पंजाब चुनाव: नोटा से भी कम पर सिमट गयी कम्युनिस्ट पार्टियां चर्चा का विषय क्यों नहीं हैं?

उत्तर प्रदेश में बसपा के एक सीट जीतने पर बौद्धिक समाज में जैसी खलबली देखी गयी वैसी कम्युनिस्ट पार्टी के बंगाल में लगातार दो बार हारने के बाद भी नहीं देखी गयी। पंजाब में नोटा से भी कम वोट मिलने पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों पर कोई चर्चा न होना और भी चौंकाता है।

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बात बोलेगी: तीन करोड़ की शपथ और अगले बुलडोजर का इंतज़ार

कल पंजाब की पूरी आबादी ने शपथ ली है, यह बात पूरे देश को एक साथ बतलायी गयी। ऐसा कौन सा लीडिंग अखबार नहीं है जिसके प्रथम पृष्ठ पर पूरे पेज का विज्ञापन न छपा हो और वो भी बेनामी। यह गोपनीयता की पारदर्शिता है जो लोकतंत्र के नये प्रतिमान रच रही है।

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विधानसभा चुनाव नतीजे: आर्थिक स्वतंत्रता के बिना क्या स्वतंत्र राजनीतिक निर्णय ले सकती है जनता?

संविधान निर्माताओं की आशंका और चेतवानी को ध्यान में रखते हुए देश के संसदीय चुनाव को इसी नजरिये से देखना चाहिए कि क्या आर्थिक रूप से विपन्न समाज राजनैतिक निर्णय लेने में स्वतंत्र है? या कुछ आर्थिक मदद करके उसकी राजनैतिक स्वतंत्रता को छीना अथवा प्रभावित किया जा सकता है?

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विपरीत परिस्थितियां ही क्रांति को जन्म देती हैं! विधानसभा चुनावों के नतीजों से निकलते सबक

रोचक बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने विपक्षियों को ही ‘सांप्रदायिक’ बता दिया। नेता और जनता के बीच शानदार ‘कनेक्टिविटी’ रखने वाले नरेंद्र मोदी का मतदाताओं पर असर दिखा भी जब मुझे कुछ मतदाताओं के द्वारा कहा गया कि जब मुसलमान समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक हो सकते हैं, तो हम लोग बीजेपी के पक्ष में एक क्यों न हो?

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पंजाब चुनाव में गायब होता कॉरपोरेट वर्चस्व का मुद्दा

आंदोलन का मुख्य जोर कॉर्पोरेट जगत को कृषि क्षेत्र पर नियंत्रण करने से रोकना था। उस समय लगभग सभी राजनीतिक दल इस बात पर सहमत थे कि इन तीन कृषि कानूनों के अंतर्गत कॉरपोरेट्स का कृषि पर पूर्ण अधिकार हो जायेगा। अपने पंजाब दौरे के दौरान राहुल गांधी को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि मोदी सरकार कठपुतली सरकार थी और कॉरपोरेट्स के हितों की सेवा कर रही थी। दुख की बात है कि कृषि और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में कॉर्पोरेट वर्चस्व को रोकने के मुद्दे का उल्लेख किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनाव प्रचार या चुनावी घोषणापत्र में भी नहीं किया है।

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सत्ता-प्राप्ति पर केंद्रित चुनाव बनाम लेबर चौक पर खड़ा लोकतंत्र: कुछ जरूरी सवाल

लेबर चौक पर खड़ा लोकतंत्र का नुमाइंदा क्या चेहरों को देख कर ही इस बार भी मतदान करेगा या कुछ और भी सोच पाने की स्थिति में इन गर्दिशों के दौर में आ चुका है? बार-बार ठगे जाने को कहीं अपनी नियति मान एक दिहाड़ी के एवज में नीतियों को नकार कर अपने भाग्य को कोसता रहेगा या जूझने की ताकत और यकीन को फिर से गिरवी रख देगा?

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बात बोलेगी: फिर आया लोकतंत्र के कर्मकांड का मौसम…

पहले जब राज्यों में चुनाव हुआ करते थे तो राज्य सरकारों की ही शक्तियां चुनाव आयोग को हस्तांतरित हुआ करती थीं। इधर कुछ वर्षों में, विशेष रूप से जब से भारतीय जनता पार्टी मौज में आयी है, तब से चुनाव भले ही घाना या नाइजर या टोगो में हों लेकिन सबसे पहले स्थगित होती है केंद्र की सरकार।

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प्रधानमंत्री दोहरे दबाव में हैं, बठिंडा प्रकरण को मतदान होने तक भुला दिया जाना चाहिए

किसी भी जीते-जागते लोकतंत्र में उस देश के मतदाताओं/नागरिकों द्वारा अपनी माँगों को लेकर किए जाने वाले शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शनों को देश के अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों की जान पर ख़तरे की आशंका से जोड़कर देखना अथवा प्रचारित करना प्रजातांत्रिक मूल्यों और व्यवस्थाओं में किस सीमा तक उचित समझा जाना चाहिए! क्या दुनिया की अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी हमारी तरह का ही सोच क़ायम है?

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आंदोलनकारियों का चुनावी राजनीति में जाना: अन्ना आंदोलन से किसान आंदोलन तक के अनुभव

एक आंदोलनकारी के रूप में हमने महसूस किया है कि आंदोलनकारी कुछ बुनियादी लक्ष्य को लेकर आंदोलन करते हैं जिनके मन में ढेर सारे सपने रहते हैं। ऐसे में जब यह चुनाव में उतरने का फैसला करते हैं तो उसी सपने या आदर्श को लेकर सामने आते हैं लेकिन उनके सामने वहां पर एक अलग तरह की परिस्थिति नजर आती है जो उनके आदर्श से बिल्कुल विपरीत रहती है।

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पंजाब में राजनीतिक दलों का चुनाव प्रचार किसान-विरोधी साजिश है: SKM

नांगल गांव में कल ग्रामीणों द्वारा एक विशेष बैठक बुलायी गयी जिसमें उन्होंने घोषणा की कि 5 सितंबर को गांव में कोई भी किसान विरोधी बैठक नहीं होने दी जाएगी। ऐसा यह जानकारी मिलने के बाद किया गया कि सिंघू सीमा पर विरोध कर रहे किसानों का मुकाबला करने के लिए 5 सितंबर को एक बैठक आयोजित की जाएगी।

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