अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का भारतीय संदर्भ


अभिषेक श्रीवास्तव

 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कार्यकाल खत्म होने पर एक सवाल उन लोगों से जरूर पूछा जाना चाहिए जिन्होंने उनके चुने जाने पर मार्टिन लूथर किंग को याद करते हुए ओबामा में उनका अक्स देखा था। अस्मिता के जिस रंगभेदी विमर्श की जीत के तौर पर ओबामा के चुने जाने को देखा गया था, क्या उसकी सैद्धांतिकी में पिछले चार साल में कोई बदलाव आया है? यह सवाल तथाकथित तीसरी दुनिया के देश भारत में बैठे हम लोगों के लिए भी इसलिए जायज और प्रासंगिक है क्योंकि आज हमारे यहां भी अस्मिता का विमर्श मुख्यधारा की राजनीति के केंद्र में आ चुका है। याद करें कि जब हमारे यहां राष्ट्रपति चुनाव हो रहे थे तो एक बात बड़ी शिद्दत से कुछ लोगों ने उछाली थी कि अब तक इस पद पर मुसलमान, दलित, महिला बैठ चुके हैं इसलिए अबकी एक आदिवासी को मौका दिया जाना चाहिए। ये लोग पीए संगमा के समर्थक थे। ठीक इसी के समानांतर प्रोन्नति में आरक्षण का मुद्दा गरमाया था और दलित/ओबीसी अफसरों को उनका ‘हक’ दिलाने के लिए सामाजिक न्याय के कुछ प्रवक्ताओ ने आंदोलन छेड़ दिया था। यही वह समय भी था जब मुख्यधारा की राजनीति से इतर सबसे बड़े सत्ता प्रतिरोधी माओवादी आंदोलन के एक बड़े नेता सब्यसाची पंडा ने माओवादी पार्टी नेतृत्व पर कुछ गंभीर सवाल खड़े किए थे, जिसके बाद उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था। यह संदर्भ इसलिए क्योंकि हमारे यहां माओवादी आंदोलन प्रकारांतर से आदिवासी आंदोलन का पर्याय बन चुका है।
 
 
सवाल है कि अस्मिताओं के उभार के इस दौर में अस्मितावादी विमर्श कहीं मुख्यधारा के सत्ता विमर्श में तो नहीं तब्दील हो रहा? यदि ऐसा है, तो बराक ओबामा के कार्यकाल की पड़ताल हमारे अपने सवालों लिए कुछ रियायत मुहैया करा सकती है क्योंकि अमेरिका का नस्लभेद विरोधी आंदोलन और मार्टिन लूथर किंग की विरासत अब भी वहां के संग्रहालयों में प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संरक्षित और प्रतिष्ठित है जबकि हमारे यहां दलित/आदिवासी/महिला नायकों के लिए अलग से कहीं कोई संग्रहालय नहीं है। यह एक सस्ता मुहावरा हो सकता है, लेकिन अस्मितावादी विमर्श के सत्ता के साथ रिश्तों को समझने में बहुत काम आएगा।
 
 
दरअसल, जिस दौर में बराक ओबामा राष्ट्रपति चुने गए और हिंदुस्तान में अस्मितावादी विमर्श ने सवर्ण सत्ता को चुनौती देनी शुरू की, उस दौर के नियंता निश्चित तौर पर वे लोग कतई नहीं थे जिन्हें हम सत्तासीन देखते रहे हैं। अमेरिका में शीत युद्ध के खात्मे के बाद और भारत में उदारीकरण लागू होने के बाद से, यानी मोटे तौर पर दो दशकों के दौरान लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सत्ता और ‘स्टेट’ की गतिकी के बीच का रिश्ता टूट गया है। अपने यहां इस बात को समझने के लिए हमें बहुत सिर खपाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए क्योंकि परमाणु संधि से लेकर 2जी घोटाले में कॉरपोरेट घरानों को क्लीन चिट दिए जाने तथा समय-समय पर ईंधन के दाम बढ़ने तक और यहां तक कि आम बजट में ‘राष्ट्रीय’ चरित्र का लोप हो जाने तक कुछ भी हमारी ‘राष्ट्रीय’ कही जाने वाली सरकार के हाथ में नहीं रहा है। हमारे यहां यह बदलाव बहुत तेजी से हुआ है, अलबत्ता अमेरिका में इसकी ज़मीन बहुत पहले से तैयार थी क्योंकि वहां की अर्थव्यवस्था कभी भी भारत की तर्ज पर ‘मिश्रित और कल्याणकारी’ नहीं रही। इन्हीं स्थितियों के मद्देनजर आज यदि हम इस बात को समझ सकते हों कि हमारे यहां हर पांच साल पर होने वाले चुनाव कितने सच्चे और कितने झूठे हैं, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि अमेरिकी चुनाव दुनिया का कितना बड़ा शो बिजनेस है जहां कहने को चुनाव राष्ट्रपति के लिए होता है, लेकिन दरअसल यह सारा नाटक वैश्विक कॉरपोरेट पूंजी के एक अमेरिकी प्रवक्ता को वाइट हाउस में बैठाने का रस्मी उपक्रम है। ओबामा, जॉर्ज बुश या रोमनी इस अर्थ में सिर्फ मुखौटे हैं। अस्मितावादी विमर्श की चाबी भी इसी तुलना में छुपी है लेकिन पहले ज़रा कुछ तथ्यों को देख लें।
 
