दक्षिणावर्त: उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़र्द था…


ग्रेग्रेरियन कैलेंडर के नये साल की पहली तारीख को जिस अपार्टमेंट में मैं बैठा हूं, उसके ठीक सामने एक ऊंची जगह है। पठारनुमा। थोड़ा-बहुत जंगल है वहां। उसकी काली ज़मीन कहीं-कहीं झाड़ियों के जलाने से और भी काली हो गयी है। बरसात में यह जगह खूबसूरत हो जाती होगी। अभी चौतरफा निर्माण कार्य चल रहा है। धूल उड़ती है, नवें माले पर भी। शोरगुल नहीं है, पर यह जगह उदास सी लगती है।

मुंबई- मायानगरी, फंतासी, रचना, यथार्थ और संत्रास की सबसे कठोर ज़मीन। नवी मुंबई का इलाका खारघर। भीड़ कम है, अपार्टमेंट्स अधिक। लोग कम हैं, सोसायटियां अधिक। ऐसे ही अपार्टमेंट्स से वे ख़बरें छन कर आती हैं, जहां कोई लाश जब बदबू फैलाती है तो पुलिस उसे बरामद करती है। किसी अख़बार की बोसीदा ख़बर बनकर वह हम तक बयां होती है। मैं हैरानी में हूं कि सोसायटी(?) वालों ने अब तक भैया को वहां रहने कैसे दिया है। उनके तो दोनों बच्चे खूब जीवंत हैं, खूब झगड़ते हैं, खुश रहते हैं, हल्ला करते हैं। सोसायटी में जिसे शोर कहा जाता है।

कल ऐसे ही एक मित्र के यहां चला गया। वह जिस जगह रहते हैं, वह पूरा शहर है- पलावा सिटी। एक भरा-पूरा शहर पहले राजा-महाराजा बसाते थे, ऐसा किस्से-कहानियों में सुना करता था। आज अपनी आंखों से बिल्डर का बसाया शहर देख भी लिया।

वह दोस्त बहुत संघर्ष के बाद एक स्थिर और सफल जीवन जी रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक दोनों तरह से। मेरे आने पर उसी तरह खुश होते हैं, जैसे इंद्र को लोमष ऋषि मिले हैं। आगे बढ़ने से पहले यह कथा सुन लीजिए। भारतीय आख्यानों में एक ऋषि हुए हैं, लोमष। बेहद प्रतिभाशाली, विद्वान और तपस्वी। वह किसी आयोजन में इंद्र के यहां गए थे। अब इंद्र तो ठहरे स्वभाव से लाचार। लोमष ऋषि जैसे ही उनके हाथ लगे, तो कहां चूकते? लगे बढ़-चढ़कर अपना ऐश्वर्य दिखाने और बखानने- ये देखिए, ये प्रस्तर की मूर्ति, जिसमें माणिक्य लगे हुए हैं, खुद कुबेर ने दिया था। यह रत्न भांडार देखिए, इसे विश्वकर्मा ने भेजा था। वगैरह, वगैरह…

लोमष यह वृत्तांत सुनते और मुस्कुराते। साथ ही अपनी छाती पर उस जगह हाथ फेरते, जहां अठन्नी के बराबर जगह पर उनकी छाती के लोम (रोम या रोआं) झड़े हुए थे, जबकि उनका नाम ही लोमष यानी रोओं वाला प्रसिद्ध था। इंद्र दिखाते रहे, लोमष उचक-उचक कर देखते रहे, मुस्कान उनकी अट्टहास में बदलती गयी और छाती के उस खाली स्थान पर हाथ फिराने की गति भी बढ़ती गयी। यहां तक, कि झल्लाकर इंद्र ने पूछ ही लिया, ‘ऋषिवर, क्या बात है, क्यों आप इस तरह से कर रहे हैं?’

लोमष ने मुस्कुराकर कहा, ‘इंद्र। असल में जब एक इंद्र पतित होता है तो मेरी छाती का एक बाल गिरता है, ये इतनी जगह जो है, वह देखकर अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा हूं कि तेरा क्रमांक कौन सा है?’

