तिर्यक आसन: कवि प्रोफेसर डॉक्टर मौलिक जी और उनके चार अंगरक्षक


विश्वविद्यालय में डॉक्टरों का सम्मेलन आयोजित हुआ। सम्मेलन में देश-विदेश के विशेषज्ञ डॉक्टर जुटे। दवा निर्माता कंपनियों ने भी शिरकत की। आपरेशन में प्रयोग होने वाले सर्जिकल औजारों की प्रदर्शनी भी लगी थी। सम्मेलन स्थल की व्यवस्था चाक-चौबंद थी। चारों तरफ पुलिस और प्राक्टोरियल बोर्ड का पहरा। सम्मेलन में अनधिकृत व्यक्तियों का प्रवेश प्रतिबंधित। बिना पास प्रवेश वर्जित।

सम्मेलन में प्रवेश के लिए मैंने पास का जुगाड़ कर लिया। प्रवेश द्वार पर खड़े सुरक्षकर्मियों ने मेरी विशेषज्ञता पूछी, तो बता दूंगा- जे. डॉक्टर। वे समझेंगे जूनियर डॉक्टर है। सीनियर बनने की प्रक्रिया में है।

मेरे पास एमबीबीएस या एमडी की डिग्री नहीं है तो क्या हुआ? विशेषज्ञों का ज्ञान सुनकर झोलाछाप डॉक्टर बनने भर की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। झोलाछाप डॉक्टर बनने की निर्माण प्रक्रिया की शुरूआत करने के लिए सम्मेलन में गया था- जे. डॉक्टर बन जाऊंगा।

झोलाछाप डॉक्टर का मखौल उड़ाया जाता है जबकि स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में व्याप्त असमानता झोलाछाप डॉक्टर को अनिवार्य बना देती है। सरकारी अस्पताल या शहर से बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर रहने वाला बुखार पीड़ित कहां से दवा ले? क्या वो शहर जाए? जितने की दवा नहीं, उससे अधिक किराया। दवा का पैसा मुश्किल से जुटाने वाला बुखार का किराया कहां से लाए? मजबूरन उसे अपने आस-पास किसी झोलाछाप डॉक्टर की शरण में जाना पड़ता है।

झोलाछाप डॉक्टर द्वारा किए गए गलत इलाज से मरीज के मौत की घटनाएं भी होती हैं। झोलाछाप डॉक्टर ‘स्पेशलिस्ट’ बनने के लिए मरीज पर प्रयोग करने लगता है। प्रसव के बाद महिला का दूध नहीं उतर रहा। दूध उतारने के लिए गाय-भैंसों का दूध उतारने वाला इंजेक्शन लगाने का प्रयोग कर देता है। प्रयोग के दौरान मरीज की मौत हो जाती है। झोलाछाप डॉक्टर के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाता है। शासन झोलाछाप डाक्टरों के खिलाफ अभियान चलाता है। 

गलत इलाज की घटनाएं स्पेशलिस्ट डॉक्टर के यहां भी होती है। कई बार वे भी प्रयोग करते हैं। हाल ही में एक समाचारपत्र से ज्ञात हुआ कि मजदूरी का काम देने के नाम पर एक अस्पताल ने मजदूरों को बुलाया और धोखे से उन पर ‘ड्रग ट्रायल’ कर दिया। ड्रग ट्रायल के प्रभाव से मजदूरों के शरीर में असामान्य परिवर्तन होने लगे। एक और समाचारपत्र के अनुसार देश में प्रतिवर्ष लगभग ढाई लाख दवाओं की मानक परीक्षा होनी चाहिए पर होती लगभग डेढ़ लाख की ही है। दवा कम्पनियों से मानक पूरा करवाने की जिम्मेदारी जिस सरकार की है, वो डॉक्टरों को कमीशनखोर बताकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेती है।  

जुगाड़ के पास के सहारे सम्मेलन में प्रवेश किया। औपचारिकताओं के साथ सम्मलेन शुरू हुआ। औपचारिकताओं के बाद व्याख्यान शुरू हुआ। विदेशी विशेषज्ञ अंग्रेजी में जानकारी देने लगे। दूसरे डॉक्टर ध्यान से सुन रहे थे। विदेशी स्पेशलिस्ट का यूके और अमेरिकन ‘प्रोनंसिएशन’ मुझ अल्पज्ञानी जे. डॉक्टर के पल्ले नहीं पड़ रहा था। अपने जे. डाक्टरत्व को बचाए रखने के लिए सम्मेलन कक्ष से बाहर निकल गया। सोचा, देश के विशेषज्ञ व्याख्यान देंगे तब वापस आऊंगा। इंडियन इंग्लिश प्रोनंसिएशन पल्ले पड़ता है।

