फॉरवर्ड प्रेस प्रकरण – तीसरी किस्‍त


हक़ीकत के आईने में फ़सानों का कारोबार 



फॉरवर्ड प्रेस में नौकरी करते हुए ऐसे अनेक अवसर आए जब मैंने लिखने की कोशिश की और मुझे लिखने से वहां सीधे-सीधे या परोक्ष रूप से मना कर दिया जाता रहा। लगभग 2 साल की नौकरी के दरमियान वहां जो मैंने 3-4 लेख लिखे भी उन्‍हें जबरदस्‍ती लिखवाया गया ताकि मैनेजमेंट का व्‍यक्तिगत हित सध सके। जिन अवसरों पर मुझको लिखने से वहां मना किया गया उनमें से कुछ प्रमुख घटनाओं का उल्‍लेख करना मैं यहां जरूरी समझता हूं।


पंकज चौधरी
पहली घटना जहां तक मुझे याद है वह दलितों को प्रोन्‍नति में आरक्षण के सवाल को लेकर थी। इस घटना पर मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के संसद से लेकर सड़क तक बवाल काटने का मैंने विरोध किया और दलितों के प्रमोशन में आरक्षण का जब समर्थन किया तो उस विषय पर मेरे लिखे लेख को वहां छापने से सीधे-सीधे मना कर दिया गया। जिस दूसरे लेख को परोक्ष रूप से छापने से इनकार कर दिया गया वह था ‘उत्‍तर का राजनीतिक नवजागरण’। इस लेख के जरिए मैंने यह पड़ताल करने की कोशिश की है कि यदि दक्षिण और मध्‍य भारत में सामाजिक और सांस्‍कृतिक आंदोलनों के जरिए दलित-बहुजनों में जागरूकता आती है, तो यही जागरूकता उत्‍तर भारत के दलितों और पिछड़ों में राजनीतिक सत्‍ता की प्राप्ति के जरिए आती है। और इसमें राममनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद, जयप्रकाश नारायण का आंदोलन, कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, माओवादी-नक्‍सलवादी आंदोलन आदि के योगदान का उल्‍लेख किया था। लेख किंचित लम्‍बा था, लगभग 4000 शब्‍दों का, जिसे सलाहकार सम्‍पादक ने 600-700 शब्‍दों में समेटने की नसीहत दी और पुचकारा कि एक महान सम्‍पादक का यही तो कला-कौशल है कि वह 50 पृष्‍ठों की सामग्री को किस तरह से एक पृष्‍ठ में समेट दें। मुझे इस बात को समझते देर नहीं लगी कि इसकी मंशा ठीक नहीं है और एक अच्‍छे लेख को यह किल कर देना चाहता है। मैंने खुद उस लेख को विदड्रॉ कर लिया।
तीसरा अवसर था जब मैं ओबीसी साहित्‍य पर लिखना चाहता था और मुझे इस विषय पर लिखने से सीधे-सीधे मना कर दिया गया। मैं ओबीसी साहित्‍य के अस्तित्‍व को स्‍वीकार नहीं करता हूं और ओबीसी साहित्‍य के प्रेरणास्रोत के रूप में जिन कवियों और लेखकों को अग्रगण्‍य माना जाता है, जैसे भारतेन्‍दु, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्‍त आदि को पुनरूत्‍थानवादी मानता हूं और मेरा यह भी मानना है कि जिस तरह से मुगल काल में तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ के जरिए वर्णाश्रम व्‍यवस्‍था को प्रतिष्ठित करने का काम किया था उसी तरह का काम इन कवियों और लेखकों ने भी किया। इसीलिए मेरा मानना है कि एक तरफ यदि कबीर, जोतिबा फुले, नारायण