 
जॉर्ज बुश की कैबिनेट में फेड एक्स, बोईंग, काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस, हारवर्ड के बेल्फर सेंटर, सेंटर फॉर स्ट्रेटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़, सर्किट सिटी, वेरिजॉन, कार्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट, गोल्डमान साश और रैंड कॉरपोरेशन समेत तमाम अन्य कॉरपोरेट प्रतिनिधि शामिल थे। उनकी विदेश नीति पर ‘‘नव संरक्षणवादियों’’ का कब्जा था जिनमें रिचर्ड पर्ल, डिक चेनी, डोनाल्ड रम्सफेल्ड, ज्यां कर्कपैट्रिक, पॉल उल्फोविज, जेम्स वूल्सी, रिचर्ड आर्मिटेज, जलमई खलीलजाद, इलियट अब्राम्स, फ्रैंक गैफनी, इलियट कोहेन, जॉन बोल्टन, रॉबर्ट केगन, फ्रांसिस फुकुयामा, विलियम क्रिस्टल और मैक्स बूट आदि शामिल थे। इन सभी का रिश्ता फॉरच्‍यून 500 में शामिल तमाम कॉरपोरेट कंपनियों और वैचारिक व रणनीतिक प्रतिष्ठानों के साथ है जो आज अमेरिकी विदेश नीति को चलाते हैं। राष्ट्रपति चाहे कितना भी ‘‘लिबरल’’ हो, यह एक चीज़ समान रहती है। इनमें महत्वपूर्ण समूहों के तौर पर हम ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन, इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप, फॉरेन पॉलिसी इनीशिएटिव, हेनरी जैक्सन सोसाइटी, काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस आदि को गिना सकते हैं।
 
 
अब आइए ओबामा की कैबिनेट पर। इसमें जेपी मोर्गन, गोल्डमान साश, काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस, फॉरच्‍यून 500 के प्रतिनिधि कोविंग्टन एंड बर्लिंग, सिटि ग्रुप, फ्रेडी मैक और रक्षा ठेकेदार कंपनी हनीवेल के प्रतिनिधि मौजूद हैं। बुश की ही कैबिनेट की तरह इस सरकार में भी विदेश नीति को तय करने वाले काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस, रैंड कॉरपोरेशन, ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन इंटरनेशनल, क्राइसिस ग्रुप आदि हैं।
 
 
अगर रोमनी जीत गए तो उनकी कैबिनेट का स्वरूप क्या होगा, इसे समझना मुश्किल नहीं है। उनके विदेश नीति सलाहकारों में माइकल शेर्टाफ, इलियट कोहेन, पाउला दोब्रिंस्की, एरिक एल्डेमान और रॉबर्ट केगन मौजूद हैं। ये वही लोग हैं जो जॉर्ज बुश की विदेश नीति कैबिनेट में हुआ करते थे।
 
