ये ठीक है या नहीं, लेकिन अफगानिस्तान में अंतत: सरकार का बन जाना हिंदुस्तान के लोगों की इंद्रियों के लिए राहत की खबर है। उस सरकार को मान्यता भी कई देशों की सरकारों ने दे दी है। जो नहीं दे पाये वे बिलेटेड कहकर दे सकते हैं। दरवाजे अब भी खुले हुए हैं। उम्मीद है कि जल्द ही हमारा मीडिया भी मान्यता दे देगा। एक बार अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को मान्यता देने के बाद मीडिया कुछ अन्य ज़रूरी गैर-ज़रूरी मुद्दों पर बात करना शुरू करेगा। इससे हालांकि तालिबान को रणनीतिक नुकसान हो सकता है क्योंकि खुद अपने अगले कदम के बारे में मालूमात करने के लिए किन्हीं अन्य भरोसेमंद स्रोतों की तलाश उसे करना होगी।
अब तक जो खबरें आ रही हैं उनसे लग रहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान एक समावेशी सरकार बनाने की पहल करेगा। शुरूआत मोस्ट वांटेड व्यक्ति को देश का गृहमंत्री बनाने से हो चुकी है। यहां भी अफगानिस्तान में ‘विकास’ करने की धमकियां दी जा रही हैं। संभव है आने वाले वर्षों में यह उसी तरह प्रगति के नये-नये आयामों को स्पर्श करे जैसा बहुधा प्रगतिशील देशों में संभव हुआ जा रहा है। महंगाई जैसी तुच्छ और संकीर्ण भावनाओं और अहसासों को राष्ट्र सर्वोपरि की उच्च कोटि की बलिदानी भावनाओं से अदला-बदली कर दी जाय। शिक्षा को लेकर नये प्रतिमान तय कर ही दिए हैं कि ज़रूरी नहीं कि ऊंचे पदों पर पहुंचने के लिए शिक्षा की ऊंची-ऊंची डिग्रियां ही हों। आज जो सरकार में हैं उनके पास कौन सी बड़ी बड़ी डिग्रियां हैं। बात सही भी है। हार्डवर्क को कहीं हारवर्ड मात दे सका है? यानी कुछ- कुछ उसी रास्ते पर हम इस नयी-नवेली सरकार को चलते हुए देख रहे हैं जिसके हम अभ्यस्त हो चले हैं।
लेकिन आज चिंता का सबब कुछ और है। जब हमारे मीडिया में तालिबान नहीं होगा तब क्या हो सकता है? जैसे-तैसे पूरा अगस्त और शुरू सितंबर तालिबान ने पार कराये हैं। अब कम से कम इतना धारदार और सार्वजनिक जीवन से जुड़ा कोई मुद्दा होना चाहिए जिसे मीडिया में सर्वाधिक जगह नसीब हो सके, हालांकि ऐसा कोई मन्तव्य नहीं आया है कि मीडिया को मुद्दों की ज़रूरत है, दानिशमंद लोग सहयोग करें या मार्गदर्शन करें लेकिन जैसा कि हमारे देश के नामी न्यायाधीश ने कहा है कि बुद्धिजीवियों को ज़िम्मेदारी निभाना चाहिए, तो हमें आगे बढ़कर यह काम अपने हाथों में लेना चाहिए। आप पूछ सकते हैं कि क्या देश के नामी न्यायाधीश हमें बुद्धिजीवी मानते हैं? इसका जवाब देना तो मुश्किल है क्योंकि उन्होंने महज एक कथन कहा है। उसके बारे में विस्तार से कुछ नहीं बतलाया। बुद्धिजीवी अगर खुद मशविरा दें, आलोचना करें, तो इसका मतलब प्रकारांतर से यह भी तो हो ही सकता है कि जो सलाह दे या आलोचना करे वो बुद्धिजीवी होने की हैसियत पा सकता है। मामला हमारे आपके हाथों में है। इसे अपने हाथों में ले लीजिए।
इसके लिए बहुत दूर नहीं जाना है। अगर ऐसी कोई युक्ति निकाल सकें कि दो दिन पीछे जा सकें तो लखनऊ में आयोजित बहुजन समाज पार्टी के प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन में शिरकत कर आइए, जहां इसी तरह के पर्यायवाची का सार्वजनिक रूप से निर्माण हुआ है। पहले यह सम्मेलन ब्राह्मण सम्मेलन था, उसे कुछ रोज़ पहले प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कह दिया गया। इसका तात्पर्य यही हुआ कि जो बौद्धिक हैं वो ब्राह्मण हैं और इसके उलट व समानान्तर- जो ब्राह्मण हैं वो बौद्धिक हैं। इसी तर्ज पर जो आलोचना करें, सलाह दें, वो बुद्धिजीवी हैं। जो बुद्धिजीवी हैं वो सलाह दें और आलोचना करें!
