सोमवार को ‘बाजार’ में दो हीं खबरें थीं। पहली खबर यह कि भाजपा के शीर्षपुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है और दूसरा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का इंतकाल हो गया है। हालांकि उसमें से सिर्फ एक ही खबर थी -लालकृष्ण आडवाणी का इस्तीफा, बाकी तो वाजपेयी जी के इंतकाल की खबर 2004 के बाद हर उस दिन ‘उड़ती’ है जिस दिन संघ या भाजपा में कोई संकट होता है (खैर, इस पर चर्चा अलग से क्योंकि अफवाहों को अंजाम तक पहुंचाने का काम इससे जुड़े लोग कुछ इस अंदाज में करते हैं कि गणेश जी दूध तक पीने लगते हैं!)।
लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे की खबर सचमुच बहुत दिनों के बाद बड़ी राजनीतिक खबर थी जो सीधे तौर पर किसी तरह के घोटाले से नहीं जुड़ी हुई थी। आडवाणी का इस्तीफा एक ऐसे आदमी की पूरी कहानी है जिन्होंने घनघोर रूप से पुरातनपंथी, कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी भारतीय मन और आत्मा को उद्वेलित कर राजनीति के मुख्यधारा में सक्रिय करा दिया था।
लेकिन जिस आडवाणी ने कल भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा दिया है उसके बारे में जिनको जो भी कहना हो, इतना तो तय है कि वह भाजपा के एकमात्र गेमचेंजर हैं। लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं जिन पर बात हुए बगैर कई बातें अधूरी रह जाती हैं। वैसे आज आडवाणी के लिए किसी के मन में कोई सहानुभूति नहीं बची है लेकिन क्या आडवाणी दिल पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा देने का कारण वही है जो उन्होंने अपनी चिट्ठी में लिखा है। क्या सचमुच भाजपा वैसी पार्टी नहीं रह गई है जैसी पहले थी। अर्थात उनकी नजर में अब भाजपा ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ नहीं बल्कि ‘पार्टी विथ डिफरेंसेस’ हो गई है।
क्या ये वही आडवाणी नहीं हैं जिन्होंने 2002 में गुजरात में हो रहे नरसंहार के दौरान प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा मोदी को हटाने का निर्णय लेने के बाद मुख्यमंत्री के पद पर बनाए रहने के लिए बाध्य कर दिया था (मेरा मतलब यह नहीं है कि वाजपेयी बहुत सेकुलर व्यक्ति थे और गुजरात में हो रहे नरसंहार के खिलाफ थे। वह वाजपेयी ही थे जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के खिलाफ धरने पर बैठ गए थे और फिर बाद में उन्होंने इस हरकत को महिमामंडन करते हुए इसे ‘राष्ट्रीय भावना का प्रकटीकरण’ कह दिया था। इसी तरह गुजरात में हो रहे दंगे के दौरान उन्होंने एक बार फिर अपनी पुरानी परंपरा को दोहराते हुए कहा था- ‘आखिर शुरुआत किसने की थी?’)
आडवाणी के एक करीब के सहयोगी और उनके बहुत बड़े प्रशंसक का कहना था कि आडवाणी जी के इस्तीफे को मोदी की ताजपोशी से जोड़कर कतई नहीं देखना चाहिए। उनकी व्याख्या तो इस बारे में यहां तक थी कि उन्होंने इस्तीफा देकर सचमुच एक ‘स्टेट्समैन’ का काम किया है क्योंकि हमारे देश में मोदी जैसों के लिए कोई जगह नहीं है। उनका कहना था कि भारत के लोग मोदी जैसे कट्टरपंथी व्यक्ति को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। वे तो यह भी कह रहे थे कि अगर मोदी प्रकरण न भी हुआ होता तो आडवाणी जी ने इस्तीफा देने का मन बना लिया था।
उनके जैसे व्यक्ति से यह सुनकर थोड़ा बुरा लगा। आखिर कैसे उस व्यक्ति को लगता है कि आडवाणी के इस्तीफे का मोदी के कंपैन कमिटी के प्रमुख बनने से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जो व्यक्ति उन्हें स्टेट्समैन का दर्जा दे रहा है वह क्यों इस बात को नहीं देखना चाहता है कि उनके मन में प्रधानमंत्री पद की लालसा थी जो मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाते ही खत्म हो गयी। हालांकि जानने वाले यह भी जानते हैं कि प्रचार समिति के अध्यक्ष का बहुत ज्यादा अर्थ नहीं होता है क्योंकि दिमाग पर काफी जोर देकर सोचने से भी यह बात दिमाग में बमुश्किल आती है कि जब आडवाणी 2009 में एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे उस समय अरुण जेटली के जिम्मे यह जिम्मेदारी थी और 2004 में वाजपेयी के ‘इंडिया शाइनिंग’ कंपेन का जिम्मा प्रमोद महाजन के ऊपर था।
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बलराज मधोक से साथ ‘लौह पुरुष’ आडवाणी |
आडवाणी के इस्तीफे से भाजपा में जितना भी हंगामा मचा हो, भाजपा के शीर्ष पुरुष की महत्ता पार्टी के समर्थकों में तो घटी ही है। भाजपा समर्थित लोगों को लगने लगा है कि ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने देने से रोकने में कांग्रेस या कोई और नहीं बल्कि उनके अपने राजनैतिक गुरु आडवाणी हैं जो नहीं चाह रहे हैं कि मोदी प्रधानमंत्री बने। आडवाणी के घर के बाहर जाकर प्रदर्शन करने वाले वही घनघोर पुरातनपंथी, कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी भारतीय मन और आत्मा वाले भाजपा समर्थक लोग ही हैं जिन्हें उन्होंने राजनीति में शामिल करा दिया था।
आखिर भाजपाई या भाजपा के समर्थक इसे क्यों भूल जाते हैं कि इसी अटल-आडवाणी की जोड़ी ने 48 साल पहले जनसंघ के शीर्ष पुरुष बलराज मधोक को बड़े बेआबरू करके निकाल दिया था। आज अगर नरेन्द्र मोदी उनके साथ यही खेल खेल रहा है तो कौन सा अन्याय कर रहा है। हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि मोदी उनका सिर्फ शिष्य था। लालकृष्ण आडवाणी तो बलराज मधोक के निजी सहायक (पीएस) थे।
साभार: यहां से देखो
लालकृष्ण आडवाणी वाजपेयी के पीए थे। 1957 में वाजपेयी के लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद आडवाणी की ड्राफ्टिंग की काबलियत देखते हुए यह जिम्मेदारी दी गई थी। मधोक के वे कभी पीएस नहीं रहे।
अच्छी और सारगर्भित टिप्पणी है । 'यहाँ से देखो'की शुरुआत के लिए जितेंद्र जी को बधाई !
mukhya dhara se hatne ke bad uchcha padoin par baidhe log bhi boune ho jate hain. pitamah ka khitav pa chuke L.K. Adwani ko bhi yah khayal rakhna chahiye tha