 
इन तीनों के विदेश नीति नियंताओं के नाम गिनाने का अर्थ क्या है? बुश और ओबामा ने अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिम के सैन्य विस्तार को स्वतः स्फूर्त संकटों का सिलसिला बना कर पेश किया, जबकि 1991 से ही तय था कि इराक, ईरान, अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया, सुडान, सोमालिया और कई अन्य देश जो कभी सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में थे, या तो उन्हें राजनीतिक रूप से अस्थिर किया जाना था या फिर वहां कठपुतली सत्ताएं बैठाई जानी थीं। अमेरिकी जनता को पहले बुश ने ‘‘आतंक के खिलाफ युद्ध’’ के बचाव में मनगढ़ंत कहानियां सुनाईं, बाद में ओबामा ने लीबिया और सीरिया में इसे विस्तार देकर कुछ नई कहानियां गढ़ दीं। दरअसल, यह पेंटागन में बरसों पहले तैयार की गई सैन्य-कॉरपोरेट नीति के एजेंडे का विस्तार भर था जिसकी दिशा चुनावों में पैसा लगाने वाले वैश्विक वित्तीय जगत ने तय की थी, चुने हुए प्रतिनिधियों ने जिस पर मुहर लगाई और जनता के सामने एक स्वतंत्र परिघटना के तौर पर मनगढ़ंत आख्यानों में लपेट कर रख दिया। इसका मतलब यह हुआ कि बुश हों, या फिर ओबामा या रोमनी, सभी पहले से तय एक एजेंडे के प्रवक्ता हैं। यह एजेंडा वैश्विक आवारा पूंजी का है। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अमेरिकी जनता इस साल किसे वोट देती है।
 
 
चुनावों की निरर्थकता के बावजूद उस पर बात होनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि एक सबसे बड़ा वादा जो रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों ने अमेरिकी जनता से किया है वह रोजगार पैदा करने का है। यह सवाल अहम है। बेरोजगारी का यह सवाल अमेरिका में इतना अहम हो चुका है कि इसके बगैर किसी चुनाव प्रचार की कल्पना नहीं की जा सकती। इस संदर्भ में एक अच्छी बात इधर बीच ये हुई है कि पिछले साल शुरू हुए ‘ऑक्युपाई’ आंदोलन ने अमेरिका के मुख्यधारा के राजनीतिक विमर्श में आर्थिक गैर-बराबरी के मुद्दे को चाहे-अनचाहे धकेल दिया है। इस पर वहां बात हो रही है। इस संदर्भ में ‘‘मंथली रिव्यू’’ के अपने एक लेख में मैट विडाल कहते हैं:

‘‘मुख्यधारा का आर्थिक विमर्श बार-बार यह बात कहता है कि पिछले चालीस साल में यहां गैर-बराबरी इसलिए बढ़ी है क्योंकि प्रौद्यागिकी में आए बदलावों ने कम कौशल वाले मजदूरों की जगह को खत्म कर दिया है। उच्च तकनीकी संचालित उद्योगों अब सिर्फ उन्हीं को रोजगार मिल सकता है जो उच्च तकनीकी में पारंगत हों। अर्थशास्त्र में इसका इलाज मजदूरों को शिक्षित करना है। यह दलील हालांकि समाज की वर्गीय संरचना को ध्यान में नहीं रखती है। कामगारों को आप चाहे कितना भी शिक्षित कर लें, लेकिन छोटे कौशल वाले काम करने वालों की जरूरत तो समाज में बनी ही रहेगी। इसके बरक्स राजनीति की बात करें तो रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी रोजगार सृजन की बात करती है, हालांकि खास तौर पर रिपब्लिकन धड़ा समाज में बुनियादी वर्ग विभाजन को ही नहीं मानता। ये दोनों ही दलीलें दरअसल बाजार की उपज हैं, जिसके नीचे वास्तविक वर्ग संघर्ष अपनी गति से चलते रहते हैं।’’

 
 
विडाल इसके बाद कहते हैं कि जो विचारक कार्यस्थल पर वर्ग संघर्ष की बात को मानते भी हैं, वे भी एक ऐसे उदारीकृत ढांचे के भीतर बेरोजगारी का समाधान खोजते हैं जो पूंजीवाद को बुनियादी तौर पर एक ठोस व्यवस्था मानता है जो सिर्फ बेहतर नियमन और आय के समानतापूर्ण बंटवारे से दुरुस्त होने में सक्षम है। ऐसे विचारकों में वे रॉबर्ट रीश का नाम लेते हैं जो ऑक्युपाई आंदोलन के समर्थक हैं। हालांकि ‘मुनाफे की दर’ की मार्क्‍स की अवधारणा के सामने यह नुस्खा कच्चा साबित होता है क्योंकि पूंजी का मुनाफा सीधे तौर पर शोषण पर टिका है और लगातार सेवा क्षेत्र पर निर्भर होती जा रही वैश्विक अर्थव्यवस्था में वर्ग समझौते की गुंजाइश नहीं बनती जहां मुनाफा बनाए रखने के लिए एक मजदूर का पेट काटना अपरिहार्य है।
 
