‘धृतराष्ट्र’ की मुद्रा में हैं मीडिया के ‘संजय’ इस समय?

पत्रकारिता समाप्त हो रही है और पत्रकार बढ़ते जा रहे हैं! खेत समाप्त हो रहे हैं और खेतिहर मज़दूर बढ़ते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह। खेती की ज़मीन बड़े घराने ख़रीद रहे हैं और अब वे ही‌ तय करने वाले हैं कि उस पर कौन सी फसलें पैदा की जानी हैं। मीडिया संस्थानों का भी कार्पोरेट सेक्टर द्वारा अधिग्रहण किया जा रहा है और पत्रकारों को बिकने वाली खबरों के प्रकार लिखवाए जा रहे हैं। किसान अपनी ज़मीनों को ख़रीदे जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया की समूची ज़मीन ही खिसक रही है पर वह मौन हैं। गौर करना चाहिए है कि किसानों के आंदोलन को मीडिया में इस समय कितनी जगह दी जा रही है? दी भी जा रही है या नहीं? जबकि असली आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ है। सिर्फ़ मीडिया में ख़त्म कर दिया गया है।

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चुनावों में हस्तक्षेप का निर्णय कर के किसान नेताओं ने कहीं कोई खतरा तो नहीं मोल लिया है?

कहीं किसान नेता अपने आंदोलन को परिणाममूलक बनाने की हड़बड़ी में किसान आंदोलन के अब तक के हासिल (जो किसी भी तरह छोटा या कम नहीं है) को दांव पर लगाने का खतरा तो मोल नहीं ले रहे हैं? क्या किसान नेता संबंधित प्रान्तों के किसानों को उन पर मंडरा रहे आसन्न संकट की बात पर्याप्त शिद्दत और ताकत के साथ बता पाएंगे?

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BPF के कांग्रेस गठबंधन में आने से भाजपा को हो सकता है 12 सीटों पर 5-6% वोटों का नुकसान

इस कदम से कांग्रेस के लिए एक बड़ी बढ़त का अनुमान लगाया जा रहा है क्योंकि कई लोगों का मानना है कि पार्टी बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन में गठबंधन के पक्ष में वोट स्विंग कर सकती है, जो बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) द्वारा शासित है और लगभग 15 विधानसभा सीटों पर इसका जनाधार है।

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गोहाटी प्रेस क्‍लब के प्रेसिडेंट और महासचिव के खिलाफ UAPA के तहत FIR दर्ज करने की तहरीर

परेश बरुआ का पक्ष रखने के लिए प्रेस क्‍लब में बुलायी गयी ऑडियो मीट में बरुआ के फोन का इंतजार था, जब पुलिस ने उसमें व्‍यवधान डालते हुए आखिरी मौके पर कार्यक्रम रद्द करवा दिया। बरुआ की ऑडियो मीट नहीं हो सकी, लेकिन इसका आयोजन करने वाले प्रेस क्‍लब के पदाधिकारियों की शिकायत हो गयी।

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ज़मीन में उग आयी है नदी, गांवों में घुस आये हैं जानवर! असम में दोहरी तबाही का मंज़र…

क्यों हर साल वहां के लोगों को डूब कर मरना पड़ता है? क्यों बाढ़ नियंत्रण के लिए सरकारें कोई योजना बना कर हल नहीं खोजतीं? हर साल पता होता है कि तबाही आ रही है लेकिन हर साल सरकारें और प्रशासन शुतुरमुर्ग की तरह ज़मीन में सिर गड़ा लेते हैं?

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