व्याख्यान कक्ष से निकल सर्जिकल औजारों की प्रदर्शनी वाले कक्ष में गया। एक स्टॉल पर औजार देख रहा था। उसी समय सम्मेलन की सुरक्षा में चाक-चौबंद एक पुलिस अधिकारी ने प्रदर्शनी कक्ष में प्रवेश किया। उनके पीछे चार सिपाही भी थे। एक-एक कर सभी स्टॉल का मुआयना करने के बाद वे प्रदर्शनी कक्ष के बाहर चले गए। 

स्टॉल-दर-स्टॉल औजार देखने का मेरा क्रम भी जारी था। क्रमानुसार कोने में लगे स्टॉल पर पहुँचा। उसी समय एक व्यक्ति सम्मेलन कक्ष में दाखिल हुआ। उसके पीछे चार युवक। कोने वाला स्टॉल प्रवेश द्वार से सबसे अधिक दूरी पर था। प्रथम दृष्टया प्रतीत हुआ कि वही पुलिस अधिकारी और चारों सिपाही हैं। इस बार खुफिया मुआयना करने सादे कपड़ों में आए हैं। स्टॉल-दर-स्टॉल मुआयना करते, वे सभी नजदीक आए, तब उनकी पहचान स्पष्ट हुई- ये…तो….विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर ‘मौलिक’ जी हैं। मौलिक जी डॉक्टर भी हैं- डॉक्टर ऑफ फिलासफी। पूरा परिचय- प्रोफेसर डॉक्टर मौलिक जी। पहचान स्पष्ट होने के बाद सवाल उठे- विशेषज्ञ डॉक्टरों के सम्मेलन में ये क्या करने आए हैं? इन्होंने भी जुगाड़ से अधिकृत होने का पास हासिल किया होगा? सर्जिकल औजारों का क्या करेंगे? शायद अपने विभाग की चीर-फाड़ करेंगे। 

प्रोफेसर डॉक्टर मौलिक जी के पीछे चल रहे चारों युवक उनके निर्देशन में शोध करते हैं। उनमें एक मेरा मित्र भी है। मनफेर करने के लिए उससे कहता हूं- चलो, थोड़ी देर घाट पर बैठते हैं। वो कहता है- मैं यहां पढ़ने आया हूं। घूमने नहीं। ये उसका तकिया कलाम बन गया है। पीएचडी में आचार्य महिमा से परिचित हूं, इसलिए मुझे उसके इंकार से दु:ख नहीं होता। उसके अलावा एक कविता का आलोचक है। उससे व्यक्तिगत परिचय नहीं है। उसकी आलोचना से परिचय है। अन्य दो से परिचय नहीं है।

मौलिक जी का शोध देश की शिक्षा व्यवस्था में मील का पत्थर माना जाता है। पूर्ण ‘मौलिक’ शोध। मौलिक जी अपने शोध को वैश्विक बनाने के लिए प्रयासरत हैं। अपने शोध को विदेशी भाषाओं में अनुवादित कर, विदेश में भी अपने शोध के मील का पत्थर गाड़ना चाहते हैं। 

मौलिक जी के शोध का विषय था- शोध छात्र का अवैतनिक सहायक में कायांतरण, हालांकि विरोधी गुट के मौलिक प्रोफेसर शोध को पूर्ण मौलिक नहीं मानते। उनके अनुसार- सहायक की जगह परिचारक होना चाहिए। विरोधी गुट के हमलों से बचने के लिए मौलिक जी ने विश्वविद्यालय प्रशासन से सुरक्षा की मांग की है। उनकी मांग सिर्फ असलहों की है। अंगरक्षक उनके पास हैं।

मौलिक जी अपनी फिलासफी का प्रयोग अपने अंडर में शोध करने वाले सभी छात्रों पर करते हैं। उनकी फिलासफी की सफलता का प्रतिशत 99 है। एक शोध छात्र ने आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या करने वाले छात्र को मौलिक जी कभी माफ नहीं करेंगे। जिंदा रहा होता तो उनकी फिलासफी की सफलता शत-प्रतिशत होती।

मौलिक जी कवि भी हैं। कवि, प्रोफेसर बनने के बाद हुए। वे कवि वाया प्रोफेसर हुए। परिचय अब पूरा हुआ। ऊपर अधूरा रह गया था। पूरा परिचय- कवि प्रोफेसर डॉक्टर मौलिक जी। (पूरे परिचय में उपाधि संयोजन का भाष्य ठीक न लग रहा हो, तो अपने-अपने भाष्य के अनुसार कवि, प्रोफेसर और डॉक्टर को आगे-पीछे कर लें।)

