शोला बनती है न बुझ के धुआं होती है!


प्रेम भारद्वाज 


हमारे समय के तमाम लिक्‍खाड़ों के बीच प्रेम भारद्वाज चुपके से अपना काम कर रहे हैं। एक अदद साहित्‍य पत्रिका ‘पाखी’ का संपादन करते हुए यूं तो उन्‍होंने कई प्रिय-अप्रिय बातें लिखी और प्रकाशित की हैं, लेकिन मौजूदा अंक का यह संपादकीय हमारी खुरदुरी और नुकीली हो चुकी चेतना को झकझोर कर रख देता है। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि शायद इतना सुंदर और संवेदना से भरा गद्य हमारे समय में दुर्लभ है। हम इसे ‘पाखी’ पत्रिका के ब्‍लॉग से साभार उठाकर यहां जस का तस चिपका रहे हैं।  (मॉडरेटर)  


इस तेजाबी वक्त में कोई गल रहा है, कोई गला रहा है। तेजाब किसने, किस पर फेंका? इन सवालों के बरअक्स बड़ा सवाल यह है कि कहीं तेजाब हमारे भीतर तो नहीं। समाज के रक्त और मांस में कोशिकाओं की तरह, और अस्थियों में मज्जा की मानिंद। कभी सोचकर देखिए कि हम इंसान हैं या तेजाब की भरी बोतल

नैतिकता का कफन कई लाशों से सरक गया जो एक ही कतार में रखी गई थीं। किसी श्मशान में नहीं, शहर के बीचों-बीच चौराहे पर। हमारी आंखों में और हमारी रूह के भीतर। लाशें भी कैसी– पवित्र धर्म की, मिशनरी पत्रकारिता, विक्रमादित्य की विरासत को ढोने वाली न्यायपालिका और ममतामयी परिवार की। इसमें एक कॉमरेड की खुदकुशी को भी जोड़ा जा सकता है। इसे विडंबना मानकर मसले को कमतर नहीं किया जाना चाहिए कि इन सबके केंद्र में सेक्स है। यह एक बेहद डरावना समय है जो किसी चमगादड़ की तरह हमारे भीतर उल्टा लटका हुआ है जिसे समझने के लिए कबीर की उलटबांसियां भी नाकाफी हैं। समाज के सीने में सूराख करता सेक्स। उस सूराख में चीखती स्त्री। एक ऐसे समय में जब सच्चाई का लहू पीती सत्ता भोग का पर्याय हो गई थी और अंधेरा गहराने लगा था तब अरविंद केजरीवाल ने उम्मीद का एक चिराग रोशन कर दिया। बेशक इसकी उम्र को लेकर कुछ भी तयशुदा ढंग से नहीं कहा जा सकता। मगर उम्मीद एक जिंदा शब्द है। 

कायदे से मुझे इन्हीं सवालों से टकराते हुए अपनी बात को आगे बढ़ाना चाहिए। शायद वक्त का तकाजा भी यही है। मगर नहीं, मैं ऐसा कुछ नहीं करने जा रहा। जो तत्काल है वह ‘काल’ का एक अंश है। तत्काल से काल बड़ा है। …दरअसल मैं तमाम ध्वानियों के कोलाहल में एक खोई हुई ध्वानि को भी सुनता हूं जो एक आर्त्तनाद, एक मर्मांतक पुकार है। जब कहने को कुछ भी नहीं बचा है, देश की खुशबू तिरंगा गुटखा में महफूज है। सच्चाई पैराशूट नारियल तेल में छिप गई है और बुलंद भारत की तस्वीर कुछ साल पहले तक बजाज स्कूटर थी। फिर हीरो होंडा देश की धड़कन बनी। अब देश का भरोसा एमडीएच मसाले हैं। खबरों के जखीरे को देखते और सूचनाओं की बमबारी झेलते मैं ठिठककर खड़ा हो गया हूं, उस स्त्री के सामने जो अपने नथुनों में खुद के ही गोश्त के जलने की गंध हर पल महसूसने को अभिशप्त कर दी गई। मौत के इंतजार में जीने को मजबूर। अरे! आप उसका नाम पूछते हैं? साहेबान! बेइंतेहा दर्द का कोई नाम भी होता है क्या? 

