ये जनसैलाब कुछ कहता है…


तेजस्वी यादव न तो अपने पिता लालू यादव की तरह करिश्माई शैली वाले नेता हैं और न ही उनके भाषणों में वो मसखरेपन वाली बात है कि सुनने वाले को सच से रूबरू कराते हुए गुदगुदाये भी। न ही तेजस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसी शख्सियत हैं जिन्हें सुनने और देखने लोगों का हुजूम बिना बुलाये ही जमा हो जाय। ऐसा भी नहीं कि वे बिहार के कोई नये नवेले नेता हैं जिन्हें देखने-सुनने लोग आ रहे हैं। फिर आखिर क्या वजह है कि उनकी रैलियों में उमड़ रहे जनसैलाब से विपक्षी दलों की नींद उड़ गयी है?

पिछले एक हफ्ते में जिस तरह से बिहार की चुनावी हवा बदली है, उसने न सिर्फ जनता को बल्कि राजनीतिक दलों और राजनीतिक पंडितों तक को हैरान कर दिया है। चुनावी प्रक्रिया शुरू होने से पहले यानी पिछले महीने तक जो लोग ये दावा करते नहीं अघाते थे कि नीतीश का कोई विकल्प नहीं है; वही फिर से सीएम बनेंगे; तेजस्वी में वो बात नहीं है; लालू यादव के जेल में होने से वो अकेला पड़ गया है; लालू अगर बाहर होते तो बात कुछ और होती; वही लोग अब दबी जुबान से सही, यह मानने लगे हैं कि महागठबंधन एनडीए को तगड़ी चुनौती दे रहा है।

बिहार का निवासी और पत्रकार होने के बावजूद बिहार की राजनीति से मेरा सीधे सरोकार नहीं रहा है और न ही बिहार के किसी विधायक, सांसद या मंत्री से नजदीकी है। इसकी वजह मेरी कर्मभूमि का दिल्ली होना है। बिहार की राजनीति को मैं यहीं से देखता-समझता रहा हूं। इस बार जो मैं देख और समझ पा रहा हूं, वो मेरे लिए हैरानी का विषय है।

बिहार में सभी पार्टियों ने बड़ी-बड़ी रैलियां की हैं। पटना का गांधी मैदान इसका गवाह रहा है। एक दौर ऐसा भी था जब पार्टियों के बीच इस बात की होड़ रहती थी कि कौन कितनी बड़ी रैली करता है, मगर उन रैलियों के पीछे एक हकीकत यह भी थी कि लाखों की भीड़ पैसे देकर जुटायी जाती थी। गांवों से लोग ट्रकों, बसों और ट्रेनों में भर कर पटना पहुंचते थे। उनमें से खासकर गरीबों का यह ध्येय होता था कि इसी बहाने वे पटना घूम लेंगे। चुनावी रैलियों में देशभर में ऐसा ही होता रहा है। सभी पार्टियां ऐसा ही करती रही हैं और कर रही हैं। इस बार हालांकि तेजस्वी की चुनावी रैलियों में जिस तरह से जनसैलाब उमड़ रहा है, वो अप्रत्याशित है। विपक्ष के लोग इसके पीछे वही पुरानी और घिसी-पिटी बातें कर रहे हैं कि पैसे देकर भीड़ जुटायी जा रही है और लोग तेजस्वी को देखने आ रहे हैं। अगर ऐसा वाकई है, तो एक-दो जगहों पर ही यह देखने को मिलता मगर इस बार तो हर जगह ऐसा ही देखने में आ रहा है, खासकर पहले चरण के मतदान वाले क्षेत्रों में। हर जगह इतनी भीड़ पैसे देकर नहीं जुटायी जा सकती, वो भी तब जब एक ही दिन में वे कई रैलियां कर रहे हों।

