प्रेस की स्वतंत्रता के सवाल से ज्यादा बड़ा है पत्रकारिता के वजूद का संकट!

प्रेस की स्वतंत्रता पर गहराते संकट की चर्चा तो हो रही है किंतु प्रेस के अस्तित्व पर जो संकट है उसे हम अनदेखा कर रहे हैं। अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के मुद्रण आधारित या इलेक्ट्रॉनिक साधनों का उपयोग करने वाले हर व्यक्ति या संस्थान को प्रेस की आदर्श परिभाषा में समाहित करना घोर अनुचित है विशेषकर तब जब वह पत्रकारिता की ओट में अपने व्यावसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हो।

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यूपी में बाकी जातियों की नाराजगी पर क्यों नहीं सवाल कर रहा है मीडिया?

मीडिया जब जाति पर चर्चा करने ही लगा है तो उसे एक जाति-विशेष के बजाय उत्तर प्रदेश की तमाम जातियों की नाराजगी और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर चर्चा करनी चाहिए।

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हिंदी भाषा पर बातचीत: क्या हिंदी वालों को हिन्दी से प्यार नहीं है?

हिंदी को बस हिंदी रहने देना चाहिए। इसको क्लिष्ट और आसान के खांचों में काहे बांटना। हिंदी सहज-सरल तौर पर विदेशी भाषा के शब्दों को ग्रहण करती आयी है और यही किसी भाषा के सामर्थ्यवान होने का भी द्योतक है।

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अनामंत्रित: हिंदी के पतन की वजह न्यूजरूम में बैठे आलसी, अक्षम और जड़बुद्धि लोग हैं

जिसने भी यह कहा था कि, ‘जिस तरह तू बोलता है, उस तरह लिख’- इस कथन को बिना समझे सतही रूप से हिंदी पर लागू करने के दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं।

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पत्रकारिता के एक माध्यम के रूप में टीवी चैनल भीतर से खोखला हो चुका है!

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समक्ष इन दिनों जिस तरह साख का संकट उत्पन्न हुआ है उसने पत्रकारिता के इस माध्यम को अंदर तक खोखला कर दिया है। समाचार चैनलों को यह बात जितनी जल्दी हो समझ लेना चाहिए वरना यदि देर हो गयी तो यह उनके अस्तित्व का संकट भी हो सकता है। सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता और वेब जर्नलिज्म की मजबूती ने इस माध्यम की प्रासंगिकता और भरोसे को तोड़ा है।

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‘धृतराष्ट्र’ की मुद्रा में हैं मीडिया के ‘संजय’ इस समय?

पत्रकारिता समाप्त हो रही है और पत्रकार बढ़ते जा रहे हैं! खेत समाप्त हो रहे हैं और खेतिहर मज़दूर बढ़ते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह। खेती की ज़मीन बड़े घराने ख़रीद रहे हैं और अब वे ही‌ तय करने वाले हैं कि उस पर कौन सी फसलें पैदा की जानी हैं। मीडिया संस्थानों का भी कार्पोरेट सेक्टर द्वारा अधिग्रहण किया जा रहा है और पत्रकारों को बिकने वाली खबरों के प्रकार लिखवाए जा रहे हैं। किसान अपनी ज़मीनों को ख़रीदे जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया की समूची ज़मीन ही खिसक रही है पर वह मौन हैं। गौर करना चाहिए है कि किसानों के आंदोलन को मीडिया में इस समय कितनी जगह दी जा रही है? दी भी जा रही है या नहीं? जबकि असली आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ है। सिर्फ़ मीडिया में ख़त्म कर दिया गया है।

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खुद में अलोकतांत्रिक मीडिया कैसे कर सकता है लोकतंत्र की रक्षा?

‘लोगों के लिए’ होने की पहली शर्त है ‘लोगों के द्वारा’ होना। किसी भी संस्था को अपने स्वरूप में लोकतांत्रिक होने के लिए उसमें हर एक वर्ग, जाति, समुदाय की …

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एक कॉल की दूरी के बीच बिन मांगे तोहफ़ों की दीवार खड़ी है!

2 फरवरी को न्यूज़लॉन्‍ड्री की रिपोर्टर निधि सुरेश जब सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन कवर करने गयीं तो उनको आंदोलनस्थल पर किसानों के मंच तक जाने नहीं दिया गया. एक पुलिस अधिकारी ने निधि से प्रेस कार्ड माँगा, उन्होंने अपना प्रेस कार्ड दिखाया तो पुलिस अधिकारी ने कहा- यह कार्ड नहीं चलेगा, कोई नेशनल ऑथराइज्‍़ड यानी राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त प्रेस कार्ड हो तो उसे जाने दिया जाएगा.

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मणिपुर में पत्रकारिता पर UAPA से वार, मुंबई में फ़तवेबाज चैनलों को केवल अदालती फटकार!

कोर्ट ने कहा कि रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ की कुछ रिपोर्टिंग प्रथमदृष्टया अवमाननापूर्ण थी. बेंच ने हालांकि चैनलों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से इनकार कर दिया और चल रही जांच की भविष्य में रिपोर्टिंग करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए. दोनों चैनलों की रिपोर्टिंग को मानहानिकारक मानते हुए अदालत ने कहा, ”मीडिया ट्रायल से न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप और बाधा उत्पन्न होती है.”

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आर्टिकल 19: जनता पहले अपना मीडिया बदलेगी, फिर बारी आएगी सियासत की! क्रोनोलॉजी समझिए…

तीन कानूनों की वापसी के लिए शुरू हुआ आंदोलन इनकी वापसी पर खत्म होने वाला नहीं है। ये नई राजनीति की सिर्फ शुरुआत है। इस पर किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए।

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