वह राजकपूर की फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की बदशक्ल नायिका रूपा नहीं है, मगर न जाने क्यों उससे मिलकर इस फिल्म की नायिका और उसका दुःख याद आया। नाम नसरीन जहां, उम्र 35-40 के बीच। चेहरा… प्लीज उसके बारे में कुछ नहीं। औरत चेहरा नहीं, जिस्म होती है, दिल तो कतई नहीं। नसरीन नहीं जानती थी कि समय की सत्ता कमजोरों के खून से सनी होती हैं… कि अकेली औरत युद्ध में उजड़ चुकी औरत की तरह होती है जिसे हर कोई अपनी पूंजी समझता है, कि संसार के सबसे दुखद प्रत्यय का नाम है औरत… कि स्त्रियों के लिए सोच एक खास, फ्रेम में फिक्स है… समाज के साथ उसकी फिक्सिंग है। उस बदनसीब को क्या मालूम था कि औरतों का कोई देश नहीं होता… प्रेम की कोई बस्ती और मोहल्ला नहीं। वह घर भी नहीं जिसको वह अपने कंधों पर किसी पालकी या अर्थी की तरह ढोती है। जिस्म से चिपका वह मर्द भी नहीं जो इतने करीब होकर भी दिल के दुखने और उसके धड़कने के एहसास से दूर जिस्म की उन्मादी नदी में तैरने को ही प्यार की हद मान लेता है।

दुःख ब्यौरे में नहीं, वह दिल में चुभी किसी कील की तरह होता है। उसका दुःख आदिकाल से लेकर अब तक की औरत का है जो सृष्टि के अनादि क्षण के कंपन से शुरू होता है। अब आगे नसरीन की कहानी उसी की जुबानी। बस यह कहने को कहानी है बाकी यह क्या है, आप पढ़कर ही जान पाएंगे।

नसरीन नाम किसने रखा, ठीक से नहीं मालूम, मगर जब होश संभाला तो पाया कि लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। होश संभालने पर मैं इस हकीकत से वाकिफ हुई कि जो मेरे अब्बा-अम्मी हैं, उन्होंने मुझे जन्मा नहीं। जब तीन साल की थी तब मुझे गोद लिया गया। जिन्होंने गोद लिया वे कुरैशी हैं। जामा मस्जिद के पास की तंग गलियों के बाशिंदे। अब्बा प्यार करते थे, मगर अम्मी…। वे हर बात पर मारतीं… इसलिए कि वह अपने रिश्तेदारों में से किसी को गोद लेना चाहती थीं… अब्बा नहीं माने थे… अम्मी मेरे लंबे बालों की खींचकर मारतीं…। अंधेरे कमरे में बंद कर देतीं…मुझे मारने के लिए अलग-अलग साइज की छडि़यां थीं… गलती के हिसाब से छडि़यों का चुनाव होता, पिटाई के वास्ते। अम्मी के छूते ही मैं दहशत से भर जाती… हड्डियों को कंपा देने वाली सिहरन होती। थोड़ी बड़ी हुई तो पहला एहसास यह हुआ कि मुझ जैसे बदनसीबों के सितम भी उम्र के साथ बड़े हो जाते हैं। जब 12-13 साल की थी तब किसी न की गई गलती पर अम्मी ने मुझे नंगी कर घर से घंटा भर के लिए बाहर कर दिया था। 15-16 साल के होते ही शादी की बात होने लगी… मौसी के बेटे का रिश्ता आया जिसके साथ शादी करने से मैंने मना कर दिया। ऐसा करने के लिए मौसी के बेटे ने ही मुझसे कहा था। इससे नाराज होकर अम्मी ने बहुत मारा। दुःखी होकर मैंने खुदकुशी की कोशिश की, लेकिन खुदा के दरवाजे मेरे लिए बंद थे। सत्रह साल की उम्र में एक रंगाई-पुताई करने वाले आदमी के साथ मेरा निकाह कर दिया गया। 

