स्मृतिशेष: ‘दिल्ली की सेल्फ़ी’ के जुनूनी प्रकाशक जतिंदर, जिनमें ‘अखबार निकालने का कीड़ा’ था!


कल ‘प्रेस फ्रीडम दिवस’ था। रात ठीक सवा नौ बजे मुझे जस्सी यानि जसप्रीत सिंह का फोन आया। मैं किचन में बर्तन मांज रहा था तो फोन नहीं उठा पाया, हाथ पोंछ कर मैंने कॉल बैक किया तो जस्सी का फोन व्यस्त था। दो साल पहले तक जिस अख़बार की वजह से लोगों ने मुझे संपादक और पत्रकार के रूप में पहचाना, जस्सी उस हिंदी साप्ताहिक ‘दिल्ली की सेल्फी’ के प्रकाशक, स्वामी और मुद्रक जतिंदर बीर सिंह के भतीजे हैं।

उसने कॉल बैक किया, हमने फोन उठाया तो उधर से रोते हुए उसने कहा– भैया, चाचू नहीं रहे यार! पहले तो कानों को यकीन नहीं हुआ, लगा मैंने कुछ गलत सुन लिया क्योंकि जस्सी से अक्सर मैं मजाक करता था। पर वह सच में रो रहा था, फूट-फूट कर। मेरा गला सूख गया।

मैंने पूछा– कैसे? कब? उसने बताया– ‘’आज सुबह साढ़े आठ बजे! कुछ दिन पहले उनके फेफड़े संक्रमित हुए थे, आवाज चली गयी थी पर वे ठीक हो रहे थे और आज सुबह बोलने लगे थे। मैंने अनमोल (जतिंदर जी का बेटा) से कहा कि हम लोग यहां एक होटल बुक कर लेंगे और नहाकर आएंगे। पर सब खत्म हो गया। चाचू हमें छोड़ कर चले गए।‘’

‘दिल्ली की सेल्फी’ के प्रकाशक, स्वामी और मुद्रक जतिंदर बीर सिंह

2014 से पहले जतिंदर जी से मेरा कोई परिचय नहीं था। उससे पहले मैं हैदराबाद रहता था। तेलंगाना बनने के बाद मैं हैदराबाद छोड़कर दिल्ली आ गया। दिल्ली में मैं बेरोजगार तो था ही और कई लोगों से काम मांगे पर उस वक्त किसी ने काम नहीं दिया। मेरी जमा पूंजी भी खत्म हो रही थी। तभी एक पत्रिका छपवाने के सिलसिले में मैंने अपने स्कूली मित्र रमेश पाठक से संपर्क किया जो कि इसी लाइन में लम्बे समय से काम कर रहे थे। इस वक्त वे कहां काम कर रहे थे पता नहीं था। हमने उनको फोन किया तो उन्होंने कहा– ‘इक प्रिंट’, ए-21/ 27, लोहा मंडी, नारायणा इंडस्ट्रियल एरिया में आ जाओ!

एक दिन हम वहां पहुंचे। रमेश और कई लोग वहां काम कर रहे थे। बड़ा सा ऑफिस था। प्रिंटिंग मशीन, कंप्यूटर छपाई, कटिंग मशीन सब था। रमेश हमें बगल के एक केबिन में ले गये। वहां एक युवा हंसमुख सरदारजी बैठे थे। रमेश ने परिचय देते हुए कहा– हमारे बॉस, जतिंदर जी। जतिंदर जी तपाक से बोल पड़े- ‘’अरे क्या है बॉस! कोई बॉस नहीं! हम सब-साथ काम करने वाले लोग हैं और रमेश जी ही हमें रोटी खिलाते हैं।‘’ मेरा परिचय देते हुए रमेश ने कहा– कामरेड नित्यानंद गायेन, कवि-पत्रकार, आदि आदि। हमने रोकते हुए कहा– ‘’अरे हम आपके दोस्त हैं, यही परिचय काफी है भैया। तब उनसे छपाई आदि के बारे में थोड़ी बात हुई, चाय-नाश्ता करवाया सरदारजी ने हमें और चले आए। उसके बाद फिर करीब एक साल तक सरदारजी से कोई बातचीत नहीं हुई, न ही वहां फिर जाना हुआ।

