कच्‍छ कथा-3: कच्‍छी समाज की घुटन के पार


बिन छाछ सब सून 

… तो अपने सफ़र की पहली रात हमने लालजी के परिवार के साथ गुज़ारी। रात के खाने में लालजी की घरवाली ने बाजरे की रोटी, डोकरा (मेथी के पकोड़े), सब्‍जी, खिचड़ी, मिर्च की भुजिया खिलाई और साथ में अनलिमिटेड छाछ की व्‍यवस्‍था थी। बताते चलें कि कच्‍छ में छाछ इकलौती ऐसी चीज़ है जो कभी मुफ्त मिला करती थी, लेकिन पिछले दस साल के अंधाधुंध औद्योगिक विकास और शहरीकरण ने इसे भी बिकाऊ बना दिया। हम आगे बात करेंगे  इस बारे में विस्‍तार से, लेकिन पहले लालजी के घर से लेते हैं विदा।

हमसफ़र छोटू, चंद्रमणि और अरविंद

अगली दोपहर हम वापस निकल पड़े। हां, दोपहर का भोजन लालजी के यहां से कर के ही निकले। मेरे साले साहब को अहमदाबाद लौटना था और मेरे मित्रों को, जिनके साथ सफ़र की योजना बनी थी, उन्‍हें मुझको लेने गाड़ी से पाटड़ी तक आना था। पाटड़ी के बाज़ार में करीब तीन घंटा मुझे उनका इंतज़ार करना पड़ा। शाम साढ़े तीन के आसपास बीएचयू के पुराने मित्र अरविंद, चंद्रमणि और उनका छोटा भाई छोटू एस्‍टीम गाड़ी से पाटड़ी में मिले। यहां से हम लोग समाख्‍याली का हाइवे पकड़ कर भुज के लिए निकले।

भुज कच्‍छ का जिला मुख्‍यालय है। ये वही शहर है जहां आज से ग्‍यारह साल पहले 2001 में 26 जनवरी को विनाशकारी भूकंप आया था। पूरा शहर तबाह हो गया था। करीब 200 बच्‍चों की जान चली गई थी। सबसे ज्‍यादा नुकसान अंजार और भचाऊ के  आसपास हुआ था। समाख्‍याली हाइवे से भुज की ओर बढ़ते हुए हालांकि भूकंप के कोई निशान नहीं दिखते। चकाचक चौड़ा हाइवे, रास्‍ते में चाय की दुकानें और गुजराती ढाबे। गाड़ी की गति बहुत आराम से 100 रखी जा सकती है। रास्‍ते भर आपको तमाम कारखाने, गुजरात खनिज विकास निगम की माइनें और चिमनियां धुआं छोड़ती दिखती हैं।

विकास की रोशनी में ढलती परंपरा की शाम

भचाऊ से भुज का रास्‍ता खराब है। यहां रफ्तार धीमी पड़ जाती है। रात 11 बजे के करीब  हम भुज के बाहरी इलाके में पहुंचे। खाना खाने के लिए एक गुजराती होटल में रुके। यहां का मेन्‍यू देख कर समझ में नहीं आया क्‍या खाएं, क्‍या नहीं। नमक वाली हर चीज़ में चीनी थी। बड़ी मुश्किल से चने की दाल मिली जिसे आराम से खाया जा सकता था।  साथ में 5 रुपया गिलास छाछ भी। पेट तो भर गया, लेकिन मन खराब हो गया। करीब 12 बजे हम पहुंचे कच्‍छी समाज के गेस्‍ट हाउस, जहां हमारे रुकने की व्‍यवस्‍था वहां के ट्रस्‍टी मुकेश छेड़ा के माध्‍यम से हुई थी।

कहते हैं कि कच्‍छ के लोग बहुत आतिथ्‍य करते हैं, हॉस्पिटेबल होते हैं। छोटे रण में लालजी के यहां तो ये बात सही साबित हुई थी, लेकिन कच्‍छी समाज के गेस्‍ट हाउस में बड़ा झटका लगा। सबसे पहले तो हमें इस बात का अहसास दिलाया गया कि हमें ये कमरा नहीं मिलता अगर हमने ट्रस्‍टी से नहीं कहलवाया होता। रिसेप्‍शन पर बैठे एक कच्‍छी बाबू ने बहुत खराब लहजे में बात की। उसने हमारे धर्म, राज्‍य, जाति से लेकर तमाम जानकारियां ले लीं। उसने साफ लहजे में कहा कि आप हिंदू हैं ता क्‍या हुआ, कच्‍छी नहीं हैं। अगर आपके नाम के आगे कच्‍छी सरनेम नहीं लगा हो, तो भुज में कमरा मिलना मुश्किल है। उसके कहने का लब्‍बोलुआब ये था कि वो हमें कमरा देकर अहसान कर रहे हैं। सब कुछ तब तक सहनीय था जब तक कि उसने आई कार्ड  का फोटोस्‍टेट लाने को नहीं कहा। हमने पूछा कि रात में बारह बजे एक अनजान शहर में कहां से फोटोस्‍टेट कराएं, तो उसका जवाब बिल्‍कुल बेहूदा था। उसने कहा कि इसीलिए हम चार बजे के बाद कमरा नहीं देते। वो तो आप कहलवा कर आए हैं इसलिए शुक्र मनाइए। हमारा स्‍वार्थ न होता तो पता नहीं उसे कितनी मार पड़ती, लेकिन हम गुस्‍सा सह कर चुप रह गए।