प्रोफेसर बनने के बाद श्रोता और पाठक न मिलने की चिंता समाप्त हो जाती है। छात्रों के रूप में ‘यस सर’ कहने वाले पाठक मिलने के बाद हिंदी के प्रोफेसर के अंतस में साहित्यकार का भ्रूण स्वत: पड़ जाता है। प्रोफेसर के ‘अंडर’ में शोध कर रहा आलोचक उनकी कविता को कालजयी बताता है- मुक्त छंद की कविता का नया प्रतिमान रचती स्वच्छंद कविता। प्रोफेसर जिन कक्षाओं में पढ़ाते हैं, उनके छात्र कविता पर आयोजित विमर्शों में प्रोफेसर की कविता को मील का पत्थर बताते हैं। प्रोफेसर और उनके छात्र एक-दूसरे का सदुपयोग करते हैं। भ्रूण को पौष्टिक आहार देकर छात्र मंच पा जाते हैं। पत्रिकाओं में जगह देने की सिफारिश पा जाते हैं। वाइवा की वैतरणी पार कर जाते हैं। शोध कार्य पर उत्तम की मुहर लगवा लेते हैं। प्रोफेसर किस तरह छात्रों का सदुपयोग करते हैं, ये शोध कर रहा मित्र बताता है।

चुम्बक सिर्फ धातुओं को आकर्षित करता है। स्वार्थ ऐसा शक्तिशाली चुम्बक है जो हाड़-माँस से बने आदमियों को एक दूसरे से जोड़े रखता है। सात जन्मों की गाँठ सात दिन में टूट सकती है; स्वार्थ की गाँठ स्वार्थ की सिद्धि होने के बाद टूटती है।

रोजगार आधारित शिक्षा व्यवस्था ने शोध को लेकर ये धारणा बना दी है कि पीएचडी कहीं न कहीं जुगाड़ करवा ही देगी। धारणा के अनुसार बेगारी के शोध के दौरान जुगाड़ की खोज अधिक की जाती है। डॉक्टरेट की डिग्री प्रोफेसर के पद से अधिक सम्मान दिलाती है। इधर कई डॉक्टरेट प्रोफेसर हैं। वे समूह में होते हैं, तब एक दूसरे को डॉक्टर साहब कह कर सम्बोधित करते हैं। प्रोफेसर साहब नहीं कहते। एक ने बताया- यही सम्मान पाने के लिए मैंने पीएचडी की थी। 

एक पिता की इच्छा थी, उनका बेटा डॉक्टर बने। कई वर्षों के परिश्रम के बाद भी बेटा मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाया। पिता ने अपनी इच्छा का कायांतरण किया। बेटे के लिए डॉक्टरेट की डिग्री का लक्ष्य तय किया। पिता ने ये लक्ष्य खुद ही पूरा किया। संबंधों के जुगाड़ से बेटे को शोध छात्र बना दिया। बेटा डॉक्टर बन गया। बेटे के डॉक्टर बनने के बाद पिता की पहली इच्छा भी कुलबुलाने लगी। सर्दी, जुकाम, बुखार होता तो बेटे से दवा भी पूछते। बेटा दवा बता देता। बेटे की दवा से बीमारी बढ़ जाती, तब अस्पताल जाते।

एक बार मैं भी बेटे से दवा पूछने गया- डॉक्टर साहब! शिक्षा माता बीमार हैं। दवा लिख दीजिए। पिता भी वहीं थे। उन्होंने कहा- बेटा, सबसे अच्छी दवा लिखना। बेटे ने सबसे अच्छी दवा लिखी। लिखावट मैं पढ़ नहीं पाया। दवा भी नहीं ले पाया। डर था, लिखावट की पहेली में दूसरी दवा थमाई जा सकती है। पर्चा सँभाल कर रखा है। लिखावट समझने के लिए प्रयासरत हूं। लिखावट समझने लायक हो जाऊंगा, तब आधा डॉक्टर भी हो जाऊंगा- जे. पीएचडी। जूनियर डॉक्टर ऑफ फिलासफी। 

