तन मन जन: COVID-19 पर संसदीय समिति की रिपोर्ट सरकार की नाकामी पर एक गंभीर टिप्पणी है


“कोविड-19 पर भारत की संसदीय समिति’ ने कोविड-19 के नाम पर मरीजों से उपचार शुल्क के नाम पर मनमानी रकम वसूलने को अमानवीय माना है। समिति के अध्यक्ष वरिष्ठ सांसद प्रो. रामगोपाल यादव ने राज्यसभा के सभापति श्री एम. वेंकैया नायडू को सौंपी अपने रिपोर्ट में लिखा है कि कोरोना वायरस संक्रमण के मामले बढ़ने, सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिए पर्याप्त संख्या में बिस्तर न होने तथा कोविड-19 के इलाज के स्पष्ट दिशानिर्देशों के अभाव में देश के निजी अस्पतालों ने मरीजों से मनमानी रकम वसूली है। संसदीय समिति ने कहा है कि इलाज के लिए उचित मूल्य तथा अस्पतालों की जिम्मेवारी तय करके अनेक मरीजों को असमय मौत से बचाया जा सकता था।

उल्लेखनीय है कि कोविड-19 के संदर्भ में सरकार की कार्यप्रणाली पर किसी संसदीय समिति की यह पहली रिपोर्ट है। देश में 138 करोड़ आबादी की स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च को बहुत कम बताते हुए संसदीय समिति ने कहा है कि देश की जर्जर स्वास्थ्य सुविधाएं कोविड-19 महामारी से निबटने में सबसे बड़ी बाधा है। समिति ने जन स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकार का खर्च बढ़ाने की सिफारिश की है। समिति ने स्पष्ट कहा है कि अगले दो वर्षों में स्वास्थ्य पर जीडीपी का 25 फीसद खर्च करने की जरूरत है। समिति ने यह भी स्पष्ट किया है कि सन् 2025 तक देश में व्यापक रूप से जन स्वास्थ्य सुविधाओं का समुचित ढांचा खड़ा करना जरूरी है।

संसदीय समिति ने चिन्ता व्यक्त की है कि पर्याप्त जन स्वास्थ्य सुविधाएं न होने पर आम लोगों को भीषण संकट का सामना करना पड़ रहा है और बड़़ी संख्या में लोगों की मौत भी हो रही है। आम लोग निजी अस्पतालों में कोविड-19 के नाम पर मनमानी वसूली के शिकार हैं। सरकार द्वारा कोविड-19 मामले में स्पष्ट दिशानिर्देश के अभाव में निजी अस्पतालों पर इलाज फीस की वसूली पर कोई रोकटोक नहीं होने की कीमत गरीब व मध्यम वर्ग के मरीजों को चुकानी पड़ रही है। संसदीय समिति ने जोर दिया है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और महामारी के मद्देनजर सरकारी और निजी अस्पतालों के बीच बेहतर साझेदारी की जरूरत है। समिति ने कहा है कि जिन चिकित्सकों ने कोविड-19 महामारी के खिलाफ लड़ाई में अपनी जान दे दी उन्हें शहीद के रूप में मान्यता दी जाए तथा उनके परिवारों को समुचित व पर्याप्त मुआवजा दिया जाए।

विडम्बना यह है कि ‘‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017’’ में भी सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च को बढ़ाकर 2.5 फीसद करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, मगर उसका प्रभाव दिख नहीं रहा। यह सन् 2025 तक का लक्ष्य है। सच तो यह है कि अब तक देश में स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी का 1.7 फीसद ही खर्च किया जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 को यदि व्यापक रूप से देखें तो संस्थागत रूप से यह रिपोर्ट स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचागत विकास और सुधार की बात तो करती है मगर जन स्वास्थ्य में जनता की भागीदारी एवं निजी अस्पतालों की जिम्मेदारी पर स्पष्ट नहीं है। जाहिर है कि व्यापक जन भागीदारी के अभाव में जन स्वास्थ्य ढांचे व कार्यक्रम को प्रभावी बनाना बेहद मुश्किल है।

भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 1.7 फीसदी है, जो गरीबों और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी कम है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका व सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गई है जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागज़ी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है। एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है।

नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है। यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने का आरंभ हुआ। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है।

कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन 1980 और 1990 के दशकों में घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को आवंटित किया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।

सरकारी क्षेत्र की बढ़ती प्रभावहीनता के चलते गरीबों में बढ़ता मोहभंग और हताशा उन्हें निजी क्षेत्र की ओर धकेल रही है जिसके कारण वे कर्ज लेकर भारी राशि व्यय करने को मजबूर हैं या फिर वे ‘झोलाछाप’’ लोगों के रहमोकरम पर छोड़ दिए जाते हैं। अनुमान भिन्न हो सकते हैं, लेकिन सरकार 20-30 फीसदी से ज्यादा व्यय स्वास्थ्य पर नहीं करती है। निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य क्षेत्र पर व्यय में हिस्सेदारी 1990 में 14 फीसदी थी जो 2018 में बढ़कर 67 फीसदी हो गई। भारत के करीब 67 फीसदी अस्पताल, 63 फीसदी दवाखाने और 78 फीसदी डॉक्टर निजी/कॉरपोरेट क्षेत्र में हैं।

COVID-19 पर संसदीय समिति की रिपोर्ट उपराष्ट्रपति को सौंपी गई

चिकित्सीय आचारों के बढ़ते निजीकरण और व्यावसायीकरण तथा औषधि व उपकरण निर्माताओं के साथ उनके रिश्तों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन करीब 130 अनिवार्य औषधियों की सिफारिश करता है लेकिन भारतीय बाजार में 4000 से ज्यादा औषधियां उपलब्ध हैं। इसके चलते स्वास्थ्य सेवाओं को खरीद पाना ग्रामीण गरीबों की क्षमता के दायरे से बाहर चला गया है। हाल के दो अखिल भारतीय सर्वेक्षणों (एनएसएसओ का 46वां चरण और एनसीएईआर, नई दिल्ली) ने दिखाया है कि दहेज प्रथा के बाद चिकित्सीय उपचार ग्रामीण कर्जदारी का दूसरा सबसे अहम कारण है।