शादी के बाद शौहर मेरे जिस्म का मालिक था… मालिक ने जिस्म को रौंदा। कोख में उसने बीज बोए। दो बेटियों की शक्ल में फसल भी काटी। औरत का अपना जिस्म, अपनी कोख, उससे जन्मने वाली औलाद अपनी कहां होती है। वह तो जमीन होती है– कभी उपजाऊ, कभी ऊसर, कभी लावारिस, कभी सरकारी। जमीन की खुद पर मिल्कियत कहां, वह हमेशा ही दूसरों के लिए खोदी जाती है, उस पर फसलें उगाईं और काटी जाती हैं, खरीदी और बेची जाती हैं। इस जमीन की अच्छी फसल बेटा माना जाता है, जो नगदी होता है। इस नगदी फसल की हसरत में शौहर ने बीज फिर बोया। मगर कुछ गड़बड़ी हो गई। मैं दर्द से सारी रात छटपटाती रही… वह बगल में लेटा मेरे दर्द को ड्रामेबाजी बता औरत को रुसवा करता रहा। अगले दिन खुद ही अस्पताल गई। अबोर्सन या मिसकैरिज हो गया था। मां के पास पहुंची। जवाब मिला, अब हम कुछ नहीं जानते, तुम जानो। मैं अब शौहर के पास लौटना नहीं चाहती थी। बेटियां भी उसी के पास थीं। एक पार्क की बेंच पर बैठी घंटों रोती रही। चुप कराने वाला कोई भी नहीं था। बहते आंसुओं के बीच संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए उस नर्क में नहीं लौटना है, वहां पल-पल मरने से बेहतर है खुद को खड़ा करने की कोशिश में मिट जाऊं।

एक कमरा लिया। वह बार-बार लौटने के लिए कहता रहा। मैंने मना कर दिया। अपने पैरों पर खड़े होने को शौहर ने मेरी गुस्ताखी समझा। उसने तलाक ले लिया। मुझे मेरी बेटियां भी छीन लीं। छह महीने बाद उसने फोन किया कि बेटियां याद कर रही हैं। मैं खुद भी बेटियों से मिलना चाहती थी। हम दिल्ली के इंद्रप्रस्थ पार्क में मिले। वह उन्नीस जून 2007 का एक गर्म दिन था जो मेरी जिंदगी में सबसे भयानक और दर्दनाक मोड़ लाने वाला था। उसने फिर वापस लौटने की जिद की, पर फिर मेरा इंकार। मैं बेटियों के साथ खुश थी कि तभी मौका पाकर उसने पीछे से मेरे चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। मैं दर्द से चीखने-चिल्लाने लगी। लोग मदद को आगे बढ़े। वह भाग गया। पुलिस आई। मेरे बदन का मांस गल रहा था। चेहरा, कंधा, पीठ, सीना, पेट, कमर… सब खदबद हो रहा था। उस दर्द को बयान करने के लिए अल्फाज नहीं हैं मेरे पास। मुझे सफदरजंग ले जाया गया… अस्पताल ने भर्ती करने से इंकार कर दिया। उसी हाल में रिश्तेदारों, मां, बुआ, मौसी सबके पास मदद के लिए गई। सबने दरवाजे बंद कर लिए। तीन दिनों तक अकेली पड़ी जलती और गलती रही। जहां-जहां तेजाब पड़ा था वहां से धुआं उठ रहा था। मोहल्ले के कई दरवाजों पर भी दस्तक दी। कोई दरवाजा नहीं खुला? गली में एक बड़े आदमी थे। उनके पास एक पुराना खंडहरनुमा मकान खाली था जिसमें हड्डी का चूर्ण बनाने का कारोबार था। उन्होंने रहम किया और तीसरी मंजिल पर रहने की इजाजत दे दी। जहां मैंने पनाह पाई… वहां न कोई दरवाजा था… न बल्ब, न रोशनी, न बिस्तर, न मैं सो पा रही थी… न सोच पा रही थी…। उस खंडहर में पड़ी रही। मेरे बदन से मवाद तीन महीने तक बहता रहा था। घाव फैल रहे थे। तीखी दुर्गंध। कोई पास नहीं। आना भी