तन मन जन: कोरोना के बाद अब उसकी वैक्सीन का डर!

कोरोना वायरस संक्रमण के वैश्विक प्रचार और दहशत के बाद अब जो चर्चा सरेआम है वह है इसके वैक्सीन से उपजी दहशत की। वैक्सीन की वैधता, गुणवत्ता तथा भविष्य में इसके दुष्‍परिणाम पर छिटपुट बहस के अलावा लगभग हर ओर चुप्पी है। सरकारें भी स्पष्ट नहीं हैं कि वैक्सीन सरकार लाएगी या बाजार। कीमत और उपलब्धता भी स्पष्ट नहीं है।

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तन मन जन: क्या आपको लगता है कि वैक्सीन लगाते ही ‘कोरोना प्रूफ’ हो जाएंगे? आप गलतफहमी में हैं!

जिसे भी देखिए वह थोड़े लापरवाह स्थिति में वैक्सीन के नाम से ही आश्वस्त है कि, ‘‘अब डर काहे का, वैक्सीन तो आ ही रही है।’’ ऐसा कहते चक्‍त यह भी जानिए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन वैक्सीन को लेकर क्या कह रहा है। संगठन के हेल्थ इमरजेन्सी डायरेक्टर माइकल रेयान का वक्तव्य तो डराने वाला है। वे कहते हैं कि ‘‘हो सकता है हमें वायरस के साथ ही जीना पड़े।’’

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तन मन जन: COVID-19 पर संसदीय समिति की रिपोर्ट सरकार की नाकामी पर एक गंभीर टिप्पणी है

कोविड-19 के संदर्भ में सरकार की कार्यप्रणाली पर किसी संसदीय समिति की यह पहली रिपोर्ट है। देश में 138 करोड़ आबादी की स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च को बहुत कम बताते हुए संसदीय समिति ने कहा है कि देश की जर्जर स्वास्थ्य सुविधाएं कोविड-19 महामारी से निबटने में सबसे बड़ी बाधा है।

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तन मन जन: कोरोनाकाल में डायबिटीज़ का जानलेवा कहर!

इस कोरोनाकाल में मधुमेह रोगियों की ज्यादा उपेक्षा हो रही है। प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ‘द लान्सेट’ के एक अध्ययन के अनुसार ज्यादा उम्र के डायबिटिक लोगों की स्थिति कोरोनाकाल में जानलेवा है। यह अध्ययन चीन के वुहान के दो अस्पतालों में 191 मरीजों पर किया गया।

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तन मन जन: कोरोनाकाल में कैंसर के उपेक्षित रोगी

कोरोनाकाल में कैंसर रोगियों की उपेक्षा ने न केवल कैंसर बल्कि अन्य भयावह रोगों की गिरफ्त में फंसे असहाय लोगों के ज़ख्म पर नमक छिड़कने का काम किया है। साथ ही अमानवीयता के उदाहरण भी पेश किए हैं।

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तन मन जन: चुनावी लहर के बीच उभर चुकी कोरोना की दूसरी लहर पर कब बात होगी?

चुनाव के दौरान नेताओं के लिए जनता का उमड़ना लाजिमी है। बिहार चुनाव में तो कोरोना कहीं लग ही नहीं रहा। आश्चर्य है। न कोई गाइडलाइन न कोई परहेज। मास्क की बात तो क्या करें लोगों को नंगे बदन बूथ पर वोट डालने के लिए घंटों कतार में लगे देख लें।

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तन मन जन: ‘स्वास्थ्य की गारंटी नहीं तो वोट नहीं’- एक आंदोलन ऐसा भी चले!

भारत में जन स्वास्थ्य राजनीति का मुख्य एजेण्डा क्यों नहीं बन पाया? यह सवाल भी उतना ही पुराना है जितना कि देश में लोकतंत्र। आजादी के बाद से ही यदि पड़ताल करें तो लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा की मांग तो जबरदस्त रही लेकिन राजनीति ने लगभग हर बार इस मांग को खारिज किया। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ तथा कई गैर सरकारी संगठनों ने अपने तरीके से जन स्वास्थ्य का सवाल उठाया, सरकारों ने महज नारों को स्वास्थ्य का माध्यम माना और संकल्प, दावे, घोषणाएं होती रहीं लेकिन जमीन पर हकीकत कुछ और है।

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तन मन जन: महामारी से भी बड़ी बीमारी है लॉकडाउन से उपजी गरीबी

कोरोनाकाल में सामूहिक तौर पर भारत के आम लोगों की स्थिति इसी मरणासन्न मरीज की तरह हो गई है जिसे अपनी जिन्दगी भी बचानी है। सवाल अस्तित्व का है। संकट विकट है।

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तन मन जन: कोरोना-काल में बढ़ता प्रदूषण जानलेवा तबाही की दस्तक है!

दिल्ली के अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने भी कहा है कि प्रदूषण यदि जरा भी बढ़ा तो फेफड़ों और श्वसन सम्बन्धी बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि होगी और यह लोगों के लिए जानलेवा होगा।

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तन मन जन: क्लिनिकल ट्रायल की भयावह हकीकत और वैक्सीन के खोखले वादे

भारत ऐसे ही मनमाने क्लिनिकल ट्रायल्स के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल देश था। सन् 2011 में मध्यप्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज में मानसिक रूप से अस्वस्थ 241 लोगों पर एक बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनी के क्लिनिकल ट्रायल में काफी गड़बड़ियों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने दखल देकर भारत सरकार को सख्त गाइडलाइन बनाने का आदेश दिया था। इस सख्ती के बाद भारत में क्लिनिकल ट्रायल के धंधे में काफी मंदी आ गयी।

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