इस बीच रोजगार को लेकर मेरी परेशानी बढ़ रही थी, पर सब चिंता त्याग कर मैं लिखने पढ़ने में व्यस्त हो गया किन्तु रह-रह कर रोजगार की चिंता कहीं भीतर से परेशान कर रही थी। करीब एक साल गुजर गया था इस तरह और जिस पत्रिका की छपाई के लिए हम पहले नारायणा गए थे वो पत्रिका भी वहां से छपी। उस पत्रिका में कई मित्रों के पैसे लगे थे। उसके बाद फिर वहां से कोई सम्पर्क नहीं रहा। इस बीच एक बार मैं कवि-संपादक संतोष चतुर्वेदी के कहने पर ‘अनहद’ के RNI नम्बर के लिए आरके पुरम सेक्टर 1 में आरएनआइ के ऑफिस गया था, वहां से निकल ही रहा था कि जतिंदर जी से मुलाकात हो गयी।

उन्होंने देखते ही कहा– ‘’और सरजी क्या हाल है’’? मैंने कहा– ‘’ठीक हूं, सर! आप यहां?’’ बोले- ‘’यार एक अख़बार निकाल रहे हैं, उसी के लिए आए हैं।‘’ मैंने पूछा- ‘’क्या नाम है अख़बार का?’’ बोले– “दिल्ली की सेल्फी”। मैंने पूछा– ‘’डेली अख़बार है?’’ बोले- ‘’नहीं साप्ताहिक, 8 पेज, रंगीन।‘’

मैंने कहा- ‘’ये नाम सही है क्या’’? वे बोले– ‘’मैंने बहुत सोच-समझ के आज के हिसाब से नाम रखा है और हमें इसी के लिए RNI मिल रहा है।‘’ 

इस मुलाकात के बाद मैं वहां से निकल गया और कई महीनों तक फिर कोई बात नहीं हुई। मैं भी भूल गया था। मेरे पैसे खत्म हो चुके थे और मैंने बंगाल या बनारस जाने का मन बना लिया था, तभी एक दिन रमेश का फोन आया और उसने ऑफिस में बुला लिया। मैं गया और सरदारजी से मिला तो उन्होंने अख़बार की प्रतियां दिखायीं। रंगीन, आकर्षक किन्तु पहले पेज की खबर देख कर मुझे निराशा हुई। खैर… अब सरदार जी सीधे हमसे बोले– ‘’हम चाहते हैं आप इसे संभालें’’! मैंने कहा- ‘’मैं’’? तो बोले- ‘’आपके दोस्त ने आपके बारे में बताया और हमने भी गूगल करके आपके बारे में पढ़ा। आप कवि और पत्रकार हैं और बेबाक हैं।‘’

मैंने कहा– ‘’आप तो बीजेपी की खबरें छापते हैं फ्रंट पेज पर, मजदूर वर्ग अखबार से पूरी तरह गायब है। लोकल खबर तो कहीं है ही नहीं’’! जतिंदर जी बोले- ‘’इसीलिए तो कह रहे हैं कि आप देख लीजिए, हमें तो अख़बार निकालने का कीड़ा हो गया है’’। रमेश ने कहा– ‘’ये वामपंथी विचारधारा का आदमी है और नौकरी टिक कर करता नहीं है। कहीं भी छह महीने या एक साल से अधिक टिकता नहीं।‘’ जतिंदर जी बोले- देख लीजिए, मेरा यही ऑफ़र है और हां, हम आपको आपकी योग्यता के अनुसार तो पैसे नहीं दे पाएंगे किन्तु मुझसे अधितम जितना हो पाएगा आपको देने की कोशिश करूंगा। आपको एक कैबिन और जो आपको ऑफिस में चाहिए सब देंगे’’। मैंने कहा- सोच कर बताएंगे आपको हम।

