इसी पाइप ने हमें रण की झुलसाती धूप से बचाया |
तो साहब, रण के बीच चटक दुपहरी में एक पाइपलाइन के भीतर दिन बिताने के बाद हमने शाम का जो नज़ारा देखा, तो सारे शब्द भूल गए। जैसे-जैसे सूरज उतरता, वैसे-वैसे चांद चढ़ता जाता। एक बढि़या ज़ूम लेंस की कमी अखरने लगी। बहरहाल, जइसे तइसे फोटो लेके फारिग हुए। दोबारा पंडाल में पहुंचे जहां साढे सात बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम होना तय था। एक सज्जन मंच पर खड़े होकर गुजराती में कुछ-कुछ बोल रहे थे और सामने मुश्किल से दस लोग बैठे हुए थे। तय हो गया कि सरकारी रण महोत्सव इस बार पूरी तरह से फ्लॉप है। हम कट लिए वापस भुज की ओर।
मदीना रेस्टोरेंट में हरींद्र गिरि |
दो दिन से नमकीन पानी और मीठी सब्ज़ी-दाल खाकर मन भिनभिना गया था। सोचे, आज रात बढि़या भोजन लेना ही होगा। इसी तलाश में भुज से बाहर ही एक मुस्लिम इलाके में हमने गाड़ी रोकी। रात के करीब दस बज रहे थे। हमारे सामने था मदीना होटल। उम्मीद थी कि यहां नमक में चीनी की मिलावट नहीं होती होगी। जैसे ही उतरे, एक सज्जन ढाबे के भीतर से भागते हुए आए। एम्बियंस में गुड्डू रंगीला का एक गाना बज रहा था। गले में पड़े लाल गमछे का कमाल था कि बिना बताए उन्होंने भांप लिया कि हम यूपी-बिहार के लोग हैं। हालांकि, हमें ये बात पूछ कर ही पता चली कि वे भी बिहार के थे। पहले तो इससे सुकून मिला, फिर भगोने के भीतर झांक कर देखा तो शोरबे का रंग बता रहा था कि खाना खाया जा सकता है। हम बैठ गए। उसके बाद भाई रवींद्र गिरि और हरींद्र गिरि से जो बातचीत आगे बढ़ी, तो कई अनजानी परतें खुलीं।
बात-बात में छह इंच करने वाले रवींद्र गिरि |
आज से करीब दस साल पहले गिरि बंधु बिहार के जहानाबाद से भुज आए थे, जब यहां भूकंप आया था। रवींद्र बताते हैं कि उनके जैसे करीब साढ़े पांच सौ बिहारी भुज में काम करते हैं। सभी को अच्छी तनख्वाह मिलती है। रवींद्र के पास मालिक की दी हुई एक कार है, फ्री में रहने के लिए एक मकान और खाना भी मुफ्त। रवींद्र यहां उस्ताद हैं। मांस, मछली, मुर्गा पकाते हैं। हरींद्र उनके छोटे भाई हैं। वेटर का काम करते हैं। रवींद्र को दस हजार और हरींद्र को छह हजार तनख्वाह मिलती है। दोनों अगले महीने तीन माह की छुट्टी पर अपने गांव जाएंगे, लेकिन उनकी तनख्वाह बनती रहेगी। यानी तीन महीने की तनख्वाह मुफ्त। रवींद्र कहते हैं, ‘ऐसी नौकरी और कहां मिलेगी।’
हरींद्र बड़े प्यार से गरम गरम रोटी लाते हैं और बैकग्राउंड से रवींद्र की आवाज़ आती है, ‘जहानाबाद का नाम सुने हैं न साहब।’ हम हां में सिर हिलाते हैं। हरींद्र कहते हैं, ‘वही, छौ इंच वाला जगह…।’ हम ठहाका लगा देते हैं। अगल-बगल एकाध कच्छी बंधु भी हैं। वो बात को पकड़ने की कोशिश में लगे दिखते हैं। हमारे लिए ये एक सुखद आश्चर्य है कि भुज जैसी सुदूर जगह पर बिहार का आदमी क्या और क्यों कर रहा है। कारण पता लगाने की कोशिश में दो बातें समझ में आती हैं।
सन 2000-2001 का दौर ऐसा था जब बिहार में जाति सेनाओं का दमन अपने चरम पर पहुंच चुका था। रणवीर सेना ने उस वक्त एक बड़े हत्याकांड को अंजाम दिया था। उसके बाद से ही लालू प्रसाद यादव की सरकार ने दमन का दौर शुरू किया। जाति सेनाओं के कमांडरों की गिरफ्तारियां हुईं, भगदड़ मची और इसकी परिणति हुई ब्रह्मेश्वर मुखिया की गिरफ्तारी में। ये बात अगस्त 2002 की है। पिछले दिनों मुखिया रिहा हुए, तब हमने देखा और सुना कि किस तरह सैंकड़ों बंदूकों की सलामी से उनका स्वागत किया गया। ऐसा नहीं है कि जाति सेनाओं के तमाम कार्यकर्ता उस दौर में वहीं रह गए। जानने वाले बताते हैं कि खासकर जहानाबाद और गया से बड़े पैमाने पर भगदड़ मची। 2001 में भुज में भूकंप आया और तकरीबन नब्बे फीसदी भुज तबाह हो गया। चारों ओर से मानवीय राहत आई। इसी धकापेल में यहां एक जगह बनी बाहरी लोगों के लिए।