अगर ऐसा होता तो नीतीश या भाजपा के नेताओं की रैलियों में भी इसी तरह की भीड़ उमड़ सकती थी। महागठबंधन की ओर से उन्होंने अकेले कमान संभाल रखी है जबकि एनडीए की ओर से नीतीश के अलावा भाजपा के तमाम बड़े नेता मौजूद हैं, जिनमें मोदी, योगी, नड्डा, राजनाथ जैसे दिग्गज शामिल हैं। दूसरी तरफ नीतीश कुमार और उनके मंत्री जहां-जहां भी जा रहे हैं और चुनावी सभा कर रहे हैं, उन्हें विरोध का सामना करना पड़ रहा है। विरोधियों को मंच से धमकाने का नीतीश कुमार का ताजा और पुराना वीडियो भी खूब वायरल हो रहा है जो उनकी सुशासन वाली छवि को नुकसान पहुंचा रहा है। नरेंद्र मोदी और सुशील मोदी के 2015 चुनाव के वीडियो भी खूब वायरल हो रहे हैं जिसमें दोनों नेता नीतीश कुमार और उनकी सरकार को पानी पी-पी कर कोस रहे हैं, हालांकि ये भी सच है कि बड़ी भीड़ वोट में तब्दील हो ही जाए, ऐसा जरूरी नहीं है। इसके बावजूद यह भीड़ स्वतः स्फूर्त दिखती है।

तेजस्वी अपने भाषणों में 10 लाख युवाओं को नौकरी देने, कोरोना काल में प्रवासियों पर हुई ज्यादतियों, गरीबों, किसानों और मजदूरों की बात कर रहे हैं। साथ ही सभी धर्म और जातियों को साथ लेकर चलने की भी बात कर रहे हैं। ये सिर्फ भाषणों में नहीं बल्कि टिकट बंटवारे में भी उन्होंने कर दिखाया है। उन्होंने इस बार एक तरफ राजद के पुराने और अनुभवी नेताओं पर भरोसा जताया है, दूसरी तरफ सवर्णों और युवाओं को भी अच्छी-खासी संख्या में टिकट दिया है। मुस्लिम और यादव तो उनके भरोसेमंद वोटर हैं मगर इस बार जातिगत स्तर पर जो बड़ा बदलाव दिख रहा है वो है भूमिहारों और राजपूतों का उनकी ओर मुड़ना।

ये दोनों अगड़ी जातियां इस बार नीतीश से बुरी तरह नाराज़ हैं। शायद यही वजह है कि वे राजद के समर्थन में हैं। वो भी तब जब तेजस्वी के पिता लालू यादव ने एक समय नारा दिया था- ‘भूराबाल’ साफ करो। उस समय भूमिहारों और यादवों में वर्चस्व की लड़ाई थी। अब लगता है कि समय के साथ उन्होंने पुरानी बातों को भूलने का मन बना लिया है। हो सकता है कि ऐसा उस फॉर्मूले के तहत हो रहा हो कि चाहे जिसे भी लाना पड़े, इसे नहीं लाना है।

दूसरी तरफ नीतीश अपने उन विकास कार्यों को गिना रहे हैं जो उन्होंने पहले और दूसरे कार्यकाल में किए थे। भाजपा भी केंद्र सरकार के अपने विकास कार्यों, राम मंदिर आदि का हवाला दे रही है। ऐसा लगता है कि इन बातों पर उसके कार्यकर्ताओं को छोड़ कर दूसरे वोटर ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं। यही नहीं, जेपी नड़्डा ने सीएए और एनआरसी के मामले को उठा कर जाने अनजाने ही उन मुस्लिम वोटरों को नाराज कर दिया है जो जदयू को वोट देते रहे हैं।