गुरु, पेरियार, शाहूजी महाराज जैसे वर्णव्‍यवस्‍था पर हमला करने वाले महान शख्‍स ओबीसी साहित्‍य के प्रेरणास्रोत के रूप में ठहरते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ वर्णव्‍यवस्‍था का आपादमस्‍तक समर्थन करने वाले लोग भी ओबीसी साहित्‍य के प्रेरणास्रोत कैसे ठहर सकते हैं? यह ओबीसी साहित्‍य का कैसा विरोधाभास है? क्‍या एक तरफ यदि दलित साहित्‍य के प्रेरणास्रोत के रूप में आम्‍बेडकर काम करते हैं, तो क्‍या वहीं दूसरी तरफ वेदव्‍यास और वाल्‍मीकि भी प्रेरणास्रोत के रूप में काम कर रहे हैं?     
 ता ं र्मचारी को एप्‍वाइंटमेंअ
भारतेन्‍दु, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्‍त आदि को मैं ओबीसी भी नहीं मानता। ये स्‍पृश्‍य वैश्‍य थे इसीलिए द्विज कैटेगरी में ठहरते हैं। मेरे हिसाब से वैश्‍य वर्ग की दो कोटियां होनी चाहिए- स्‍पृश्‍य वैश्‍य और अस्‍पृश्‍य वैश्‍य। वैश्‍य वर्ग में जिनको द्विज माना जाना चाहिए वे स्‍पृश्‍य वैश्‍य हैं और जो अस्‍पृश्य वैश्‍य हैं उन्‍हें ओबीसी माना जाना चाहिए। महात्‍मा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, बिरला से लेकर मित्‍तल तक और भारतेन्‍दु से लेकर निर्मल वर्मा तक स्‍पृश्‍य वैश्‍य हैं इसीलिए द्विज कैटेगरी में ठहरते हैं। इनकी पहचान होती है कि ये यथास्थितिवादी होते हैं और आपादमस्‍तक वर्णव्‍यवस्‍था और हिन्‍दूवादी मूल्‍यों की सुरक्षा और संरक्षण में उतरते रहते हैं। कलबार, स्‍वर्णकार, बिहारी तेली, कानू, हलवाई आदि जातियां अस्‍पृश्‍य वैश्‍य की कैटेगरी में आती हैं क्‍योंकि इनके छुए पानी को भी द्विज समाज अपने लिए त्‍याज्‍य समझता है। वर्णव्‍यवस्‍था का दंश झेलते-झेलते ये जातियां स्‍वाभाविक रूप से परिवर्तनकारी होती हैं। इसीलिए दलित साहित्‍य यदि अस्‍पृश्‍यों का साहित्‍य है तो मेरा ख्‍याल है कि इन जातियों समेत अन्‍य अस्‍पृश्‍य जातियों के साहित्‍य को भी दलित साहित्‍य में शामिल किया जाना चाहिए। दलित साहित्‍य को मैं पूरे होशो-हवास से स्‍वीकार करता हूं और दलित साहित्‍य को ही बहुजन साहित्‍य भी मानता हूं। हिंदी में फिलहाल दो ही तरह के साहित्‍य हैं- मुख्‍यधारा का साहित्‍य और दलित साहित्‍य। खैर, मैं आपको यहां यह भी याद दिलाना चाहूंगा कि ओबीसी साहित्‍य के विरोध में 2012 में वीरेंद्र यादव समेत अन्‍य लेखकों के लेख को तो छापा गया था लेकिन मेरे लेख को छापने से इनकार कर दिया गया।
अभिव्‍यक्ति की आजादी की चाह रखने वालों से मैं पूछना चाहूंगा कि क्‍या अभिव्‍यक्ति की आजादी दूसरों की आजादी को कुचलकर वे प्राप्‍त करना चाहते हैं? अभिव्‍यक्ति की आजादी के चेहरे को फॉरवर्ड प्रेस के समर्थन में उतरने वाले बुद्धिजीवियों ने भी कितना विद्रूप कर दिया है इसका आकलन अब सहज ही किया जा सकता है।

(जारी)

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