भोपाल गैस कांड के पीडि़तों की मोदी द्वारा घृणित उपेक्षा के खिलाफ़ नागरिकों का बयान


(बयान पर दस्‍तखत करने के लिए नीचे दिए लिंक पर जाएं या indiaresists@gmail.com पर मेल करें: 



भोपाल में आयोजित विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन का उद्घाटन करने गए प्रधानमंत्री मोदी से वहां मुलाकात का वक्‍त मांगने वाले गैस कांड पीडि़तों के प्रति उनकी संवेदनहीन और घृणित प्रतिक्रिया से हम स्‍तब्‍ध और आक्रोशित हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के पीडि़त आज भी भोपाल में जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मुआवजे की मामूली राशि, स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं और दुर्घटनास्‍थल पर दूषित कचरे की सफाई बीते 30 वर्षों में राष्‍ट्रीय शर्म की शक्‍ल ले चुकी है। इस जघन्‍य कॉरपोरेट अपराध के दोषी जहां आज भी खुले घूम रहे हैं, वहीं बीते वर्षों के दौरान आयी तमाम सरकारों ने इस हादसे के परिणामों को जान-बूझ कर दबाने की हरसंभव साजिश की है ताकि यहां बहुराष्‍ट्रीय निगमों के लिए निवेश का अनुकूल माहौल तैयार किया जा सके। मोदी सरकार ने इन निगमों के हित में पर्यावरणीय नियमों को एक भद्दे मज़ाक में तब्‍दील कर डाला है। इन कंपनियों के लिए लचर बना दिए गए पर्यावरणीय मानकों व श्रम कानूनों को अपनी ‘मेक इन इंडिया’ नीति का हिस्‍सा बताने में वे गौरव महसूस कर रहे हैं। 
तमाम वैज्ञानिक अध्‍ययनों ने अगली पीढि़यों के ऊपर यूनियन कार्बाइड हादसे के अनुवांशिक असर की ताकीद कर दी है, फिर भी न तो राज्‍य और न ही केंद्र सरकारों ने यहां किसी चिकित्‍सीय सुविधा या पुनर्वास की व्‍यवस्‍था अब तक की है। हमें उम्‍मीद थी कि प्रधानमंत्री कम से कम उन विकलांग बच्‍चों से मिलने का थोड़ा वक्‍त निकाल सकेंगे जो उनसे केवल 15 मिनट की मांग को लेकर तख्तियां व बैनर लिए हुए इंतज़ार में खड़े थे। आज गैस कांड पीडि़तों की दूसरी पीढ़ी भोपाल में मोदी के रास्‍ते में प्रदर्शन करने जुटी थी, लेकिन प्रधानमंत्री का काफिला वहां से गुज़रा तो वे गाड़ी के भीतर से ही एक सर्द निगाह छोड़कर निकल लिए। 
हम भोपाल में जुटे हिंदी के लेखकों से अपील करना चाहते हैं कि वे सम्‍मेलन के भीतर और बाहर भोपाल गैस कांड के पीडि़तों के हक़ में अपनी आवाज़ उठाएं। यह एक चुनौती भरा समय है और हमारी साहित्यिक शख्सियतों की आवाज़ों व प्रतिबद्धताओं का यहीं असली इम्तिहान भी है। 

हम भारत के लोगों से भी अपील करना चाहते हैं कि वे हमारे साथ मिलकर इस मौके पर भोपाल के पीडि़तों की मांगों पर तुरंत कार्रवाई किए जाने की मांग करें। कोई भी साहित्यिक आयोजन तब तक खोखला और निरर्थक बना रहेगा जब तक वह अपनी भाषा बोलने वाली जनता के असली सरोकारों को आवाज़ नहीं देता है। हिंदी के कॉरपोरेटीकरण से संघर्ष के लिए इस भाषा की प्रगतिशील परंपरा को मज़बूत करना हमारे वक्‍त की अविलंब ज़रूरत है और इसके लिए हमें पूरे संकल्‍प के साथ मिलकर खड़ा होना चाहिए। 
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