नीतीश का विकल्प तैयार करने में लोजपा प्रमुख चिराग पासवान और रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा की अहम भूमिका है। दोनों जनता को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे हैं कि राजनीति में विकल्पहीनता की स्थिति कभी नहीं होती, बस ज़रूरत है जनता का मन बदलने की। चिराग पासवान ने जो रास्ता अख्तियार किया है वह उन्हें कामयाबी दिला पाएगा या नहीं, यह तो भविष्य के गर्त में है मगर नीतीश कुमार को वह नुकसान जरूर पहुंचा रहा है। ऐसा ही पिछले चुनाव में झारखंड में हुआ था जब भाजपा ने रघुवर दास पर भरोसा कर आजसू को उसकी मांग के मुताबिक सीटें देने से इनकार कर दिया था। आजसू ने अकेले चुनाव लड़ा, हालांकि उसे 3-4 सीट ही मिली लेकिन करीब एक दर्जन सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की हार का कारण आजसू ही था।

चिराग लगातार कह रहे हैं कि अगली सरकार भाजपा-लोजपा की बनेगी, मगर ऐसा होगा इसमें मुझे संदेह है क्योंकि लोगों की नाराजगी भाजपा से भी है। इसकी एक बड़ी वजह है कोरोना महामारी। बीते एक-डेढ़ साल को छोड़ दें तो पिछले 15 साल से भाजपा, जदयू के साथ सरकार में है और ऐसा दिखाया जा रहा है या दिखाने की लगातार कोशिश हो रही है कि जनता की नाराजगी भाजपा से नहीं नीतीश से है, इसलिए भाजपा को नुकसान नहीं होगा। इसमें भाजपा के विशालकाय प्रचार तंत्र की बड़ी भूमिका है। दरअसल, कोरोना काल में जिस तरह से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अचानक लॉकडाउन कर के लोगों की मुश्किलें बढ़ायीं और बिहार के प्रवासियों को हजारों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर होना पड़ा; अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ा; जगह-जगह पुलिस के डंडे खाने पड़े; और चिलचिलाती गर्मी में ट्रेनों में लोगों की मौत हुई, इन सबने उनके घाव पर नमक छिड़कने का काम किया। भाजपा के खिलाफ नाराजगी की यह बड़ी वजह है।

इन प्रवासियों में लाखों अब अपने-अपने रोजगार के ठिकाने वाले अन्य प्रदेशों में वापस जा चुके हैं, लेकिन अब भी आधे से ज्यादा वैसे प्रवासी जिनका रोजगार छिन चुका है या फिर उनके परिवार वाले उन्हें अभी वापस जाने नहीं दे रहे (इनमें 25 साल तक के युवाओं की संख्या सबसे ज्यादा है जिनमें से ज्यादातर इस बार पहली बार वोट करेंगे और उन्होंने 15 साल से नीतीश को ही देखा है, लालू राज के बारे में तो उन्होंने सिर्फ सुना है जिसे इस चुनाव में जदयू-भाजपा की ओर से भुनाने की कोशिश हो रही है), वे अपने दर्द और मुश्किलों को भूले नहीं हैं। तेजस्वी लगातार अपने भाषणों में इस बात का जिक्र कर रहे हैं। जहां तक नीतीश कुमार से नाराजगी का सवाल है, कोरोना काल के अलावा कई अन्य कारण हैं।

