।

अब आइए मंडल आयोग पर, जिसका गठन 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने जातीय असमानताओं को निर्धारित करने और कमजोर वर्गों के विकास के लिए किया था। 1 जनवरी 1979 को राष्ट्रपति द्वारा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बीपी मण्डल की अध्यक्षता में गठित इस आयोग में सदस्य थे एलआर नायक, दीवान मोहन लाल, न्यायमूर्ति आर.एस.भोला और के. सुब्रह्मण्यम, ये सभी लोग अध्यक्ष सहित पिछड़ी जातियों के थे। मंडल आयोग ने 1980 में जब अपनी रिपोर्ट सौंपी तो इसमें 12 सिफारिशें थीं। एक सिफारिश थी कि नौकरियों में आरक्षण दिया जाय, लेकिन बाक़ी 11 सिफारिशें भूमि सुधार, शिक्षा व्यवस्था में बदलाव और प्रशासनिक ढांचे में विकास को लेकर था। कालेलकर आयोग की तरह मंडल आयोग की सिफारिशें भी ठंडी पड़ी रहीं। उसमें गरमी तभी आयी जब देश की राजनीति गठबंधन के भरोसे आ गयी।

6 अगस्त 1990 तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने कैबिनेट की एक बैठक बुलायी जिसमें रामविलास पासवान, शरद यादव, मुफ्ती मोहम्मद सईद, सचिवालय के अधिकारी बीजी देशमुख और विनोद पांडे भी थे। चौधरी अजीत सिंह ने कहा कि अगर आप आरक्षण लागू करना चाहते हैं तो जाटों को भी दे दीजिए। मंडल आयोग की रिपोर्ट में बुनियादी बदलाव की सिफारिश थी, लेकिन उसमें से सिर्फ एक सिफारिश को लागू कर दिया गया जिसके बाद राजनीति का मंडलीकरण हो गया।

घोर आश्चर्य की बात ये है कि 1955 से 1990 तक का शीर्ष राजनीतिक वर्ग जो ओबीसी को आरक्षण देने के विरोध में था, वही आज सर्वसम्मति से आरक्षण बिल में संशोधन को पारित करता है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जो आरक्षण के प्रबल विरोधी रहे उनका दल आरक्षण की थ्योरी पर सबसे ज्यादा मात खाया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से आरक्षण को लेकर चुनावी समीकरण सजाया है उससे लगता है कि यह राजनीति के मंडलीकरण का आखिरी दौर है।

महाराष्ट्र का उदाहरण ही लें। वहां 2001 के राज्य आरक्षण अधिनियम के बाद कुल आरक्षण 52% था। इसमें ओबीसी के लिए 19 फीसदी, अनुसूचित जाति के लिए 13 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के लिए 7 फीसदी, स्पेशल बैकवर्ड कास्ट के लिए 13 फीसदी रिजर्वेशन शामिल था। 12-13% मराठा कोटा के साथ राज्य में कुल रिजर्वेशन 64-65% हो जाएगा। केंद्र द्वारा 2019 में घोषित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग  के लिए 10% कोटा लागू होने के बाद रिजर्वेशन 75 फीसदी के आसपास पहुंचता है।

जाहिर तौर इस आंकड़े के बाद आरक्षण में क्रीमी लेयर कौन है इसकी बहस भी उठेगी ही, और यदि जातिगत जनगणना के साथ आर्थिक आधार पर आंकड़े इकट्ठा होने शुरू हुए तो फिर आरक्षण की फेहरिस्‍त में जाति का नाम तो होगा, लेकिन आय प्रमाणपत्र उक्‍त जाति को आरक्षण के दायरे से बाहर कर देगा।



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