दक्षिणावर्त: इंसाफ की डगर पर ‘पहचान’ की पूंजी और ‘लिन्चिंग’ का खाता


बीते दिनों दो ख़बरें सुर्खियों में रहीं। पहला, देश के नौ राज्यों में हिंदू ‘अल्पसंख्यक’ हैं और सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है। दूसरी ख़बर दिल्ली के मंगोलपुरी में रिंकू शर्मा नाम के एक युवक की हत्या की थी, जो बजरंग-दल से जुड़ा था। हमेशा की तरह समाज के कथित उग्र हिंदूवादी समूह ने इस हत्याकांड की निंदा करते हुए पुलिस, प्रशासन को कठघरे में खड़ा किया और इसे ‘लिंचिंग’ करार दिया। दूसरी ओर समाज के कथित बौद्धिक समूह में सन्नाटा छाया रहा, कुछेक आवाजें जो आयीं उन्‍होंने पुलिस के बयान को प्रमुखता से सामने रखा जिसमें हत्‍या की वजह आपसी झगड़ा बताया गया था।

पुलिस ने अपनी रिपोर्ट काफी जल्द पेश करते हुए इसे जन्मदिन की पार्टी में हुए झगड़े का विस्तार बताया और किसी भी कम्युनल ऐंगल से इंकार कर दिया, हालांकि जिस ढाबे की बात हो रही है उसके मालिक ने बाद में यह बयान दे डाला कि वहां झगड़ा नहीं हुआ था। फिलहाल, मामला उलझा हुआ है और पुलिस की तफ्तीश जारी है।

एक सुधी पाठक यह प्रश्न पूछ सकता है कि मरने वाले का नाम अगर हामिद होता और हत्यारे अगर रिंकू, संदीप, महेश और दिनेश होते तो हमारे समाज की प्रतिक्रिया इस पर क्‍या होती? काल्‍पनिक सवाल पूछने के बजाय और कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ने के बजाय यह काम कायदे से पुलिस और प्रशासन पर छोड़ दिया जाना चाहिए, लेकिन इसमें कुछ पेंच हैं जिन पर बात करना जरूरी है।

पेंच यह है कि जुनैद की मौत भी सीट के झगड़े से शुरू हुई थी, लेकिन उसे ‘लिंचिंग’ कहा गया। झारखंड में तबरेज अंसारी नाम के साइकिल चोर की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी, लेकिन उसे भी ‘लिंचिंग’ कहा गया। हाल ही में बेहद पॉपुलर एक सीरियल में भी इस दृश्य को रिक्रिएट किया गया था। यह सूची बेहद लंबी है। जयपुर से लेकर मालदा और कैराना से लेकर टोंक तक, जहां कहीं भी किसी भी वजह से अगर कोई अल्‍पसंख्‍यक भीड़ के हाथों मारा गया है, तो उसे ‘लिंचिंग’ कहा गया है। यह शब्‍द भीड़ के हाथों मारे गए किसी बहुसंख्‍यक हिंदू पर लागू नहीं किया गया, चाहे वह मथुरा हो या दिल्‍ली, लेकिन एकतरफा खाते के हिसाब से देश को ‘लिंचिस्‍तान’ ज़रूर बतला दिया गया।

अगर पुलिस का आधिकारिक बयान दिल्‍ली में सही माना जाना है तो फिर बाकी जगह भी उसका मान रखा जाना था। अगर नहीं, तो फिर दिल्‍ली में भी झगड़े वाली थ्‍योरी का कोई अर्थ नहीं है। क्‍या पुलिस की तफ़्तीश और बयान कोई सुविधा है? जिसे जब चाहे सामने रख दें और जब चाहे गलत करार दें? क्या इंसाफ की राह में धार्मिक पहचान एक पूंजी है और ‘लिंचिंग’ कोई खाता, जिसमें मारे गए आदमी को उसकी पहचान के हिसाब से जमा किया जाता हो?

हत्या का मतलब केवल हत्या है। चाहे वह किसी की भी हो, हत्‍या जायज़ नहीं है। उसके नतीजे पुलिस-प्रशासन को ही निकालने देने चाहिए, लेकिन… यही ‘लेकिन’ बहुत बड़ा है।

न्याय की तुला को जिस सुविधाजनक तरीके से धार्मिक पहचान के इर्द-गिर्द इस देश में कसा गया है, एकतरफा झुकाया गया है, उसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब इस देश में वस्‍तुपरकता, बौद्धिकता, धर्मनिरपेक्षता और यहां तक कि हिंदुत्‍व शब्द मात्र उपहास, अपमान और यहां तक कि घृणा का बायस बन चुके हैं। कठुआ का कांड याद ही होगा आपको? पूरे देश में यह माहौल बना दिया गया कि मंदिरों में केवल बलात्कार होते हैं, त्रिशूलों से हत्या होती है और पुजारी या साधु का मतलब ही गुंडा या मवाली होता है। जब पालघर में साधु मारे गए तो विमर्श पलटा नहीं, वहीं कायम रहा।

