आम बजट: गांव और किसान की अनदेखी कर के सरकार ने क्या आंदोलन का बदला लिया है?

इस नीरस और निराशाजनक बजट की प्रशंसा के लिए एक अनूठा और हास्यास्पद तर्क गढ़ा गया- पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बाद भी सरकार ने आम लोगों को राहत पहुंचाकर उनका दिल जीतने की कोशिश नहीं की, कोई लोकलुभावन घोषणा इस बजट में नहीं की गई।

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किसान आंदोलन की मांगें WTO की उन शर्तों के विरोध में हैं जिन पर भारत सरकार पहले ही सहमति दे चुकी है!

जनता को अब यह मांग करनी ही पड़ेगी कि भारत सरकार विश्‍व व्‍यापार संगठन से अपने पांव वापस खींचे, उसके चंगुल से राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था से जुड़े फैसलों को मुक्‍त करे और देश को बहुराष्‍ट्रीय साम्राज्‍यवादी कंपनियों के बजाय जनता की हित में चलाए।

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अगर विदेशों से मंगवानी पड़ रही है खाद भी, तो कहां है आत्मनिर्भर भारत की नीति: SKM

सरकार इस फैसले को बहुत जोर-शोर से दिखाकर इसे भी उपलब्धि बता रही है। यह सिर्फ मीडिया हैडलाइन के लिए किये गये फैसले हैं। धरातल पर किसानों के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आएगा।

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किसानों के खिलाफ करदाताओं को खड़ा करने वाले विभाजनकारी अर्थशास्त्र के सहारे सरकार

अनेक ऐसे आलेखों और विश्लेषणों से समाचार माध्यम भरे पड़े हैं जिनका सार संक्षेप मात्र इतना ही है कि किसानों का यह अनुचित और मूर्खतापूर्ण हठ पूरे देश को ले डूबेगा। जो तर्क दिए जा रहे हैं वह पुराने जरूर हैं लेकिन उनकी प्रस्तुति में जो आक्रामकता अब है वह पहले नहीं थी।

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