मोदी दशक में हिंदी सिनेमा: सॉफ्ट पावर बना सॉफ्ट टारगेट

सांस्कृतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।

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…और आप कहते हैं कि गांधी को कोई जानता भी नहीं था!

स्‍लावोज जिजेक अपनी पुस्तक ‘वायलेंस’ में एक कहानी के माध्यम से समझाते हैं कि जब तानाशाह अपनी पर उतर जाए तो उसे मूल समेत उखाड़ फेंकने का एक ही रास्ता है और वह है गांधी का असहयोग आंदोलन। गांधी ने ही सिखाया था कि जब कभी सत्ता नशे में चूर हो तो असहयोग करो, हेकड़ी निकल जाएगी।

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अमेरिका की जूनियर पार्टनर बनी मोदी सरकार: AIPF

यह वक्तव्य आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट की राष्ट्रीय कार्यसमिति की हुई बैठक के आधार पर जारी किया गया। वक्तव्य को आइपीएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. दारापुरी ने जारी किया।

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पुरानी संसद क्यों न विपक्ष को सौंप दी जाए!

इस तरह के निर्णय के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नजर नहीं आता कि ‘सेंट्रल विस्टा’ के तहत प्रारंभ की गईं दूसरी सभी परियोजनाओं को अधूरे में छोड़कर नई संसद पहले तैयार करने के प्रधानमंत्री के स्वप्न को जमीन पर उतारने के काम में दस हजार मजदूरों को झोंक दिया गया! नई संसद का उद्घाटन ,नई लोकसभा के गठन के साथ साल भर बाद भी हो सकता था।

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आज़ाद भारत में दलित सशक्तिकरण के तीसरे चरण की शुरुआत

भाजपा सरकार द्वारा उन्हें कमजोर करने के इन षड्यंत्रों से दलित वर्ग में बेचैनी है। भाजपा के लिए भी अब इन्हें रोक पाना चुनौती बनती जा रही है। ऐसे में कांग्रेस खड़गे के चेहरे और राहुल और प्रियंका गांधी के दलितों के पक्ष में खड़े रहने वाले नेता की छवि के मिश्रण से हिंदी बेल्ट में इन्हें फिर से अपने साथ ला सकती है।

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समरकंद में प्रधानमंत्री का सम्बोधन दार्शनिक है या महत्त्वाकांक्षी?

समरकंद सम्मेलन के दौरान भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुखों के बीच द्विपक्षीय संवाद की आशा बहुत से प्रेक्षकों ने लगाई थी, किंतु स्वयं प्रधानमंत्री इनके प्रति अनिच्छुक नजर आए। चीन से सीमा विवाद और कश्मीर के मसले पर मोदी को वही भाषा बोलनी पड़ती है जो पुतिन यूक्रेन के विषय में बोल रहे हैं।

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पराक्रमहीनता का राग मालकौंस

समीक्ष्य पुस्तक Modi@20: Dreams meet Delivery 21 अध्याय और 1 प्राक्कथन से संयोजित-संपादित पुस्तक है जिसमें राजनीति, कला, संगीत, खेल, उद्योग आदि से जुड़े देश के 22 दिग्गजों के आलेखों को सम्मिलित किया गया है। शायद यह पहली ऐसी पुस्तक मेरे देखने में आयी है जिसका सम्पादन कोई व्यक्ति नहीं एक ‘फाउंडेशन’ ने किया है।

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प्रधानमंत्रियों के चुनावी भाषण और चुनाव प्रचार की गिरती गरिमा

आकाशवाणी के आर्काइव में तलाश करते हुए जो सबसे पहली ऑडियो रिकॉर्डिंग हाथ लगी वह 1951 के आम चुनावों से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्र के नाम संदेश के रूप में थी। सुनकर ऐसा लगा कि लोकतंत्र को जीने वाला कोई मनीषी और जननेता देश के नागरिकों को पहले आम चुनावों से पूर्व प्रशिक्षण दे रहा हो।

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भाजपा और संघ की असली समस्या कांग्रेस और ‘परिवार’ नहीं बल्कि देश की जनता है!

‘विश्व गुरु’ बनने जा रहे भारत देश के प्रधानमंत्री को अगर अपना बहुमूल्य तीन घंटे का समय सिर्फ़ एक निरीह विपक्षी दल के इतिहास की काल-गणना के लिए समर्पित करना पड़े तो मान लिया जाना चाहिए कि समस्या कुछ ज़्यादा ही बड़ी है।

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अमित शाह को क्यों कहना पड़ा कि मोदी निरंकुश नहीं हैं!

सवाल यह है कि मोदी के गुजरात और दिल्ली में सफलतापूर्वक दो दशकों तक सरकारें चला लेने के बाद अचानक से इस तरह के सवाल के पूछे जाने (या पुछवाये जाने) की ज़रूरत क्यों पड़ गयी होगी? जनता तो इस आशय की संवेदनशील जानकारी की साँस रोककर प्रतीक्षा भी नहीं कर रही थी। सरकार और पार्टी में ऐसे मुद्दों पर बंद शयनकक्षों में भी कोई बातचीत नहीं होती होगी।

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