कोरोना महामारी ने भारतीय चिकित्सा क्षेत्र की विसंगतियों एवं दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की पोल खोलकर रख दी है। सरकार चाहे जितने दावे करे मगर इस वायरस संक्रमण ने साबित कर दिया है कि देश का स्वास्थ्य तंत्र महामारियों व बीमारियों से लड़ने में सक्षम नहीं है। इसे तो विडम्बना ही कहेंगे कि कोविड-19 के उपचार के नाम पर निजी अस्पतालों ने एक एक मरीज से महज एक दिन के उपचार के ‘एक लाख रुपये’ वसूले। एक तरफ तो निजी अस्पतालों की बेहद महंगी फीस का आतंक, दूसरी ओर सरकारी अस्पतालों में मरीज एक दिन भी न टिक सके?

राजधानी दिल्ली और इसके आसपास एनसीआर के अस्पतालों की हालत भी दयनीय है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी चिन्ता व्यक्त की और सरकार से तुरन्त मरीजों के सहज व मुफ्त इलाज की उम्मीद की है। निजी अस्पतालों में कोरोना वायरस के मरीजों के निःशुल्क इलाज तथा अस्पतालों में मरीजों को सुविधा देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना तथा न्यायमूर्ति ऋषिकेश राय की पीठ ने चिन्ता व्यक्त की कि ऐसे निजी अस्पताल जिन्हें मुफ्त या बेहद कम रकम पर अस्पताल के लिए जमीन आवंटित की गई है उन्हें कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों का निःशुल्क इलाज करना चाहिए। इस जनहित याचिका में यह भी मांग की गई है कि ऐसे व्यक्ति जो आर्थिक रूप से गरीब एवं अभावग्रस्त हैं तथा सरकार की आयुष्मान योजना के दायरे में नहीं आते हैं उनका इलाज खर्च सरकार वहन करे।

कोरोनाकाल में कोविड-19 के मरीजों के दुख दर्द जो हैं सो तो जग जाहिर है लेकिन गैर कोविड-19 मरीजों की तो चर्चा ही नहीं हो रही। इस दौरान सबसे ज्यादा परेशान मरीजों में वे मरीज ज्यादा हैं जिनकी डायलिसिस, कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी चल रही है तथा जिन्हें तत्काल आप्रेशन (शल्य चिकित्सा) की जरूरत है। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग डेढ़ करोड़ ऐसे मरीज हैं जिन्हें महीने-दो-महीने में शल्य चिकित्सा की जरूरत पड़ रही है मगर कोरोनाकाल में उनका उपचार नहीं हो पा रहा है। देश के अधिकांश निजी सुपरस्पेशलिटी अस्पताल इस दौरान या तो कोविड-19 अस्पताल घोषित कर दिए गए या आम मरीजों के लिए बन्द कर दिये गए। गैर कोविड-19 मरीजों की परेशानी का आलम रोज मुख्य खबर बनने की बाट जोहता रहा मगर टीआरपी के भूखे चैनल या तो सुशान्त-रिया में फंसे रहे या सत्ता की चाटुकारिता करते रहे। आम मरीज और लॉकडाउन से परेशान 70 फीसद आम जन तक न तो मीडिया पहुंचा और न ही उनकी खबर उसने दिखायी। इधर मरीज बेहाल रहे तो उधर उठापटक कर सरकार बनाने में राजनीतिक दल व्यस्त रहे। आजादी के बाद आम लोगों की इतनी बड़ी अफरातफरी सम्भवतः पहली बार देखी गई।

कोरोना वायरस संक्रमण का यह सम्भवतः तीसरा तेज दौर है जिसमें फिर से पूरी दुनिया में मामले बढ़ रहे हैं। सबसे बुरी स्थिति भारत की है जहां अब रोजाना एक लाख से ज्यादा मामले आ रहे हैं। इनमें से 50-60 हजार ही रिकार्ड किये जा रहे हैं। स्थिति विस्फोटक है। दूसरी चिन्ता की बात यह है कि कोरोना वायरस संक्रमण के गम्भीर रोगियों में बहुचर्चित दवा ‘‘रेमिडेसिवर’’ को विश्व स्वास्थ्य संगठन अपनी सूची से ही बाहर कर चुका है। दरअसल कोविड-19 एक नया खतरनाक वायरस संक्रमण है और इसके उपचार में भी स्पष्टता नहीं है इसलिए आम लोगों में मौत का भय और भविष्य की चिंता लाजिमी है। एलोपैथिक चिकित्सा के पैरोकार पूरी समझ और रणनीति के तहत प्रभावी होमियोपैथिक एवं आयुर्वेदिक दवा को कोविड-19 के उपचार एवं बचाव के पावन कार्य से दूर रखने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं।

यहां मैं दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री श्री सत्येन्द्र जैन जी की हिम्मत की दाद दूंगा कि प्रदेश के नागरिकों को कोरोना वायरस संक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने होमियोपैथी के विशेषज्ञों की समिति बनाकर उनकी अनुशंसा पर होमियोपैथी की दवा के कोविड-19 में उपचार एवं बचाव की क्षमता जांचने के लिए ‘‘क्लिनिकल ट्रायल’’ की अनुमति दी है। यह ट्रायल दिल्ली में शुरू हो चुका है।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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