नहीं चाहता था। यहां तक कि जख्म वाले हिस्से में चींटियां रेंगने लगी थीं। मैं अपने ही जिस्म पर रेंगने वाली चींटियां को बहुत गौर से देखती रही। वे चींटियां मुझे खाती थीं। तब मैं कुछ भी नहीं सोच पा रही थी… न जिंदा रहने के बारे में, न मरने के बारे में। और न उस खुदा के बारे में ही जिसने हमें बनाया और हमारी तकदीर लिखी। कभी कोई कुछ खाने को दे जाता, कभी कई दिनों तक भूखी रहती। एक दिन उस खंडहर से भी मुझे जाने का हुक्म मिला क्योंकि उस खंडहर को तोड़कर नया मकान बनाया जाना था। कहां जाती? कुछ समझ में नहीं आया तो जामा मस्जिद चली गई। फकीरों की पंक्ति में बैठी इमाम बुखारी साहब से मिलने का इंतजार करती रही, मदद की उम्मीद में। महीनों मैंने उनसे मिलने की कोशिश की, मगर नहीं मिल पाई। एक दिन उनकी सुरक्षा में खड़े पुलिस वाले से कहा कि अगर आज नहीं मिले तो खुदकुशी कर लूंगी। तब जाकर बुखारी साहब से मिलवाया गया। उन्होंने मेरी मदद की और मेरा इलाज शुरू हो गया। इसी बीच बिहार का एक गुंडा टाइप का लड़का मेरी मदद के लिए आगे बढ़ा। मगर जल्द ही मुझे समझ आ गया कि वह बाकी बचे हुए जिस्म को हासिल करना चाहता था। कमरा मुझे छोड़ना पड़ा। फिर एक आंटी के यहां शरण। वहां भी वह लड़का पहुंच गया। उसे मेरा बाकी बचा हुआ जिस्म चाहिए था। उसने गले हुए जिस्म के इलाज में इसलिए मदद की थी कि ताकि बाकी बचे जिस्म को गिद्ध की तरह खा सके। एक दिन वहां से भी भगा दी गई। इसके बाद एक 75 साल के बुजुर्ग ने पनाह दी। वे फुटपाथ पर ताबीज वगैरह बेचते थे। वे मुझे बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं खुले जख्मों पर दुपट्टा डालकर दिन भर पड़ी रहती। हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनके चेहरे से भी नकाब हट गया। दादा की उम्र वाले बुजुर्ग ने शादी का प्रस्ताव रखा। मैं वहां से भी निकली…। अब कहां जाऊं? दुनिया बहुत बड़ी है, मगर उसमें मेरी जगह कहीं नहीं थी। वह बारिश का दिन था। मैं बाहर निकल पड़ी, जख्म के टांके खुले थे। मैं रो रही थी। मेरे आंसुओं को बारिश की बूंदें धो रही थीं या बारिश की बूंदों को मेरे आंसू, यह तय कर पाना मुश्किल था। शाम को कुछ लोगों से चंदा किया। एक प्रॉपर्टी डीलर कमरा देने को राजी हुआ इस शर्त पर कि उसकी पत्नी बन जाऊं, मैंने इंकार किया। पत्नी की पीड़ा मैं झेल चुकी थी। दुश्वारियों से लड़ती-जूझती मैं गिरती रही, उठती रही। रोना जरूर भूल गई थी। कुछ करना था, लेकिन क्या यह ठीक से मालूम नहीं था। इसी जद्दोजहद में फातिमा दीदी से भेंट हुई। अब उन्हीं के साथ रहती हूं, उनके ही कुछ काम करती हूं। कठपुतलियों का शो करती हूं। मैं खुद भी कठपुतली हूं जिसके धागे पता नहीं किन हाथों में हैं। जिंदगी का एक ही ख्वाब है कि बेटियों को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बना दूं। मगर है तो यह सपना ही… सपना देखने का हौसला मैंने नहीं छोड़ा। अभी भी मुझे ठीक होने के लिए लाखों रुपए चाहिए जो एक नामुमकिन चाहत है, चाहत से ज्यादा जरूरत…।