ज़रा सोचकर देखिए कि आज हालात इतने विभाजनकारी कैसे हो गए हैं। यह एक दिन में तो नहीं ही हुआ है न। आज एक सामान्य हिंदू पहले से अधिक कट्टर हो गया है। फर्क इतना है कि यह घर्षण हमें अब साफ़ दिखाई दे रहा है क्‍योंकि ‘फ्रिंज’ अब मुख्यधारा बन चुका है। किसी भी हत्या को धर्म और जाति से जोड़ देने की आदत भस्मासुर पैदा करेगी ही, काश यह बात भारत में रायशुमारी करने वाला वर्ग समझ सकता।

भारत का बौद्धिक तबका अक्सर एक शब्द का इस्तेमाल करता है ‘इस्लामोफोबिया’। इस्लामोफोबिया का अर्थ क्या है? शाब्दिक अर्थ देखें तो, इस्लाम के नाम पर पैदा होने वाला निरर्थक भय। फोबिया का मतलब बेबुनियाद डर ही तो होता है। यह सबसे बड़े फसाद की जड़ है। संदर्भ के लिए 1986 में दिल्ली हाईकोर्ट का एक फैसला देखना मुफीद होगा। न्‍यायमूर्ति जेड.एच. लोहाट ने इंद्रसेन-राजकुमार द्वारा कुरानी आयतों का पोस्टर छापने पर एक फैसला दिया था, जिस पर शायद ही कभी चर्चा होती हो। इस फैसले में कुरान की 24 आयतों को विभेदकारी बताया गया था। ‘कलकत्‍ता कुरान पेटिशन’ के नाम से अभी भी आप गूगल करेंगे तो कुछ आर्टिकल दिखेंगे, बाकी सब कुछ गायब है।

एक और बौद्धिक प्रपंच है- ‘ऐसा कुरान में नहीं है, तुमने सही नहीं पढ़ा है, इसका असल मतलब कुछ औऱ है, असल कुरान कुछ और कहता है’। ठीक है, चलिए मान ली आपकी बात। तो असल कुरान पर चर्चा कीजिए न। आप तो कुरान का नाम सुनकर ही भड़क उठते हैं।

वेदों, स्मृतियों, पुराणों तक पर चर्चा हुई। भारत से लेकर जर्मनी और इटली तक हिंदू ग्रंथों पर जाने कितना काम हुआ। पूरी इंडोलॉजी इसी पर आधारित है। आधुनिक राष्‍ट्र-राज्‍य बना तो हिंदुओं के पर्सनल लॉ को हटाकर भारतीय संविधान के मुताबिक कानूनों को बनाया गया। मुसलमानों को डरा कर, उनका भावनात्मक शोषण कर, अब तक उन्हें यूनिफॉर्म सिविल कोड से वंचित क्यों रखा जा रहा है? यह कौन सी जिद है कि फौजदारी के मामलों में तो देश के संविधान के मुताबिक चलेंगे, लेकिन दीवानी मुकदमे तो जी शरिया के मुताबिक ही चलेंगे? यह 2021 है, बहुतेरी बातें कालबाह्य हो सकती हैं, हो चुकी हैं, आप उन पर चर्चा मात्र से घबराते हैं जबकि आप कथित तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष देश हैं!

पूरी दुनिया में इस्लाम को लेकर इस कदर खौफ और परेशानी क्यों है,  कभी समस्या की जड़, उसके मूल पर तो विचार होगा या हम उन नेताओं और बुद्धिजीवियों की ही बोली बोलते रहेंगे, जिन्होंने हमेशा एक कौम के तौर पर मुसलमानों को डराया, बहकाया और उनका शोषण किया। हम तो सरमद से लेकर आरिफ मुहम्मद खान तक जिसने भी आईना दिखाने की कोशिश की,  उसी पर चढ़ बैठे और उसके बाद इस्लामोफोबिया का कार्ड भी खेल दिया।

आज यह सब बातें गौर करने का दिन इसलिए है क्योंकि आहत हिंदुओं की सूची में एक और नाम जुड़ गया है। कमलेश तिवारी, अंकित शर्मा से लेकर डॉक्‍टर नारंग और रिंकू तक, दर्जनों नाम आज सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं। भारत में आज तक शांति इसलिए रही है क्योंकि बहुसंख्यकों ने हमेशा मुसलमानों का एहतराम किया है, यहां तक कि विभाजन की विभीषिका के बाद भी बहुसंख्यकों ने कभी उनके अधिकारों पर अतिक्रमण करने की इच्छा तक नहीं जतायी। मुसलमानों की फराखदिली इसी में है कि वे अपने समाज को खोलें, खुद उसमें मौजूद कट्टरता को खारिज करें।

देश सिविल वॉर की तरफ पहले ही बढ़ चुका है। अगर अब भी पहचान और उससे जुड़े सुविधाजनक इंसाफ़ के सवाल पर आत्‍ममंथन नहीं किया गया, तो यह मुल्‍क वास्‍तव में ‘लिंचिस्‍तान’ बन जाएगा। दोनों तरफ अपनी-अपनी ‘लिंच लिस्‍ट’ लिए भीड़ होगी और बीच की बची-खुची जगह खत्‍म हो जाएगी जहां खड़े होकर कोई कह सके कि हत्‍या, केवल हत्‍या होती है।


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