सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक अवमानना का जवाब देते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने जो हलफ़नामा दायर किया है, वह भारत में लोकतंत्र के क्षरण पर एक ऐतिहासिक और दार्शनिक दस्तावेज जैसा है जिसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी के मूलभूत मूल्य और संवैधानिक अधिकार की जबरदस्त पैरवी की गयी है।
भूषण ने 115 पन्ने के हलफ़नामे में जो सबसे बड़ी बात कही है वो यह है कि जिन दो ट्वीट के आधार पर उनके खिलाफ आपराधिक अवमानना का मुकदमा चलाया जा रहा है, उनमें ज़ाहिर उनके विचार बोना फाइड यानी प्रामाणिक हैं। दूसरी अहम बात जो उन्होंने कही है वो यह है कि मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट नहीं है और सुप्रीम कोर्ट मुख्य न्यायाधीश नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में 31 जज हैं।
उन्होंने अपने हलफ़नामे के आरंभ में ही बिंदु संख्या 2 में इस तथ्य को रेखांकित किया है कि अदालत से उन्हें अवमानना का जो नोटिस भेजा गया था, उसमें महक माहेश्वरी द्वारा 21 जुलाई 2020 को दाखिल अवमानना याचिका की प्रति संलग्न नहीं थी। उन्होंने 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल को लिखकर कहा था कि मूल याचिका की प्रति उन्हें मुहैया करायी जाए लेकिन अब तक उन्हें अवमानना याचिका उपलब्ध नहीं करायी गयी है।
वे लिखते हैं:
उसके अभाव में इस अवमानना नोटिस का जवाब देने में मैं खुद को ‘’हैंडिकैप्ड’’ मान रहा हूं हालांकि उसके प्रति बिना किसी पूर्वग्रह के नोटिस पर मैं अपना प्राथमिक जवाब भेज रहा हूं।
जिन ट्वीट्स पर प्रशांत भूषण को नोटिस गया है, उनमें एक ट्वीट 29 जुलाई को उन्होंने किया था जिसमें उन्होंने मोटरसायकिल पर बैठे मुख्य न्यायाधीश की एक तस्वीर के बारे में एक टिप्पणी की थी जो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुई थी। वे इस ट्वीट के बचाव में हलफ़नामे में लिखते हैं कि पिछले तीन माह से ज्यादा वक्त से सुप्रीम कोर्ट के भौतिक संचालन के ठप होने पर वे आक्रोशित थे जिसके चलते नागरिकों के मूलभूत अधिकार संबोधित नहीं हो पा रहे थे। वे लिखते हैं:
सीजेआइ का कई लोगों के बीच बिना मास्क के देखा जाना हालात की विसंगति को बयान कर रहा था (सुप्रीम कोर्ट के प्रशासनिक मुखिया होने के नाते) जहां कोविड के डर से सीजेआइ ने सुप्रीम कोर्ट पर ताला लगा रखा है जबकि दूसरी ओर सार्वजनिक स्थल पर कई लोगों से बिना मास्क पहने घिरे दिख रहे हैं। यह तथ्य कि वे 50 लाख की कीमत वाली मोटरसायकिल पर बैठे थे जिसका मालिक बीजेपी का एक नेता था सोशल मीडिया पर प्रकाशित दस्तावेजी साक्ष्यों से स्थापित है। यह तथ्य कि वे राजभवन में थे इसे भी मीडिया के कुछ हिस्से में रिपोर्ट किया गया है। इस हालात की विसंगति पर मेरा आक्रोश तथ्यों के मद्देनज़र कोर्ट की अवमानना नहीं कहा जा सकता।
वे आगे बिंदु 4 में लिखते हैं:
जहां तक 27 जुलाई के मेरे ट्वीट का सवाल है, उसके तीन विशिष्ट तत्व हैं और प्रत्येक में छह साल से चल रहे हालात पर और खासकर पिछले चार सीजेआइ की भूमिका और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर मेरी बोना फाइड ओपिनियन है। ट्वीट का पहला हिस्सा मेरी स्थापित राय है कि भारत में लोकतंत्र पिछले छह साल में नष्ट किया गया है। दूसरा हिस्सा मेरी राय है कि सुप्रीम कोर्ट ने लोकतंत्र को नष्ट होने देने में इसे इजाज़त देकर अहम भूमिका निभायी है और तीसरा हिस्सा पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों की इसमें भूमिका पर है।
प्रशांत भूषण कहते हैं कि उनकी अभिव्यक्ति भले ही बड़बोलापन हो, कोई उससे असहमत हो या किसी के लिए बेस्वाद हो लेकिन वह अदालत की अवमानना नहीं है। अपनी बात के समर्थन में वे आगे ब्रिटेन, यूएस और यूके की अदालतों के उदाहरण देते हैं।
छठवां बिंदु इस हलफ़नामे में अहम है जहां भूषण कहते हैं कि चीफ जस्टिस कोर्ट नहीं हैं। यह मान लेना कि ‘सीजेआइ ही सुप्रीम कोर्ट है या सुप्रीम कोर्ट का मतलब सीजेआइ ही है’, भारत की सुप्रीम कोर्ट की संस्था का अवमूल्यन होगा।
प्रशांत भूषण ने हाल ही में अवमानना के संदर्भ में अखबारों में आये कुछ लेखों का भी हवाला दिया है और एक अखबार के संपादकीय का भी वे जिक्र करते हैं। इसके अलावा वे दो अमेरिकी विद्वानों की लिखी पुस्तक ‘’हाउ डेमोक्रेसीज़ डाइ’’ से एक लंबा हिस्सा उद्धृत कर के भारत के संदर्भ में उस प्रक्रिया को दर्शाते हैं।
लोकतंत्र के क्षरण पर प्रशांत भूषण का यह हलफ़नामा अपने आप में समकालीन राजनीति, समाज और न्यायपालिका पर एक गम्भीर टिप्पणी और दस्तावेज़ी प्रतिक्रिया है जिसे पूरा पढ़ा जाना चाहिए। जनपथ के पाठकों के लिए यह हलफ़नामा हम पूरा प्रकाशित कर रहे हैं।
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