एक सप्ताह बाद फिर जतिंदर जी का फोन आया- ‘’सरजी, क्या सोचा’’? मैंने कहा– ‘’मैं तो नहीं करूँगा, हां मेरे कुछ दोस्त हैं उनको काम चाहिए और वे अनुभवी हैं। मैंने मित्र अंजुले, अमृत और नागपुर के कवि मित्र जिन्हें उस वक्त काम की बहुत जरूरत थी उनको ऑफ़र किया। अंजुले ने कहा– ‘’आप करेंगे तो आपके साथ काम करेंगे’’। अमृत भाई ने मना कर दिया। उन्हें कोई फेलोशिप मिल गयी थी। फाल्गुन जी ने कोई जवाब नहीं दिया। हमने भी मना कर दिया।

अब साल 2016 शुरू हो गया था और मैंने कृषि जागरण ज्वाइन कर लिया था, किन्तु वहां तीन महीने से अधिक नहीं टिक पाया। संपादक से झगड़ा हो गया और मैं वहां से इस्तीफा देकर आ गया। मन खिन्न था, इस बीच सरदारजी का फोन आया। मैंने बताया कि अभी मैं यात्रा पर निकल रहा हूं। मैं गाँव चला गया। वापसी में सुंदरबन से होते हुए बनारस, इलाहाबाद के रस्ते मैं दिल्ली की तरफ लौट रहा था कि फिर जतिंदर जी का फोन आया। मैंने सोचा कि यह आदमी लगातार मुझसे आग्रह कर रहा है और मैं…  जबकि जरूरत मेरी भी है! मैंने कहा दिल्ली आकर आपसे मिलते हैं। जतिंदर जी ने कहा जल्दी आइए हम इन्तजार कर रहे हैं, आप आएंगे तभी इस अख़बार को हम फिर चालू करेंगे (इस बीच उन्होंने उसकी छपाई रोक दी थी)।

मैं जून में दिल्ली लौट आया और एक दिन नारायणा उनसे मिलने चला गया। मुझे वहां क्या कहना था यह मुझे पता था। मैंने कहा- ‘’मेरी कुछ शर्त हैं, अगर आपको मंजूर हों तो मैं जॉइन करने को तैयार हूं’’। उन्होंने पूछा– ‘’क्या हैं आपकी मांगें’’? मैंने कहा– ‘’मुझे काम के लिए पूरी आजादी चाहिए, कोई दबाव या हस्तक्षेप मुझे मंजूर नहीं, पहले पेज पर कोई खबर किसी भी दबाव में नहीं बदलेंगे, राशिफल बंद होगा और साहित्य के पेज बनेंगे’’। बिना किसी आपत्ति के जतिंदर जी ने कहा– ‘’आज से अख़बार आपका। आप जानिए क्या करना है’’। इस तरह मैंने डीकेएस जॉइन किया। मैं दिल्ली की सेल्फी का कार्यकारी संपादक बन गया।

अख़बार का रंग रूप अब बदल गया। पहले पन्ने पर हमेशा मजदूर, किसान और जनांदोलन की ख़बरें लगने लगीं। साहित्य और सम्पादकीय के लिए दो पेज तय किए गए। हिंदी के लेखकों, कवियों को अख़बार से जोड़ा। अख़बार को लोग पहचानने लगे। जतिन्दर इसे देख कर खुश हुए किन्तु उन्हें एक नुकसान भी हुआ। उनके जो पुराने संघी दोस्त थे जो मुझसे पहले अपनी खबरें लगवाते थे, वे नाराज हो गए और सवाल करने लगे सरदारजी से– ‘’आपने एक कुर्ता जींस चप्पल वाले कम्युनिस्ट को संपादक बना लिया है?’’ सरदार जी इसका जवाब देते– ‘’मैंने एक सही व्यक्ति को अख़बार दिया है। वे जनता की ख़बरें लगाते हैं’’। मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई वरना आज तो अख़बार का मालिक अपने संपादक का साथ  नहीं, पूंजी का साथ देता है।