बरकरार है सामंती ठसक कच्छ की धरती पर |
दस साल पहले भुज में,या कहें गुजरात में दो किस्म का पलायन शुरू हुआ। पहला गांव से शहरों की ओर पलायन और दूसरा, दूसरे राज्यों से गुजरात की ओर। इसी जटिल समीकरण में भुज के नवनिर्माण के लिए बड़े कार्यबल की जरूरत पड़ी। जिन्हें खुद भागने की जरूरत थी, वे अपने आप कच्छ आ गए। बाकी मजदूरों को यहां के सेठिया उठा लाए। बिहार और उड़ीसा से काम की तलाश में लोग लाए गए। ऐसे में सरकारी दमन से बचने के लिए तमाम रणवीरों के लिए रण से बेहतर जगह कोई नहीं हो सकती थी। रवींद्र, हरींद्र और उनके जैसे जहानाबाद के कई सवर्ण इसी प्रक्रिया के नतीजे में यहां तक पहुंचे। आज भी उनकी सामंती ठसक बातचीत और काम करने के तरीकों में साफ दिखती है।
और ये रहे द्वारकाधीश रणछोड़जी |
इस कहानी में कई झोल हो सकते हैं। ये तथ्यात्मक रूप से अपुष्ट भी हो सकती है। लेकिन मेटाफर यानी मुहावरे में चीज़ें बड़ी फिट बैठती हैं। कहते हैं कि गुजरात के द्वारका में कृष्ण का जो जग प्रसिद्ध मंदिर है, उसमें उनके रणछोड़ स्वरूप की पूजा की जाती है। कहानी कुछ यूं है कि जरासंध से युद्ध में डर कर अपने अनुचरों की प्राण रक्षा के लिए कृष्ण भागकर द्वारका आ गए थे। उन्हीं के साथ अहीर भी गुजरात में आकर बस गए थे। पूरब के लोग कृष्ण के जिस रूप की उपासना करते हैं, गुजरात में उसके ठीक उलट मामला है। हम मानते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध का धर्म सिखलाया, लेकिन गुजरात में युद्धभूमि से भाग आए रणछोड़ की स्थापना है। रवींद्र और हरींद्र गिरि की कहानी भी रणभूमि को छोड़ आए रणवीरों की आधुनिक दास्तान है।
बहरहाल, मेटाफर अपनी जगह, लेकिन सच्चाई ये थी कि दो दिन बाद बढि़या खाना खाकर मन प्रसन्न हो गया। कच्छ में गुड्डू रंगीला सुनने को मिला, भोजपुरी की मिठास महकी और दिन का अंत हुआ पान से। जी हां, उस मुस्लिम बहुल इलाके में पान का एक ठीया खुला मिल गया। एक मौलाना बैठ कर करीने से पान लगा रहे थे1 बढि़या बनारसी पत्ता था। सब कुछ ठीक था, बस सुपारी गीली नहीं मिली। यहां के लोग यानी मुस्लिम बरछी सुपारी खाना पसंद करते हैं, वो भी सूखी। बाकी हिंदू कच्छी तो पान खाते नहीं। पहली बार नगालैंड में ऐसा सुपारी कट मैंने देखा था। उसके बावजूद एक-एक पान खाकर हम चल दिए अपने गेस्ट हाउस की ओर। उसी गेस्ट हाउस की ओर, जहां एक रात पहले काफी अपमानित हुए थे हम।
खैर, अगले दिन सुबह निकलना था एक ऐसे मुक़ाम पर जहां कोई नहीं रहता। कोई नहीं, मतलब कोई नहीं। विकीपीडिया पर इसे ‘गोस्ट सिटी’ का दर्जा मिला हुआ है यानी भुतहा शहर। भुज से कोई 150 किलोमीटर की दूरी पर बसा ये शहर अब उजाड़ है। कभी सिंधु नदी के रास्ता बदल लेने के बाद एक दौर का सबसे व्यस्त और अमीर बंदरगाह आज पर्यटक मानचित्र पर ही बचा रह गया है। यहां एक दिन में एक लाख कौड़ी का करोबार हुआ करता था, लिहाजा नाम पड़ा लखपत। अगले अध्याय में करेंगे लखपत की सैर। फिलहाल बस एक झलक नीचे।
भुतहा शहर कोट लखपत जिसके भीतर छिपा है समृद्धि और तबाही का एक इतिहास |
एक बात और… अभी हम रण छोड़ कर नहीं जा रहे। दरअसल, हमारी समूची यात्रा ही कच्छ के रण के इर्द-गिर्द प्रस्तावित है। लखपत भी रण के किनारे है। और हां, रण छोड़ कर जाना एक भ्रम के अलावा कुछ नहीं। कृष्ण हों या गिरि बंधु, एक रण छोड़ के आए तो दूसरे में फंस गए। इसलिए रणछोड़ की पूजा कर लेने भर से कोई अहिंसक नहीं हो जाता, जैसा कि गुजरातियों के बारे में आमफ़हम भ्रांति है। गुजरात के समाज में रणछोड़ की पूजा और हिंसा के बीच एक गहरा संबंध है, लेकिन ये सब भारी बातें कभी और।
कच्छ कथा-5: इस शहर को मौत चाहिए
कच्छ कथा-1 : थोड़ा मीठा, थोड़ा मीठू
कच्छ कथा-2 : यहां नमक मीठू क्यों है
कच्छ कथा-3 : कच्छी समाज की घुटन के पार
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