खुद में अलोकतांत्रिक मीडिया कैसे कर सकता है लोकतंत्र की रक्षा?


‘लोगों के लिए’ होने की पहली शर्त है ‘लोगों के द्वारा’ होना। किसी भी संस्था को अपने स्वरूप में लोकतांत्रिक होने के लिए उसमें हर एक वर्ग, जाति, समुदाय की मौजूदगी जरूर है। हरेक इंसान फिर उस संस्थान में अपने समूह का प्रतिनिधित्व करता है तथा इस तरह उस संस्थान के लक्ष्यों और कार्यों में उस पूरे समूह के हितों का प्रतिनिधित्व होता है। लोकतांत्रिक होने की इस कसौटी पर भारतीय मीडिया खरा नहीं उतरता है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए चौथे स्तंभ के जिस दायित्व को लेकर चलने का दावा भारतीय मीडिया करता है वह खुद अपने स्वरूप में ही अलोकतांत्रिक है।

वर्ष 2006 में वरिष्‍ठ पत्रकारों अनिल चमडि़या और जितेंद्र कुमार तथा चुनाव विश्‍लेषक से नेता बने योगेंद्र यादव ने दिल्ली स्थित मीडिया पर एक सर्वे किया था। दिल्ली में स्थापित 37 प्रमुख मीडिया प्रतिष्‍ठानों के 315 महत्वपूर्ण निर्णयकारी पदों (प्रमुखतः संपादक) पर स्थापित मीडियाकर्मियों के इस सर्वे से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। इस सर्वे का निष्कर्ष था कि भारतीय राष्ट्रीय मीडिया सांगठनिक रूप से सामाजिक विविधतापूर्ण नहीं हैं तथा यह भारतीय समाज के सभी वर्गों, समूहों, जातियों का प्रतिनिधित्व जनसंख्या में उनके अनुपात के अनुसार नहीं करता।

सर्वे के अनुसार हिंदू उच्च जाति से आने वाले पत्रकार मीडिया के 71% महत्वपूर्ण पदों पर स्थापित थे, जिनकी संख्या तब कुल जनसंख्या में मात्र 8% थी। कुल महत्वपूर्ण पदों में मात्र 17% पर स्त्रियां थीं जिनकी देश की जनसंख्या में लगभग 50 प्रतिशत भागीदारी है। सिर्फ ब्राह्मण जाति (भुमिहार और त्यागी मिलाकर) 49% निर्णय लेने वाले महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान थे। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य था कि इस सर्वे के अनुसार इन 315 संपादकों मे एक भी आदिवासी या दलित नहीं था। एक भी SC, ST नहीं था। तब देश की जनसंख्या में 43% भागीदारी के बावजूद मात्र 4% पदों पर ही OBC नियुक्त थे। मात्र 3% निर्णय लेने वाले पदों पर मुस्लिमों की पहुंच थी जिनकी जनसंख्या में हिस्सेदारी तब 13.4 % थी।

भारतीय मीडिया जब अपने ही स्वरूप में लोकतांत्रिक नहीं है, तो कैसे उम्मीद की जाए कि उसके सवाल लोकतांत्रिक होंगे? जब तक उत्तर-पूर्व भारत के लोगों को राष्ट्रीय मीडिया में उचित स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय मीडिया से वहां के समाचारों को प्रमुखता से उठाने की उम्मीद हास्यास्पद है। असम को मुख्यधारा के न्यूज़ में आने के लिए बाढ़ से सैकड़ों जान गंवानी पड़ती है और उत्तर प्रदेश के मंत्री के भैंस खोजती पुलिस की न्यूज़ बिना किसी मशक्कत के राष्ट्रीय न्यूज़ का हिस्सा बन जाती है। किसान दिल्ली में आकर विशाल धरना करते रह जाते हैं और मीडिया राजनीति के दरबार में जी हुजूरी करता रहता है। 

2006 से अब तक कुछ बदलाव मीडिया प्रतिष्‍ठानों में जरूर आए होंगे परंतु अभी भी वर्गों का प्रतिनिधित्व आदर्श से बहुत दूर है। जाति, धर्म और क्षेत्र के बंधनों को तोड़े बिना इसकी उम्मीद व्यर्थ है। क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन (सैमुअल डी. हटिंगटन द्वारा प्रतिपादित) के सिद्धांत के अनुसार आगे युद्ध के लिए संस्कृतियों की विविधता एक प्रमुख कारण होगी। वहीं जीव विज्ञान किसी भी विविधता को अस्तित्व रक्षा का महत्वपूर्ण साधन मानता है। भारतीय समाज की विविधता में ‘क्लैश’ होने से रोकने का एक उपाय उनके मध्य आपसी सहयोग है। भारतीय मीडिया अपने सांगठनिक बदलाव से उस सहयोग की शुरुआत कर सकता है जहां सवाल हर एक वर्ग, जाति समूह का उठे और “कौन जात हो?” का जवाब मीडिया की ओर से आये- “हम इंसान हैं”।


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