जब एक साल पूरा होने वाला था अख़बार का तो उस अवसर पर क्या विशेष किया जाए? जब साथी रमेश जी से बात हुई तो हमने कहा कि एक साहित्य विशेषांक निकालते हैं जिसमें देश भर से रचनाएं मंगवाकर छापेंगे और इससे अख़बार की पहुंच बढ़ेगी। इस प्रस्ताव को जतिंदर जी के सामने रखा गया। चर्चा के बाद उन्होंने पूछा कि इस पर कितना खर्चा आएगा। हमने कहा यह तो आपको पता होगा। छपाई के बारे में तो आप जानते हैं। खैर, वे तैयार हो गए और 2017 के विश्व पुस्तक मेले में उसका लोकार्पण करने के लिए जतिंदर जी ने एक स्टॉल भी ले लिया।

इस विशेषांक में देशभर के 49 कवियों की रचनाएं शामिल की गयीं और पुस्तक मेले में कई बड़े साहित्यकारों की उपस्थिति में इसका लोकार्पण हुआ। जतिंदर जी को अब हिंदी जगत के लोग जानने लगे थे। वे बहुत खुश थे। जनकवि बल्ली सिंह चीमा से उनकी मित्रता हुई। दिगम्बर, आनंद स्वरुप वर्मा, मुशर्रफ अली, रंजीत वर्मा, आबिद सुरती, बनारस के प्रोफेसर अरुण श्रीवास्तव आदि से उनका परिचय हो गया। इस नयी दुनिया में बहुत खुश थे।

अगले साल कवि रंजीत वर्मा ‘जुटान’ का पहला सम्मेलन करना चाहते थे दिल्ली में। उसके लिए उन्‍हें फंड चाहिए था। रंजीत जी ने मुझसे कहा– ‘’अरे गायेन जी, सरदारजी से कहिए।‘’ मैंने सहज मन से उनसे कहा तो उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्‍ठान के हॉल बुकिंग का पैसा, बैनर सब करवा दिया। उस बैनर के नीचे जब मीडिया पार्टनर के तौर पर ‘दिल्ली की सेल्फी’ का नाम लगाया गया तो रंजीत वर्मा ने इससे मना कर दिया। रंजीत जी साहित्य विशेषांक के लोकार्पण पर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाये गये थे और अखबार में उनका कॉलम भी चलता था, इसलिए मैं हैरान था, हालांकि यह बात मैंने जतिंदर जी से कभी कही नहीं। मैंने बैनर से उसे नहीं हटाया।

जतिंदर बीर सिंह एक सच्चे और सज्जन व्यक्ति थे। कई लोग मेरे बहाने उनसे मिले। कोलकाता से प्रभात पाण्डेय जी आए, बनारस से अरुण सर आये, नेपाल से कामरेड साथी सरिता तिवारी जी आयीं, पटना से ध्रुव गुप्त जी आए। ध्रुव गुप्त तो अक्सर कॉलम लिखा करते  थे। मुशर्रफ अली और सुशील मानव का कॉलम भी नियमित था। 

नेपाल की कवयित्री सरिता तिवारी के साथ

नोटबंदी और नए जीएसटी कानून के बाद अख़बार को चलाना अब मुश्किल हो गया था, फिर भी उसे मैंने अपनी जिद के कारण कुछ समय तक खींचा किन्तु उससे पहले एक बार ख़ुफ़िया विभाग के लोग आये और मेरी खोज खबर ली। अख़बार का बंडल उठा कर वे लोग ले गए। कई दिनों बाद लौटाए और कहा- बहुत नेगेटिव ख़बरें छापते हैं आपके संपादक सरकार के खिलाफ!

जतिंदर जी को अख़बार निकालने का इतना जूनून था कि आज से 20 साल पहले उन्होंने ‘अलर्ट  टाइम्स’ नाम से अंग्रेजी साप्ताहिक शुरू किया था और उसके लोकार्पण के लिए पूर्व सीबीआई प्रमुख जोगिन्दर सिंह को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया था। ऐसे जुनूनी व्यक्ति को हमने कल खो दिया। यह मेरी निजी क्षति है क्योंकि जतिंदर कभी अख़बार का मालिक बन कर हमसे पेश नहीं हुए। हमेशा एक दोस्त और बड़े भाई की तरह रहे।

आज से 20 साल पहले उन्होंने ‘अलर्ट  टाइम्स’ नाम से अंग्रेजी साप्ताहिक शुरू किया था


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