कथा है, लेकिन जैसा कि भारतीय आख्यानों के साथ है, काफी गूढ़ार्थ समेटे है। मित्र पलावा सिटी में मुझे घुमाते रहे, दिखाते रहे। एक भरा-पूरा शहर है, जिसके अंदर बस-स्टैंड, स्वीमिंग पूल, मॉल, स्कूल, टेनिस के कोर्ट्स, बार, क्लब सब कुछ मौजूद है। मतलब, व्यक्ति अगर चाहे तो उस जगह अपनी पूरी जिंदगी गुज़ार दे। मित्र अपनी स्पोर्ट्स कार में घुमाते हुए यह बात खांटी भोजपुरी में समझा भी रहे थे, ‘यार, अपन तो ठहरे गंवार आदमी। बहुत कुछ नहीं समझ में आता है, लेकिन यह तो तय है कि बुढ़ापा आराम से गुज़र जाएगा। हम लोगों के जमाने में यार कहां ये सब था, वैसे ही गिल्ली-डंडा पर जमाना गुजर गया। ये देखो, यहां लेक है, अभी जलकुंभी है लेकिन हट जाएगी, फिर अब तो दो साल में मेट्रो भी यहां से शुरू हो जाएगी। बहुत आराम रहेगा।’

वह सचमुच एक शहर ही था और मित्र जिस तरह से उसका बखान कर रहे थे, मुझे घुमा रहे थे, वह देखकर मुझे मनुष्य की जिजीविषा (या मूर्खता) पर रश्क हो रहा था। वे कोरोना को भुगतने के बाद बुढ़ापे की प्लानिंग कर रहे थे। अभी तक कोरोना के जाने-न जाने के बीच गोआ में लोग नया साल मनाने इतनी भीड़ में जमा हो गए थे कि सारे नियम-कानून तेल लेने चले गए थे।

था जिंदगी में मर्ग का, खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़र्द था।

खारघर लौटा तो समंदर की याद सता रही थी। समंदर यहां नहीं है। यहां से कहीं निकलना भी मुश्किल है, क्योंकि मुंबई की लाइफलाइन लोकल थोड़ी रेस्ट्रिक्टेड है। एक गुरुद्वारा था, वहीं चला गया। बाहर सब कुछ हस्बे-मामूल ही था। बस अंग्रेजी में लिखा था, ‘किसानों को बचाओ। किसान नहीं, अन्न नहीं।’

गेट पर खड़ा होकर मैं उधेड़बुन में ही था कि रूमाल तो है नहीं, अंदर कैसे जाऊंगा। तब तक वहीं खड़े सरदारजी ने मराठी मिश्रित हिंदी में कहा कि अंदर तो आओ, सिर ढंकने के लिए तो कपड़ा है ही। नज़र गयी, तो एक कठौते में लोगों के उतारे हुए पग्गनुमा कपड़े रखे थे। सरदारजी का इशारा उनकी ही तरफ था। कोरोना के डर को ठिकाने लगाते हुए उन्हीं में से एक को धारण कर लोग अंदर दरशन और शबद-कीर्तन सुनने जा रहे थे।

शाम का सूरज अपनी ओर ढल रहा था। घर पहुंचने और खाना खाकर अलस मुद्रा में बतियाने तक लगभग 12 बज चुके थे।

भाई साब ने कहा, ‘हाह…इस बार तो यार लग ही नहीं रहा कि मुंबई में हैं, वरना सब पागलों की तरह रात के 12 बजे गेटवे ऑफ इंडिया पर हल्ला करने पहुंच जाता। कोरोना ने सबकी हवा टाइट कर रखी है।’

मैंने उनको जवाब देने का मन में सोचा, ‘ऐसा नहीं है। रोहतांग के अटल सेतु से लेकर गोआ के बीच और नोएडा के पब तक, पागलों की कमी नहीं है, लोगों ने नो कोरोना नो कर दिया है।’

तब तक, 12 के बज़र के साथ ही एक के बाद एक दो धमाकों की आवाज हुई। मैं भाई साब को देखकर मुस्कुरा दिया।  


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