https://twitter.com/iChiragPaswan/status/1319558801847013382?s=20

दरअसल, चिराग दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। एक तरफ वे नीतीश को सत्ता से हटाना चाहते हैं दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी और भाजपा से निकटता भी बनाये रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि उनके मनमुताबिक सीटें मिल गयीं और भाजपा की भी स्थिति अच्छी रही, तो उनकी सरकार बन जाएगी। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो वे केंद्र की सत्ता में बने ही रहेंगे। एक स्थिति यह भी हो सकती है कि वे किंगमेकर की भूमिका में आ जाएं, जैसा 2005 में उनके पिता रामविलास पासवान के साथ हुआ था। ऐसा त्रिशंकु विधानसभा होने पर होगा। इस स्थिति में उन्हें भाजपा से दूर होने में जरा भी वक्त नहीं लगेगा और वे महागठबंधन के साथ जा सकते हैं, हालांकि इस स्थिति में उनकी पार्टी के टूटने का भी खतरा होगा क्योंकि उनके ज्यादातर उम्मीदवार भाजपा के वे बागी हैं जिन्हें टिकट नहीं मिला या फिर वे जिनकी सीटें जदयू के खाते में चली गयीं। ये लोग कभी भी भाजपा के साथ जा सकते हैं। किंगमेकर की स्थिति में चिराग, नीतीश के साथ जाने से तो रहे क्योंकि भाजपा बार-बार यह कह रही है कि सीटें कितनी भी आएं मुख्यमंत्री नीतीश ही होंगे।

चिराग की यह चाल अब लोगों के गले नहीं उतर रही है। लोगों को लग रहा है कि लोजपा को जिताने का मतलब भाजपा को ही जिताना है। शुरुआत में तो उनका दांव सही बैठता नज़र आ रहा था, मगर स्थिति अब पूरी तरह से पलट सकती है। हां, ये ज़रूर है कि उनकी सीटें दो से बढ़कर दहाई अंक में पहुंच जाएंगी। मेरा व्यक्तिगत अनुमान एक से डेढ़ दर्जन सीटों का है।

इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा ने महागठबंधन से अलग होकर अपनी जो अलग राह चुनी है, उससे भी सियासी समीकरण में बड़ा फेरबदल होता दिख रहा है। पहले उनके एनडीए में लौटने के कयास लगाये जा रहे थे मगर उन्होंने बसपा और ओवैसी को साथ लेकर नीतीश के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं। कुशवाहा समुदाय के वोटरों का एक बड़ा तबका इस बार नीतीश से छिटक कर रालोसपा की तरफ जाता नज़र आ रहा है।

इस बार मीडिया (राष्ट्रीय अखबार और न्यूज चैनल) भी संदेहास्पद स्थिति में है। भाजपा नेताओं की चुनावी रैलियों को तो मीडिया तवज्जो दे रहा है मगर तेजस्वी की रैलियों को ऐसे दरकिनार कर दे रहा है जैसे उसे कवर नहीं करना चाहता। इसके मुकाबले राष्ट्रीय मीडिया मध्यप्रदेश में हो रहे उपचुनाव को ज्यादा तवज्जो दे रहा है। बिहार के स्थानीय मीडिया के लिए अभी चुनाव ही सबसे बड़ी खबर है, इसलिए उसकी मजबूरी है।

भला हो सोशल मीडिया और यूट्यूब चैनलों का, जो हर चीज को उधेड़ कर रख दे रहे हैं और लोग जमीनी हकीकत को देख समझ पा रहे हैं। हाल ही में जब टीवी चैनलों ने बिहार के ओपिनियन पोल में एनडीए को बढ़त होता दिखाया, तो सोशल मीडिया में उन न्यूज चैनलों और सर्वे कंपनियों की खूब छीछालेदर हुई। सर्वे कंपनियों का भी एक बड़ा खेल है जिसे लगता है सोशल मीडिया इस चुनाव में धो कर रख देगा। न्यूज चैनल तो सोशल मीडिया से परेशान हैं ही, इस बार सर्वे कंपनियों की भी शामत आने वाली है और उनकी दुकानों पर भी ताला पड़ने वाला है।

अंतिम नतीजे क्या होंगे, यह 10 नवंबर को ही पता चलेगा लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि शुरुआती भ्रम के बाद बिहार की जनता इस बार परिवर्तन का मन बना चुकी है। अब सब कुछ धीरे-धीरे स्पष्ट होता जा रहा है। मुख्यमंत्री कौन बनेगा, अभी यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हुआ है लेकिन चच्चा की विदाई तय हो चुकी है।


अभिषेक राजा दिल्ली स्थित पत्रकार हैं


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