बसु-रमण की धरती पर अंधश्रद्धा और वैज्ञानिक मिज़ाज पर कुछ बातें

पश्चिम के अकादमिक गढ़ों में बैठे उपनिवेशवाद के ये आलोचक और उत्तर-औपनिवेशिकता के ये सिद्धान्तकार निश्चित ही पश्चिमी समाजों को अधिक सभ्य, अधिक जनतांत्रिक और अधिक बहुसांस्कृतिक बनाने में योगदान कर रहे हैं, लेकिन पश्चिम के पास तो पहले से ही विज्ञान और आधुनिकता है, वह पहले ही आगे बढ़ चुका है। इस सब में हम पूरब वालों के लिए क्या है? गरीबी और अंधश्रद्धा के दलदल से हमें अपना रास्ता किस तरह निकालना है? अपने लिए हमें किस तरह के भविष्य की कल्पना करनी है?

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जिन्हें अपनों ने छोड़ दिया, उन्हें ‘आग देने वाले’ योद्धाओं का इतिहास अभी बाकी है!

कोरोना संक्रमण के पहले चरण में जिस तरह से मजदूरों के साहस और संघर्ष को याद किया जाएगा उसी से तरह श्‍मशान घाट पर ‘आग देने वाले’ इन ‘योद्धाओं’ को भी नहीं भूलना चाहिए और इनके योगदान को भी इतिहास में जगह मिलनी चाहिए। यह बात हिन्दूवादी व्यवस्था को चलाने वाले ‘ठेकेदारों’ को भी समझने की जरूरत है।

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विज्ञान-विरोधी आग्रहों के दौर में एक वैज्ञानिक राजनेता जवाहरलाल नेहरू की याद

आज जब हम कोरोना के महान संकट के दौर से गुजर रहे हैं, तो जवाहरलाल नेहरू की याद आना स्वाभाविक है। मेरी राय में जवाहरलाल नेहरू एक महान क्रांतिकारी, एक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ, एक सक्षम प्रशासक तो थे ही परंतु इसके साथ ही वे वैज्ञानिक भी थे। उनकी स्पष्ट राय थी कि आम आदमी में वैज्ञानिक समझ पैदा करना आवश्यक है।

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COVID-19: सांख्यिकी, विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना पर एक जिरह

कोविड से होने वाली मौतों से संबंधित आधिकारिक आँकड़े किस क़दर झूठे और भ्रामक हैं, इसके प्रमाण अन्य अध्ययनों में भी सामने आ रहे हैं। हाल ही में ब्रिटेन ने स्वीकार किया है कि उसके आँकड़े अतिशयोक्तिपूर्ण थे। आँकड़ा जमा करने की ग़लत पद्धति के कारण उन लोगों की मौत को भी कोविड से हुई मौत में जोड़ दिया गया जिनकी मौत की मुख्य वजह कुछ और ही थी।

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