बताते हैं कि भुज में या कहें पूरे कच्‍छ में आज से दस साल पहले ऐसा नहीं था। लोग बड़े प्रेमी किस्‍म के हुआ करते थे। भूकंप के बाद जिस बड़े पैमाने पर यहां पैसा आया, जिस तरीके से कारखाने लगे और लोग अमीर हुए, यहां की संस्‍कृति और परंपरा से उन्‍होंने उतनी ही तेजी से हाथ धो लिया। ऐसा नहीं है कि इस विकास ने लोगों को मानसिक रूप से प्रगतिशील बनाने का काम किया। वे और ज्‍यादा अपनी रूढि़यों में धंसते चले गए। इसी का नतीजा है कि भुज और इसके बाहर के इलाकों में एक हाफ कटिंग चाय यानी हमारी भाषा में आधा गिलास चाय का दाम दस रुपए तक ले लिया जाता है और आप कुछ कह नहीं पाते।

भुज: भूकंप की गर्द से उठा एक चमचमाता शहर

बहरहाल, सवेरे शहर के दर्शन हुए। भुज के बारे में जैसी कल्‍पना थी, उससे उलट ये शहर काफी विकसित है। बड़ी बड़ी बिल्डिंगें, अपार्टमेंट और बाज़ार में दुनिया भर के सारे ब्रांड यहां मौजूद हैं। लगता है कि भूकंप यहां के लिए एक अदृश्‍य वरदान के रूप में आया था जिसने हर पुरानी चीज़ को झाड़-पोंछ दिया। एक बड़ी दिलचस्‍प चीज़ ये देखने को मिली कि पूरे शहर में नरेंद्र मोदी के अलग-अलग किस्‍म के होर्डिंग और बोर्ड लगे थे। सद्भावना यात्रा से लेकर रण महोत्‍सव तक हर चीज़ नरेंद्र मोदी के रास्‍ते ही संपन्‍न हो रही थी। ये स्थिति पूरे गुजरात में है।

भुज से हमारा सफ़र अब नमक के सफेद रेगिस्‍तान की ओर था, जहां रण महोसव 14 जनवरी तक मनाया गया। जिस गांव में ये महोत्‍सव मनाया जा रहा था, उसका नाम है धोरडो। ये गांव भुज से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर है। भचाऊ से भुज क रास्‍ते में इस गांव का काफी विज्ञापन किया गया है। भुज से धोरडो के बीच हर दस किलोमीटर पर औसतन एक तोरण द्वार लगा है जो आपका स्‍वागत करता है।

भुज से करीब 30 किलोमीटर आगे एक बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है कि आप ट्रॉपिक ऑफ कैंसर यानी कर्क रेखा से गुज़र रहे हैं। इसे देखकर समझ में आता है कि यहां तन जलाने वाली गर्मी और हांड़ कंपाने वाली ठंड क्‍यों पड़ती है। फिलहाल, मौसम का हाल ये था कि आप धूप में बगैर चश्‍मे और गमछे के खड़े नहीं हो सकते, और छांव में ठंडी हवा से कंपकंपी महसूस होती थी। सड़क के दोनों ओर क्रीक का इलाका है जहां समुद्र का पानी भरा है। कहीं-कहीं ये ज़मीन दलदली भी हो जाती है। सौ किलोमीटर पार कर के हम पहुंचते हैं धोरडो गांव, जहां गुजरात का सरकारी रण महोत्‍सव चल रहा है।

रण महोत्‍सव की साइट पर हमसे पास मांगा जाता है। हमने पास नहीं लिया है। हमें इसकी जानकारी भी नहीं थी। हमें बताया जाता है कि बीस किलोमीटर पीछे वाले तोरण द्वार पर पास मिलता है। पता चलता है कि उसकी सूचना गुजराती में लिखी थी, इसलिए हम मिस कर गए। हमने बताया कि हम सब पत्रकार हैं। तब कहीं जाकर हमें भीतर घुसने दिया गया। रण के खुले मैदान में महोत्‍सव के लिए अस्‍थायी ढांचे बनाए गए हैं। तकरीबन न के बराबर जनता दिखती है। एक भी विदेशी नहीं। कुछ स्‍कूली बच्‍चे मास्‍टरनी के साथ झांकी देखने आए हुए हैं। अधिकतर बच्‍चे मुस्लिम हैं, ऐसा उनके पहनावे और एकाध से नाम पूछने पर पता चलता है। इन्‍हें राज्‍य की समृद्ध विरासत और उसके रखवाले नरेंद्र मोदी के बारे में ज्ञान देने के लिए यहां लाया गया है। अधिकतर कुछ समझ नहीं पा रहे हैं, मास्‍टरनी जहां हांक दे रही है, उधर चले जा रहे हैं।

