हक़ीकत के आईने में फ़सानों का कारोबार
फॉरवर्ड प्रेस में कर्मचारियों का शोषण होना और उन्हें बात-बात में अपमानित कर देना कोई नई बात नहीं है। पत्रिका का शायद ही कोई ऐसा कर्मचारी हो जिसने स्वेच्छा से संस्थान को छोड़ा हो। सब को एक तय समय पर टर्मिनेट कर दिया जाता है। बगैर किसी गलती के। दो-तीन महीने पहले सर्कुलेशन डिपार्टमेंट से एक नौजवान दलित कर्मचारी को उसके बेहतरीन परफार्मेंस के बावजूद टर्मिनेट कर दिया गया। उसे दूसरी जगह नौकरी पाने के लिए एक्सपीरिएंस सर्टिफिकेट की जरूरत पड़ी और उसने फॉरवर्ड प्रेस के मालिकान से जब इसकी मांग की तो उसे जवाब मिला कि अगर तुम एक्सपीरिएंस सर्टिफिकेट की मांग करोगे तो तुम्हारे कैरेक्टर वाले कॉलम में ‘बैड’ लिख दिया जाएगा। और इस तरह से उस नौजवान दलित कर्मचारी ने एक्सपीरिएंस सर्टिफिकेट की मांग करनी बंद कर दी। यहां यह गौरतलब है कि फॉरवर्ड प्रेस में काम करने वाले किसी भी कर्मचारी को एप्वाइंटमेंट लेटर तक नहीं दिया जाता। यहीं एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर ऐसा क्यों किया जाता है?
पंकज चौधरी |
इसी तरह से एक यादव रिपोर्टर को जो ‘लोकमत समाचार’ जैसा बड़ा अखबार छोड़कर फॉरवर्ड प्रेस में नौकरी करने के लिए आया था, टर्मिनेट कर दिया गया। उस यादव रिपोर्टर को तब टर्मिनेट किया गया जब उसकी शादी में बमुश्किल 8 या 10 दिन बचे थे। वह मैनेजमेंट से लाख रिक्वेस्ट करते रह गया कि मेरी शादी होने वाली है और लोगों को जब मेरे टर्मिनेशन के बारे में पता चलेगा तो वे क्या सोचेंगे, इसका तो जरा ख्याल कीजिए, मैनेजमेंट के ऊपर उसका कोई असर नहीं हुआ। यादव कर्मचारी के पहले एक कायस्थ कर्मचारी को उसके संघ परिवार से होने का आरोप लगाकर टर्मिनेट कर दिया गया था। उस कायस्थ कर्मचारी का इतना ही कसूर था कि उसने मैनेजमेंट की कारगुजारियों का पर्दाफाश किया था।
एक तरफ तो दलित-बहुजन समाज के एम्पावरमेंट के वास्ते फॉरवर्ड प्रेस को निकालने की जोर-शोर से घोषणा की जाती है, वहीं दूसरी तरफ दलित-बहुजन समाज के ही युवाओं के करियर और उसके सम्मान के साथ इस तरह का खिलवाड़ किया जाता है। सबसे अपमानजनक स्थिति तो इन दलित-बहुजन कर्मचारियों के साथ तब उत्पन्न कर दी जाती है जब इनके सम्मान में टर्मिनेशन के बाद फेयरवेल पार्टी दी जाती है। उस पार्टी में मुख्य संपादक, चेयरपर्सन और सलाहकार संपादक टर्मिनेट कर्मचारी की उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए बाइबिल की आयतें पढ़ते हैं और सबको केक खिलाया जाता है। पहले अपमान, प्रताड़ना, शोषण, गालियां और फिर सम्मान। इस तरह की क्रीड़ा का आयोजन और अट्टहास तो कोई इंसान नहीं ही कर सकता है।
मेरे लिए यह आलम कितना असहनीय और बोझिल होता था, मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता। इस तरह की हरकतों को लक्ष्य करते हुए जब मैंने एक कविता लिखी कि ‘प्रभु होने से अच्छा है शैतान होना/ क्योंकि शैतान कम से कम प्रभु होने का ढ़ोंग तो नहीं करता’, तो फॉरवर्ड प्रेस के मालिकान और मैनेजमेंट ने अपने चैम्बर में मुझे बुलाकर बहुत भला-बुरा कहा और सख्त ताकीद करी कि कविताएं लिखोगे तो तुम्हारी नौकरी खतरे में तो पड़ेगी ही और उसके बाद भी तुम्हारी खैर नहीं। इस संदर्भ में इन दिनों फॉरवर्ड प्रेस के समर्थन में उतरे हुए उन लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी सिलेक्टिव होती है? और क्या भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ शासक वर्गों को ही हासिल होनी चाहिए या फिर शासितों को भी?
संस्थान के कर्मचारियों को मालिकान के द्वारा गाहे-बगाहे इस तरह की गालियां देने की वहां प्रथा ही चल पड़ी है, जैसे कि तुम लोग चोर होते हो, धोखेबाज होते हो, बेईमान होते हो, सबसे ज्यादा करप्ट होते हो आदि आदि। यहीं यह सवाल भी पैदा होता है कि दलित-बहुजन की वकालत करने वाले आखिर किस मुंह से आशीष नंदी जैसों का विरोध करते हैं?
(जारी)
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