कहानी खत्म। सवाल शुरू। तमाम तरह की लोक कथाएं सुनाने के दौरान, कहानी की समाप्ति पर मेरी नानी दो तरह के जुमले बोला करती थीं। सुखांत कहानी पर, ‘जिस तरह राजा-रानी के दिन लौट गए उसी तरह सबके दिन लौटे।’ जिंदगी में उम्मीद भरने का यह परंपरागत तरीका था। दूसरी तरह की दारुण कहानियों के अंत में वे बोलतीं, ‘कथा गई वन में, सोचो अपने मन में।’ नसरीन जहां कोई कहानी नहीं, हमारे समय और समाज के लिए एक जिंदा और जलता हुआ सवाल है जिसकी आंच अगर आप तक नहीं पहुंच पा रही है तो तय मानिए कि आपके भीतर ‘मनुष्यता’ का गर्भपात हो गया है या फिर तकनीक के इस मशीनरी दौर में आप ‘कॉर्पोरेट’ के कार्पेट पर चलते-बढ़ते किसी मोबाइल का नया वर्जन हो गए हैं। 

नसरीन जहां तो एक प्रतीक है। सच तो यह है कि इस तेजाबी वक्त में कोई गल रहा है, कोई गला रहा है। तेजाब किसने, किस पर फेंका? इन सवालों के बरअक्स बड़ा सवाल यह है कि कहीं तेजाब हमारे भीतर तो नहीं। समाज के रक्त और मांस में कोशिकाओं की तरह, और अस्थियों में मज्जा की मानिंद। कभी सोचकर देखिए कि हम इंसान हैं या तेजाब की भरी बोतल। मौका मिलते ही मानवीयता के ढक्कन को हटाया और बना लिया किसी कमजोर को निशाना। हमारे आस-पास लोगों की शक्ल में तेजाब की बोतल हैं जो नकली सभ्यता और स्वांग भरी विनम्रता के गुलदस्ते में छुपी हैं। संबंधों की खोल, बौद्धिकता की मोटी किताबों, धर्म के चंदनी टीकों, अदालतों के पवित्र सिंहासनों और पत्रकारिता के सरोकारी पन्नों में तेजाब है। वह नजर नहीं आता। मगर है। देखने में खौफनाक नहीं। मगर इसका असर हौलनाक है। उसका क्रूर प्रभाव कोमल और कमजोर को नष्ट करता है, उसे गला देता है। सच्चाई, ईमानदारी, संवेदनशीलताएं तमाम चीजें उसके संपर्क में आते ही गलने लगती हैं। 

दुःख के गीत। आंसुओं से संवाद। रूह की मृत चीखें। बौद्धिकों के उधार ख्यालात। थकी बहसें। इन सबके बीच कहीं कोने में दुबका यह सवाल कि तेजाब क्यों हमेशा औरतों पर ही फेंका जाता है? इसलिए कि वे कमजोर हैं, कोमल हैं, सुंदर हैं, संवेदनशील हैं, कुदरती तौर पर सृजनशील हैं। यानी जो भी इस दौर में कमजोर, कोमल, सुंदर, संवेदनशील और सृजनरत है वह तेजाबी हमले के निशाने पर है। कोई एक तेजाब की शीशी उसका पीछा कर रही है। उसकी लपेट में आने का पल कोई भी हो सकता है।

जिन औरतों का बदन तेजाबी हमले से नहीं गला है, चेहरा बदरंग नहीं हुआ है, वे पूरी तरह से महफूज हैं ऐसा सोचना भी खुद को मुगालते में रखना है। ऐसी बेहिसाब औरतें हैं जिनकी त्वचा तो सलामत है। स्निग्ध और चमकदार भी। मगर उनका दिल और उनकी रूह तेजाब से पल-पल गल रही है। वे इस गलन का असहनीय दर्द भी झेलती हैं। लेकिन खुशी का मुखौटा लगाए रहती हैं क्योंकि वे जानती है, रोने से रास्ता लंबा मालूम होता है…।

और अंत में जमाने की बातें जिसमें हम हैं। जम्हूरियत ने करवट बदली है। असम में अगप के बाद अब दिल्ली में वे लोग सिंहासन संभालने जा रहे है जिन्हें सियासत का ककहरा समझना अभी बाकी है, जिन्होंने राजनीति की नई लीक खींची है। उनके जरिए जनता ने यह पैगाम दिया है कि जम्हूरियत पूरी तरह से बेजान नहीं हुई है। 

खुर्शीद अनवर का अंत बहस-मुबाहिसे की इब्तिदा है। खुदकुशी की वजहों की पड़ताल के दौरान हमें पल भर के लिए ठहरकर क्या उस लड़की के बारे में भी नहीं सोचना चाहिए जो अनवर के अंत का सबब बनी। दो लोगों के बीच के नाजुक लम्हों का सच वे दोनों ही जानते हैं। एक है नहीं और जो बचा है उसे सच मालूम है… क्या उसके भीतर कोई पछतावा है, होना चाहिए …और अब उसकी जिंदगी क्या सवालों-आरोपों के सलीब पर नहीं टंग गई है? और फिर नसरीन जहां… तारीकी के दामन को चीरती एक ऐसी रोशनी जो अपने माजी की तरफ पलटने के बजाए बादे-सबा के वास्ते मुंताजिर है। दरअसल, हमारे आस-पास ऐसी कई नसरीन जहां हैं जिन्हें हम नहीं जानते, लेकिन जो जिंदगी की जेल में जीने की सजा काट रही हैं। नसरीन को नींद नहीं आती जैसे राख में छुपी आग को नींद नहीं आती…।

(‘पाखी’ से साभार) 
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2 Comments on “शोला बनती है न बुझ के धुआं होती है!”

  1. पढ़कर ऐसा लगा जैसे खुद शीशे से भरा गिलास पि लिया हो। बहुत अंदर कुछ उथलपुथल है। कई ऐसी कहानियों से खुद मिली हूँ

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