स्टॉल-दर-स्टॉल औजारों का मुआयना करते मौलिक जी कोने वाले स्टाल पर पहुँचे। मित्र द्वारा पहचाने जाने से बचने के लिए मैंने चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया। कोने वाले स्टॉल का मुआयना करने के बाद मौलिक जी आगे बढ़े। उनके पीछे चारों शिष्य भी आगे बढ़े। आगे बढ़ने के क्रम में मेरा मित्र सबसे पीछे था। स्टॉल के आगे बढ़ने पर मैं दबे पाँव उनके पीछे गया। एक हाथ से अपने मित्र का मुँह बंद किया। दूसरे से उसकी बाँह पकड़ी। उसका अपहरण करते हुए स्टॉल के पीछे ले गया। मुँह से हाथ हटाते हुए उसने कहा- आवाज देकर भी तो बुला सकते थे। मुझे उत्तर नहीं देना था। प्रश्न करना था। किया- तुम यहां पढ़ने आए हो या घूमने? पहले वो मुस्कुराया। फिर बताया- मौलिक जी के ‘अंडर’ में आ जाओ। जवाब मिल जाएगा। 

वो नहीं जानता, बिना किसी अंडर के मैं जे. पीएचडी होने के लिए प्रयासरत हूं। 

मैं वक्त जाया नहीं करना चाहता था। मौलिक जी उसकी गुमशुदगी को गुरु अपमान मान सकते थे। मैंने पूछा- गारद की तैनाती बंगले पर भी होती है? मेरा प्रश्न वो समझा नहीं। उसे समझाया- क्या तुम मौलिक जी के घर भी शोध करने जाते हो? उसने बताया- जो आलोचक है, वो सब्जी मंडी के रास्ते प्रतिदिन सर के घर शोध करने जाता है। मैं जब अपने घर जाता हूं, तभी उनके घर शोध करने जाता हूं। घर से सिद्धा-पिसान लाकर सर के घर पहुंचाता हूँ। मैंने पूछा- क्या मौलिक जी को तनख्वाह समय से नहीं मिलती? उसने बताया- मिलती है। ऊपरी कमाई का संकट है। हम उनकी ऊपरी कमाई हैं। 

मौलिक जी सिद्धा-पिसान को रिश्वत नहीं मानते। व्यवसायिक रिश्तों में इसे रिश्वत माना भी नहीं जाना चाहिए। अनिवार्यता रिश्वत नहीं होती। मजबूरी रिश्वत कही जाती है। 

रिश्वत उत्प्रेरक का कार्य करती है। सुषुप्तावस्था में पड़े दया, करुणा, कर्तव्यपरायणता आदि भावों को जागृत अवस्था में ले आती है। वाजिब शिकायत या कार्य लेकर गए आदमी की गुहार भी तब तक नहीं सुनी जाती, जब तक वो रिश्वत नहीं दे देता। रिश्वत पाकर रिश्वत लेने वाले को अपने कर्तव्य का एहसास होता है- ‘आपकी शिकायत का समाधान करना मेरा कर्तव्य है।’ धन अवगुण से भी गुण पैदा कर देता है।

विषय परिवर्तन के लिए उससे पूछा- थीसिस कैसे लिखोगे? 

उसने बताया- लिख लूंगा। किताबों का रेफरेंस देकर। 

– तुम चाहो तो मौलिक थीसिस लिख सकते हो। 

– कैसे?

– मौलिक जी के अंडर में और आलोचक सहपाठी की संगत में रहते हो। कुछ सीखा नहीं उनसे?

– मैं यहाँ पढ़ने… इतना ही कहकर वो चुप हो गया। मुस्कुराने लगा। मैं गम्भीर बना हुआ था।

– वही मैं भी कह रहा हूं, आलोचक सहपाठी की आलोचना से सीखो। कवि का नाम, कविता का शीर्षक, किताब का नाम बदलते जाओ; हर बार आलोचना की नई फसल तैयार। तुम भी थीसिस लिखने में इसी युक्ति का प्रयोग करो। 

– तुम ही लिखो कौन, क्या, कहां, कब, क्यों और कैसे का प्रबंधशास्त्र। मैं अपनी थीसिस लिख लूंगा। 

अपनी बात समाप्त कर वो चल दिया। मैंने रोका तो जाते-जाते बोला- सर नाराज हो जाएंगे। मैंने कहा- हां, वो तो है। विरोधी गुट वाले एक अंगरक्षक की अनुपस्थिति में उन पर हमला कर सकते हैं। जल्दी जाओ।

मुस्कुराते हुए वो चला गया। मैं उसे बता नहीं पाया कि मौलिक जी की नाराजगी से बचने के लिए ही उसका अपहरण करना पड़ा था।



About विभांशु केशव

View all posts by विभांशु केशव →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *