यह सफलता का नहीं गटर का रास्ता है साथी!


कुछ दिनों पहले ”समकालीन रंगमंच” नामक नई पत्रिका के पहले अंक के एनएसडी, दिल्‍ली में लोकार्पण पर हुए विवाद के संदर्भ में इसके संपादक रंगकर्मी राजेश चंद्र की ओर से एक पत्र सार्वजनिक किया गया था जिसमें वरिष्‍ठ रंगकर्मी अरविंद गौड़ पर कुछ आरोप लगाए गए थे। याद दिला दें कि इसके कुछ ही दिनों बाद उक्‍त पत्रिका का दोबारा लोकार्पण जयपुर साहित्‍य मेले के दौरान साहित्‍यकार अशोक वाजपेयी द्वारा भी किया गया था। अब एक और पत्र राजेश चंद्र ने जारी किया है जो कुछ चुनिंदा लोगों को ईमेल से भेजा गया है जिसमें प्रमुख रणधीर कुमार नाम के एक रंगकर्मी भी हैं जिनके खिलाफ यह पत्र है। इस बार राजेश चंद्र की शिकायत है कि उनके लिखे एक नाटक के मंचनों से उनका नाम रणधीर द्वारा इसलिए गायब कर दिया गया क्‍योंकि नाटक अब राष्‍ट्रीय स्‍तर पर चर्चित हो चुका है। यह पत्र जस का तस हम पोस्‍ट कर रहे हैं – मॉडरेटर 
विवादास्‍पद नाटक जहाजी का एक दृश्‍य 
कहते हैं किसी अयोग्य और मूर्ख व्यक्ति को अनपेक्षित सफलता मिल जाये तो वह इसे सम्भाल नहीं पाता और गटर की ओर दौड़ लगाता है। उसे यह भ्रम हो जाता है कि दुनिया मूर्खों से भरी है और वह इसका स्वाभाविक विजेता है। मेरे पुराने मित्र और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 2008 के स्नातक रणधीर कुमार भी इन दिनों एक गटर की ओर मुड़ गये हैं और मुझे नहीं पता ऐसा वे किसी अविवेक के कारण कर रहे हैं या किसी ने उन्हें उकसाया है। हालांकि उनकी मानसिक स्थिति को लेकर तीन-चार महीने पहले भी उनके सभी मित्र सशंकित और चिंतित हो गये थे जब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर फेसबुक के माध्यम से यह घोषणा की थी कि 15वें भारत रंग महोत्सव के उद्घाटन समारोह में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की वर्तमान निदेशक का विरोध करते हुए वे आत्मदाह करने वाले हैं। बाद में जब चौतरफा छीछालेदर हुई तो उन्होंने तीन त्वरित फैसले किये- (1) अपना फेसबुक एकाउंट बंद कर दिया, (2) सभी मित्रों का फोन उठाना बंद कर दिया और (3) यह तय किया कि कम से कम अगले एक साल तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के आस-पास फटकना भी नहीं है। अपने तीसरे फैसले पर वे आज भी कायम दिखाई पड़ते हैं।
यहां मेरा सरोकार उपरोक्त प्रसंग से नहीं बल्कि एक नये घटनाक्रम से है। जबसे मुझे इस तथ्य का पता चला है, मैं काफी आहत हुआ हूँ और साथ ही मुझे अपने एक पुराने मित्र के लिये गहरी चिंता भी हो रही है, जिनके लिये सदा से मेरे मन में सिर्फ शुभेच्छा ही रही है। रणधीर को एक युवा निर्देशक के तौर पर जिन पांच नाटकों से पहचान मिली (नेटुआ, गुलाबबाई, अक्करमाशी, प्यूट्रिड प्रोलॉग और अन्धगह्वर उर्फ जहाजी), उनमें से तीन मेरे द्वारा लिखित हैं। इनमें से सबसे ज्यादा मेरे जिस नाटक ‘जहाजी‘ की प्रस्तुतियों ने रणधीर को पिछले एक साल में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा दिलाई, जिस नाटक ने उन्हें संस्कृति विभाग से साढ़े तीन लाख का अनुदान दिलाया, हाल तक अपनी स्मारिकाओं एवं उद्घोषणाओं में जिस नाटक के नाटककार के तौर पर मेरा नाम उद्धृत करते हुए वे फूले नहीं समाते थे, अचानक पिछले एक महीने से उन्हें मेरा यह नाटक एक लेख लगने लगा है और इस बात की पुष्टि के लिये बेगूसराय के ‘रंग-ए-माहौल‘ के अंतर्गत पिछले 4 मार्च को इस नाटक की प्रस्तुति के बाद स्थानीय अखबारों में छपी समीक्षा का दृष्टांत लिया जा सकता है। इस समीक्षा में साफ लिखा है कि नाटक राजेश चन्द्र के एक लेख पर आधारित है जिसका नाट्य-रूपांतरण सुनील बिहारी ने किया है। सुनील बिहारी एक उभरते हुए अभिनेता हैं, मेरे भी अच्छे मित्र हैं, पर पटना रंगमंच में उन्हें जानने वाले हरेक रंगकर्मी को उनकी बौद्धिक एवं रचनात्मक क्षमता का अंदाजा है। मैं उनकी सामान्य समझदारी पर, उनकी निश्छलता पर कतई संदेह नहीं कर रहा, पर न तो उनके पास और न ही इस प्रस्तुति के निर्देशक के पास इतनी बौद्धिक सामर्थ्य है कि वे इस नाटक की भाषा में, इसके भाषिक विन्यास में, इस या किसी भी अन्य विषय पर पांच पंक्तियां भी लिख या बोल सकें। साथी सुनील बिहारी की जरूर कोई गहरी मजबूरी रही होगी कि उन्होंने एक अच्छे-भले नाटक में रूपांतरकार के तौर पर अपना नाम प्रचारित होने दिया और चुप रहे। मैं नहीं मान सकता कि वे इतने छिछोरे और लंपट हैं कि रातों-रात नाम कमा लेने के लिये ऐसी नीचता पर उतर सकते हैं। उनके प्रति मेरा यह विश्वास बना रहे तो मुझे खुशी होगी। परंतु एक निर्देशक के रूप में रणधीर कुमार ने जो भी किया है वह एक नाटककार के साथ, अपने प्रोफेशन के साथ धोखा है, फरेब है। यह महज छिछोरापन है, अश्लीलता और निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। मैं इसकी भर्त्सना करता हूँ। उन्हें शर्म आनी चाहिये। वे पटना रंगमंच के डेढ़ दशक पहले के उस काले अध्याय की पुनरावृत्ति करने का प्रयास कर रहे हैं जिसने राष्ट्रीय स्तर पर पटना के रंगकर्मियों को शर्मसार किया था और इस अध्याय की परिणति भरी दोपहर के एक सूर्यास्त के रूप में हम सब की स्मृतियों का एक दुखद हिस्सा है।
रणधीर भाई को याद होगा, रानावि का प्रशिक्षण पूरा करने के डेढ़ साल बाद यानी 2010 में वे नयी ऊर्जा से भरे-पूरे होकर मेरे पास आये थे और मुझसे एक नया एकपात्रीय किंतु पूर्णकालिक नाटक लिखने का आग्रह किया था। उनके लिये पहले भी मैंने ‘नेटुआ‘ कहानी का नाट्यांतरण किया था, आठ-नौ साल पहले, जिसकी तब शायद दो या तीन प्रस्तुतियां हुई थीं। दिवंगत साथी शशिभूषण इन प्रस्तुतियों में अहम भूमिका निभा रहे थे। एक बार फिर फ्रीलांसर वाली अनिश्चित जिन्दगी और उनकी तमाम मुश्किलात के बीच पूरे तीन महीने तक बेगार खटते हुए मैंने उन्हें नाटक लिख कर दिया- ‘एक भ्रष्ट प्रस्तावना‘। उन्होंने साथी टीकम जोशी के साथ मिल कर काफी मेहनत से उसे तैयार किया, पर दुर्भाग्यवश उसकी दो-तीन प्रस्तुतियां ही हो पाईं और वह भी- ‘प्यूट्रिड प्रोलॉग‘ के नाम से! 2011 में रणधीर जब पटना शिफ्ट होने की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने एक बार फिर मुझ पर एक नया नाटक लिखने का दबाव बनाया। वे चाहते थे कि मैं उन्हें विस्थापन की राष्ट्रव्यापी समस्या पर एक सारगर्भित और तथ्यपरक नाटक लिख कर दूं। मेरे पिछले अनुभव मुझे रोक रहे थे, पर वे जानते थे कि मैं मित्रों को मना नहीं कर पाता, इसलिये उन्होंने मुझसे नाटक लिखवा कर ही दम लिया। निस्संदेह नाटक में कई स्तरों पर कमियां रह गई थीं और उसमें विस्थापन से संम्बंधित संदर्भों एवं सूचनाओं की भरमार थी जिसके कारण नाटक बोझिल लग रहा था। मैं उस पर काम करने के लिये और एक महीने का वक्त चाहता था जो वे नहीं देना चाहते थे। तब भी मैंने मौखिक तौर पर लगातार अपने सुझाव दिये और उन्होंने उन पर अमल भी किया।
‘जहाजी‘ को लिखने की प्रक्रिया भी कम तकलीफदेह नहीं थी। मुझे संदर्भों की खोज में रोज यहां-वहां भाग-दौड़ करनी पड़ रही थी और उन दिनों मेरे पास कुछ काम न होने के कारण भयावह आर्थिक तंगी भी थी। रणधीर ने मुझ पर अनावश्यक दबाव बनाने के लिये पटना में इस नाटक के मंचन की तिथि भी घोषित कर दी और नाटक का प्रारंभिक कुछ हिस्सा लेकर उसका पूर्वाभ्यास तक शुरू करवा दिया। मैंने दो-तीन किश्तों में उन्हें स्क्रिप्ट भेजी। उन्होंने कहा था कि वे मुझे प्रस्तुति में बुलायेंगे, पर नहीं बुलाया। तीसरे शशिभूषण स्मृति नाट्योत्सव में 6 नवंबर 2012 को जब नाटक की दूसरी प्रस्तुति हुई तब भी मुझे उन्होंने नहीं बुलाया। अगर बाद में साथी मृत्युंजय प्रभाकर ने मुझे यह जानकारी नहीं दी होती कि मेरे इस नाटक को संस्कृति विभाग, भारत सरकार से साढ़े तीन लाख का अनुदान प्राप्त हुआ है और एक नाटककार को कायदे से उस राशि का कम से कम 10 प्रतिशत पारिश्रमिक के रूप में मिलना ही चाहिये- तो शायद मुझे इस बात की कभी भनक भी नहीं लग पाती। जब मैंने निर्देशक से फोन पर इस बाबत पूछा कि आपने मुझे अंधेरे में क्यों रखा तो वे पहले तो हंस कर टाल गये और बाद में काफी समय तक मेरा फोन उठाना बंद कर दिया। मैंने जब इस घटना का दिल्ली और पटना के कई वरिष्ठ रंगकर्मी साथियों से जिक्र किया तब जाकर दया-भाव दिखाते हुए उन्होंने मेरे नाम दस हजार का एक चेक भेज दिया। मुझे लगा कि इस बात को तूल देना अच्छा नहीं होगा इसलिये चुप रहा। मन में यह भावना भी थी कि चलो कम से कम नाटक प्रदर्शित तो हो रहा है।
रणधीर अपने नाट्य दल के साथ इस नाटक को अब तक पटना, गया, बरेली, जबलपुर, भुवनेश्वर, कुरुक्षेत्र और बेगूसराय में कुल मिलाकर लगभग आठ बार प्रदर्शित कर चुके हैं। ये सभी प्रस्तुतियां देश के प्रतिष्ठित और सरकारी अनुदान प्राप्त महोत्सवों के अंतर्गत हुई हैं, जिनके लिये दल को हर बार औसतन 30 से 40 हजार की राशि शुल्क के तौर पर प्राप्त हुई होगी। एक नाटककार के लिये इससे बढ़ कर विडम्बना और क्या होगी कि उसके जिस महत्वाकांक्षी नाटक को राष्ट्रीय स्तर पर सराहना प्राप्त हो रही हो वह स्वयं उसकी एक भी प्रस्तुति न देख पाया हो! निर्देशक ने एक बार भी नाटककार को बुलाना तो दूर, पांच रुपये की एक कलम तक उसे भेंट नहीं की। अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया है कि मुझे इस प्रस्तुति से दूर रखना उनकी एक सुनियोजित साजिश थी।
‘जहाजी‘ ने पहली बार एक युवा और जन-सरोकारी निर्देशक के तौर पर रणधीर कुमार को ख्याति दी है जिसे वे खुद भी दर्जनों बार दुहराते रहे हैं। इधर यह ख्याति भी उन्हें इसलिये कम लगने लगी थी क्योंकि इसका कुछ भाग नाटककार की तरफ जा रहा था। अब वे नाटककार के रचनात्मक अधिकार पर भी डाका डालने की नीयत बना चुके हैं ऐसा प्रतीत होता है। नाटक की सात-आठ अत्यधिक सफल प्रस्तुतियों के बाद, पूरे हिंदी क्षेत्र में उसके चर्चा के केन्द्र में आने के बाद अचानक रणधीर कुमार को यह दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ है कि यह नाटक नहीं बल्कि एक लेख था, जिसे उन्होंने नाटक का रूप दिया है। आखिर उनके पास राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की डिग्री है, उनके होते कोई और कैसे नाटककार हो सकता है? यह विशेषाधिकार उन्होंने उसी दिन अर्जित कर लिया था जब वे विद्यालय का तमगा लेकर बाहर आये थे। सवाल उठना लाजिमी है कि रणधीर कुमार की यह अप्रतिम रचानाशीलता अब तक किस खोह-कंदरा में छिप कर बैठी थी? इससे पहले वह कभी प्रकट क्यों नहीं हुई? क्या वे उस लेख को सार्वजनिक करेंगे जिसका उन्होंने रूपांतरण कर डाला है?
जाहिरा तौर पर यह व्यवहार अश्लीलता, धोखाधड़ी और नीचता की श्रेणी में आता है। रणधीर कुमार ने अब मेरे किसी भी नाटक को मंचित करने का, उनका किसी भी तरह से उपयोग करने का अधिकार खो दिया है। मैं यह नहीं कहूंगा कि उन्होंने किसी भी मौलिक नाटक को करने का अधिकार खो दिया है क्योंकि यह तय करना मेरे अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता। मैं रणधीर कुमार से निवेदन करता हूं कि आज के बाद वे मेरे किसी भी नाटक या अन्य कृति से खुद को और अपने नाट्य-दल को दूर रखें। जल्द ही मैं उन्हें इस सम्बंध में कानूनी नोटिस भी भिजवा रहा हूं। मैं देश भर के रंगकर्मियों, नाट्यदलों और विभिन्न नाट्योत्सवों के आयोजकों से भी निवेदन करता हूं कि जब तक इस विवाद का निपटारा न हो, आप रणधीर कुमार द्वारा निर्देशित मेरे दो नाटकों- अन्धगह्वर उर्फ ‘जहाजी‘ और एक भ्रष्ट प्रस्तावना उर्फ ‘प्यूट्रिड प्रोलॉग’ को अपने किसी समारोह का हिस्सा न बनायें।
-राजेश चन्द्र,
नाटककार, रंग-समीक्षक एवं सम्पादक,
समकालीन रंगमंच, दिल्ली।
ईमेल- rajchandr@gmail.com 
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