 
पूंजीवाद के दुरुस्त होकर टिके रहने का एक ही तरीका बचता है कि मुनाफे में कटौती की जाए और आय में समानता लाने की कोशिशें हों। लेकिन मुनाफे में कटौती करेगा कौन? ज़ाहिर है, फिर आय में समानता का सवाल और उसके रास्ते बेरोजगारी का सवाल अनिवार्यतः एक राजनीतिक सवाल बन जाता है जहां सत्ता का चरित्र निर्णायक होता है, जो फिलहाल कॉरपोरेट के हाथों में है। इसलिए घूम-फिर कर यह बात दोबारा साबित होती है कि पूंजीवाद को दुरुस्त करने संबंधी रिपब्लिकन और डेमोक्रेट धड़ों के तमाम चुनावी-गैरचुनावी नुस्खे सिर्फ दिखावा हैं क्योंकि जनता जिसे ‘राष्ट्रीय’ सरकार समझती है, वह अनिवार्यतः वित्तीय और कॉरपोरेट पूंजी की सरकार है। अमेरिकी चुनाव पर हो रहे छह अरब डॉलर के कुल खर्च को देखें, तो बात साफ हो जाती है यह खर्च कहां से आ रहा है और किन उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है। ज़ाहिर है, इसका रिटर्न उन्हीं को मिलेगा जिन्होंने वाइट हाउस के प्रवक्ता में निवेश किया है।
 
 
यह निष्कर्ष उदारीकरण के बीस साल बाद आज के भारत में उतना ही कारगर और मौजूं है। इसलिए ‘अश्वेत’ ओबामा के हवाले से यहां के अस्मितावादी विमर्शकारों से एक सवाल तो बनता है कि अब तक हाशिये पर रही अस्मिताएं यदि सत्ता में आ भी जाएं तो क्या सामाजिक न्याय का एजेंडा पूरा हो जाएगा? क्या नवदारवादी आर्थिकी का जाति/अस्मिता आदि कोटियों से कोई लेना-देना नहीं है? निश्चित तौर पर भारत के संदर्भ में भी ‘स्टेट’ की डायनमिक्स वैश्विक पूंजी की डायनमिक्स से संचालित हो रही है और संसद में चुन कर आने वाले जनप्रतिनिधि आर्थिक और विदेश नीति में दखल देने की हैसियत और ताकत खो चुके हैं।
 
 
ऐसे में अस्मिताओं के सामने इकलौता विकल्प व्यवस्था परिवर्तन के एजेंडे से जुड़ने का ही है। इसके लिए जो संघर्ष चलाया जाना होगा, वह भी वैश्विक होगा और उसके मूल में वर्ग संघर्ष को रखना होगा, चूंकि कार्यस्थल पर जातिगत, जातीय, लैंगिक या फिर कोई भी हाशिये की अस्मिता व्यावहारिक तौर पर वर्ग का रूप ले लेती है। व्यापक समाज में कभी-कभार भले ही वर्गीय विभाजन की अभिव्यक्ति उतनी स्पष्ट न होती हो और यह हमें दूसरे पारंपरिक विभाजनों की शक्ल में दिखता हो, जैसा कि भारत के विशिष्ट मामले में जातियों के साथ होता है। लेकिन पूंजी की सत्ता को चुनौती देने और राज्य के ढांचे व चरित्र को बदलने के लिए वर्ग संघर्ष पर आधारित जनांदोलन ही इकलौता कारगर रास्ता है और यह बात अमेरिका के मामले में भी उतनी ही सच है जितनी भारत के संदर्भ में। चुनाव आगे भी होते रहेंगे, राष्ट्राध्यक्ष भी बदले जाते रहेंगे। हर बार मुख्यधारा का मीडिया अपने पूंजीपति आका वर्ग के हितों के हिसाब से उसको प्रचारित भी करता रहेगा। लेकिन जनपक्षीय नागरिकों और सरोकारी समूहों का यह दायित्व बनता है कि वे संसदीय लोकतंत्र के इस प्रहसन का हर बार उतनी ही ताकत से परदाफाश करें और सच्चे जनसंघर्षों के लिए रास्ता बनाएं। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव और बराक ओबामा के पिछले चार साल के कार्यकाल का भारत के लिए और विशेष तौर पर यहां संघर्षरत अस्मितावादी समूहों के लिए कम से कम यही सबक है। 

(समकालीन तीसरी दुनिया के नवंबर अंक में प्रकाशित)
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