राग दरबारी: 28 लाख बिहारी मजदूरों की पीड़ा को जाति के खांचे में डाल के आप खारिज कर देंगे?

अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार एनडीए व महागठबंधन में मौजूद घटक दलों, किस मजबूत जाति का नेता किस गठबंधन के साथ है और किसका वोट परंपरागत रूप से किसे पड़ता रहा है, या फिर मोदी जी कितने चमत्कारिक रह गये हैं- के आधार पर बातों का विश्लेषण कर रहे हैं जबकि पिछले 15 वर्षों में बिहार कितना बसा और कितने बिहारी उजड़े- यह कहीं भी विश्लेषण में दिखायी नहीं पड़ता है।

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राग दरबारी: गोबरपट्टी के राजनीतिक टिप्पणीकार बिहार में ‘विकास की जाति’ को क्यों नहीं देखते?

किसका विकास हो रहा है मतलब किस जाति का विकास हो रहा है या फिर कह लीजिए कि विकास की जाति क्या है, इसे समझने का सबसे आसान तरीका यह जानना है कि किसके शासनकाल में किस जाति-समुदाय के लोगों की प्रतिमा लगायी जाती है; किसके नाम पर संस्थानों के नाम रखे जाते हैं; और किसके नाम पर सड़क का नामकरण हो रहा है।

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राग दरबारी: मुद्दाविहीन चुनाव और लूज़र जनता है बिहार का सच

नेता राजनीतिक गणित जितना भी कर लें, हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आम जनता परसेप्‍शन पर भी निर्णय लेती है। आम लोगों में चिराग पासवान के जेडीयू के प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ने को वह इस रूप में भी ले रही है कि इस खेल के पीछे बीजेपी है।

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राग दरबारी: संपादक से सभापति के बीच ठाकुर हरिवंश नारायण सिंह के करतब

क्या सचमुच वे सारे के सारे बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता इतने भोले थे/हैं कि उन्हें संपादक हरिवंश की कमी नजर नहीं आयी? और तो और, जब उन्हें नीतीश कुमार ने राज्यसभा में मनोनीत किया तब भी इन समझदार लोगों को समझ में नहीं आया कि हरिवंश कितने शातिर खिलाड़ी रहे हैं?

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राग दरबारी: GDP, बेरोज़गारी, बीमारी पर जनता की चुप्‍पी का राज़ 200 सीटों में छुपा है!

जहां कहीं भी किसी भी राजनीतिक दल ने अपनी निर्भरता कॉरपोरेट मीडिया से हटाकर अपने मीडिया संस्थानों पर कर ली है, उसकी हालत वहां इतनी खराब नहीं है. महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है.

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राग दरबारी: क्या पिछड़ों की राजनीति खत्म हो गयी है?

1990 में मंडल लगने से पहले पिछड़ा नेतृत्व का एक रुतबा था. मंडल लागू होने के बाद सवर्ण सत्ता को पिछड़ों से डर लगने लगा था, लेकिन 25 साल के भीतर पूरा का पूरा पिछड़ा नेतृत्व दीन-हीन अवस्था में पहुंच गया है.

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राग दरबारी: सामाजिक न्याय के अगुवों के हाथ में परशुराम का मातृहंता फ़रसा?

सवाल सिर्फ यह है कि सामाजिक न्याय का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों राजनीतिक दलों में जिस परशुराम की प्रतिमा लगाने की होड़ मची है उसे लोग किस रूप में जानते हैं और उनकी क्या सामाजिक विरासत है?

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राग दरबारी: कमंडल और मंदिर के बीच दम तोड़ता सामाजिक न्याय

क्या कारण रहा कि एक समय अछूत सी रही भाजपा आज देश में सबसे मजबूत ताकत है? सवाल यह भी है कि जो सामाजिक और राजनीतिक विरासत इतनी मजबूत थी, वह 25 साल के भीतर ही इतनी बुरी तरह क्यों बिखर गयी और हिन्दुत्ववादी ताकतों को क्यों चुनौती नहीं दे पायी?

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राग दरबारी: कितनी छोटी होगी लोकतंत्र में अवमानना की लकीर?

जब राजसत्ता के इशारे पर सारे निर्णय लिए जा रहे हैं तो लिखित कानून और उसे पालन करने वाले संस्थानों की क्या भूमिका रह जाएगी? हमारे संवैधानिक अधिकारों की गारंटी कौन करेगा जो हमें भारतीय कानून के तहत एक नागरिक के तौर पर मिले हुए हैं? उस नागरिक स्वतंत्रता का क्या होगा जिसकी दुहाई बार-बार दी जाती है?

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राग दरबारी: क्या राजद का बीजेपी से गठबंधन संभव है?

अगर राजद और बीजेपी के बीच सचमुच कुछ पक रहा है या चुनाव के बाद भी किसी तरह का गठबंधन होता है तो यह सामाजिक औऱ लोकतांत्रिक राजनीति की पिछले तीस वर्षों में सबसे बड़ी हार होगी और निजी तौर पर लालू यादव की सांप्रदायिकता व फिरकापरस्ती के खिलाफ एक नायक के रूप में बनी छवि भी टूटेगी.

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