इन्‍हें वाइब्रेंट गुजरात दिखाने यहां लाया गया है

इस बीच मुख्‍य हॉल में बड़ी सी स्‍क्रीन पर अमिताभ बच्‍चन का विज्ञापन लगातार चल रहा है, ‘…कुछ दिन तो रहो गुजरात में…।’ बहुत समझदारी के साथ इस झाकी में सिर्फ उन्‍हीं जगहों का प्रचार किया गया है जो तटीय इलाके में यानी पाकिस्‍तान की सीमा से सटे हुए बसे हैं। मांडवी तट, धोलावीरा, गिर के जंगल, कोटेश्‍वर, नारायण सरोवर, कच्‍छ का रण आदि। इसके पीछे भी एक राजनीति है जिस पर हम आगे बात करेंगे।

रण महोत्‍सव: असल की बेहूदा नकल

बहरहाल, यहां चारों ओर एलसीडी स्‍क्रीन पर या तो अमिताभ बच्‍चन दिखते हैं या फिर नरेंद्र मोदी। खाने के स्‍टॉल पर बासी आइटम भरे पड़े हैं। एक पवेलियन गुजराती शिल्‍पकारी और एम्‍ब्रॉइडरी का  भी है, जहां कुछ स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं की दुकानें चल रही हैं। एक भी आइटम ऐसा नहीं है जिसे आप खरीद सकें। हमने मेले में तीन अधिकारियों से धोलावीरा जाने का रास्‍ता पूछा। तीनों ने अलग-अलग जवाब दिया, जिससे ये समझ में आया कि यहां के स्‍थानीय लोगों को अपनी धरोहरों की कोई जानकारी नहीं। कुल मिलाकर दिन के वक्‍त रण महोत्‍सव सुपर फ्लाप शो नज़र आया।

यहां से हम गाड़ी लेकर चल दिए 6 किलोमीटर दूर अनंत तक फैले नमक के मैदानों की ओर। करीब एक किलोमीटर पर बीएसएफ की सीमा सुरक्षा चौकी पर हमें रोका गया और सलामी ठोंकी गई। सलामी का कारण ये था कि हमारे मित्र चंद्रमणि की फ्लाइंग मशीन टीशर्टपर एयफोर्स का लोगो बना था जिससे वे हमें वायुसेना का अधिकारी समझ बैठे थे। फिर बताना पड़ा कि हम लोग पत्रकार हैं और महोत्‍सव देखने आए हैं। प्रवेश की अनुमति मिल गई। करीब पांच किलोमीटर दूर बोर्ड लगा था, ‘ईको सेंसिटिव ज़ोन’। पहले ही हिदायत मिल गई थी कि यहं बोतल और पैकेट आदि लेकर जाना वर्जित है। सिर्फ एक बिसलेरी की बोतल लेकर हम उतरे और वादा किया कि इसे वहां नहीं फेंकेंगे। गाड़ी से उतरते ही जो देखा तो बस ऐसा लगा कि जैसे ये दुनिया का अंत हो।

धरती पर चांद:  कच्‍छ का महान रण

आप इस जगह को उत्‍तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव, चांद, शुक्र, मुगल, अंतरिक्ष कुछ भी कह सकते हैं और नहीं जानने वाला कभी नहीं जान पाएगा कि आप कहां गए थे। सिर्फ एक ही रंग था… चमकदार सफेद रंग। नीचे, ऊपर, आगे, पीछे सिर्फ और सिर्फ चमकदार सफेद। पैरों के नीचे ठोस सफेद नमक। आंखें खुली रखने की जिम्‍मेदारी अगर आपने निभा ली, तो मरने तक इस जगह से वापस जाना आपको स्‍वीकार नहीं होगा। अमिताभ बच्‍चन के कहे पर मत जाइए, खुद हो आइए। ये है कच्‍छ का महान रण। आपके देश में इतना करीब कोई ऐसी अद्भुत चीज़ हो सकती है, और आप यहां जा सकते हैं इतनी आसानी से, ये बात ही अपने आप में लाजवाब है। कोई कल्‍पना नहीं, कोई गल्‍प नहीं। कुछ देर ठहरिए इस रण में, अगला अध्‍याय खुलेगा जल्‍द।

यहां आंखें खुली रखना ही चुनौती है

कच्‍छ कथा-4: रणछोड़ के देश में ‘रणवीर’

कच्‍छ कथा-2: यहां नमक मीठू क्‍यों है?
कच्‍छ कथा-1: थोड़ा मीठा, थोड़ा मीठू

 

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One Comment on “कच्‍छ कथा-3: कच्‍छी समाज की घुटन के पार”

  1. अब तो बात रोचक के साथ रोमांचक भी होने लगी.
    शब्‍द पुष्टिकरण हटाने पर कृपया विचार करें.

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