कोई कह सकता है कि हमारे न्यायाधीश ने मीडिया को सलाह देने या आलोचना करने के लिए नहीं उकसाया है, बल्कि यह बात उन्होंने सरकार के काम-काज को लेकर कही है। तो यहां भी आप तर्क का सतर्क जाल बुन सकते हैं कि क्या मीडिया और सरकार अब एकमेक नहीं हैं? क्या दोनों एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं? अब आपको सुविधा ये होगी कि आप मीडिया को सलाह दें, उसकी आलोचना करें, तो आपके इस कृत्य को सरकार को सलाह देने और उसकी ही आलोचना के समतुल्य मान लिया जाएगा। ये महज पर्यायवाची नहीं हैं बल्कि शक्लोसूरत और सीरत में भी एक जैसे हैं। आपकी हमारी बात न तो मीडिया सुनता है और न ही सरकार। ऐसे में हमें खुद को बार-बार स्मरण दिलाते रहना चाहिए कि न्यायाधीश महोदय ने बुद्धिजीवियों पर यह शर्त आरोपित नहीं की है कि आपकी सलाह या आलोचना को तभी कार्य माना जाएगा जब वे इस कार्य पर कान दें। याद रखिए, हम यहां न्यायशास्त्र की शब्दावली में सोचने का दुसाध्य काम कर रहे हैं न कि भौतिकशास्त्र की शब्दावली में, जहां कार्य होना तभी माना जाएगा जब किसी वस्तु पर बल का आरोपण हो और वह वस्तु अपने स्थान से कम-ज़्यादा विस्थापित भी हो। अगर बल आरोपित किया लेकिन वस्तु विस्थापित नहीं हुआ तो भौतिक विज्ञान बहुत निष्ठुरता से इसे कार्य का न होना बतला देगा। न्यायशास्त्र में ऐसा नहीं है।
यह निष्काम कर्म जैसा मामला है। परिणाम आए न आए आप अपने काम में मशगूल रहिए। मौजूदा निज़ाम के मद्देनजर न्यायशास्त्र के पंडितों को कुछ संशोधन करना चाहिए। मसलन, अगर आपने खुद के बुद्धिजीवी होने के कर्तव्य का निर्वहन किया और इस कर्तव्य के वशीभूत आपने सरकार की आलोचना की और सरकार ने आपकी आलोचना को गंभीरता से ले लिया; उससे भी ज़्यादा सरकार के अंगरक्षकों मसलन पार्टी की आइटी सेल, व्हाट्सएप पर विचरण करते आपके मित्र-यार, रिश्तेदार या किसी लोकतांत्रिक संस्थान या प्रतिष्ठान ने उसे गंभीरता से ले लिया; और आपके खिलाफ किसी सुदूर इलाके में प्रकरण पंजीबद्ध करवा दिया तो इसे कार्य का सम्पन्न होना माना जाय। यह पंजीबद्ध प्रकरण ही कार्य-सम्पन्न होने का प्रमाण पत्र माना जाय।
ज़िम्मेदारी निभाने के कुछ स्पर्शी यानी टेंजिबल परिणाम यानी आउटकम हासिल किये बिना महज कार्य करने की प्रक्रिया को पासिंग मार्क्स माने जाने की प्रवृत्ति पर इस बदले हुए निज़ाम में रोक लगाना चाहिए और यह पहल स्वयं न्यायाधीश महोदय को करनी चाहिए। खैर…
देखा जाय तो मीडिया के पास मुद्दों की कमी नहीं है। दुनिया का दूसरा बड़ा देश है हमारा आबादी के लिहाज से, फिर आस-पड़ोस भी अच्छा खासा समृद्ध है लेकिन अचानक से अफगान में घटनाक्रम के थम जाने और दुनिया के देशों द्वारा उस थम जाने का इस्तकबाल कर देने से मीडिया स्तब्ध महसूस कर रहा है। किसान हैं लेकिन अब वे किसी कम के नहीं रहे। आंदोलन है कि उसमें कुछ नया एडवेंचर पैदा नहीं हो रहा है। हो भी रहा है तो ग्राउंड से मनमर्जी रिपोर्टिंग करने नहीं दी जा रही है। और तो और किसानों की तरफ से आए लोग घंटे दर घंटे पर प्रसारित डिबेट्स में कुछ भी बोल जा रहे हैं। उनसे वह बुलवाया ही नहीं जा पा रहा है जो मीडिया के हिसाब से देश की जनता सुनना चाहती है। अजीब सा खालीपन है।
नेहरू, गांधी को पर्याप्त कोसे जाने के बाद अब उनकी रूहों ने भी स्टूडियो आना छोड़ दिया है। ऐसे में बचता क्या है? बेरोजगारी, महंगाई, गरीबी, नफरत, उन्माद, कानून-व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, कोरोना, शिक्षा, स्वास्थ्य, युवा, खेल और सिनेमा जैसे निचोड़े जा चुके नींबूनुमा मामले! इनमें कुछ बचा नहीं है। महंगाई हर युग में बढ़ी हुई ही बतलायी गयी है, तो आप क्या नया कह देंगे उसके बारे में? बेरोजगारी कब नहीं रही? दर बदलती रही है तो ऐसे तो हमारी आपकी पल्स की दर भी कहां स्थिर रहती है? तो क्या बदलती पल्स की दर को ही मुद्दा बना दें? गरीबी एक अवस्था है, जब तक है तब तक है। जब बदल जाएगी तब बदल जाएगी। इसे मुद्दा बनाने से क्या अवस्था में बदलाव हो जाएगा? नफरत और उन्माद अब पर्याप्त फाइल चुका है, इससे ज़्यादा करेंगे तो सरकार इस मीडिया को डिसओन कर देगी। पांचजन्य को कौन नहीं जानता कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुखपत्र है, लेकिन जब एक बात पर्याप्त हो जाए तो उसे डिसओन करना पड़ा। इसी प्रकार सब ऐसी बातें और मुद्दे हैं जिन्हें लेकर दिन सप्ताह, महीने नहीं बिताये जा सकते।
आप समझ रहे हैं न? कुछ नया लाइए। मीडिया को बताइए। अपना फर्ज़ निभाइए।