मोदी दशक में हिंदी सिनेमा: सॉफ्ट पावर बना सॉफ्ट टारगेट

सांस्कृतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।

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नये भारत के उदय के बीच तीन ख़ानों की दास्तान

इन तीनों के बारे में लगातार लिखा जाता रहा है। इनसे जुड़े विवादों से लेकर अफवाहों और फिल्मों तक के बारे में बहुत कुछ पहले से ही लिखा और कहा जा चुका है। ऐसे में पहला सवाल यह उठता है कि इन तीनों पर आधारित एक किताब नया क्या पेश कर सकती है?

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अपनी छवि की गुलामी का ‘बेशरम रंग’ क्यों ढो रहे हैं बॉलीवुड के बूढ़े सितारे?

आपत्ति तो इस पर होनी चाहिए कि जनसंचार के एक इतने जबर्दस्त माध्यम को कचरा परोसने का यंत्र क्‍यों बना दिया गया है। मुकदमा तो इस पर दर्ज होना चाहिए कि करोड़ों फूंक कर भी दर्शकों के सामने इस तरह की चीज क्यों परोसी जा रही है। क्‍या इसका शाहरुख की निजी महत्‍वाकांक्षा से कोई लेना-देना हो सकता है?

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बॉलीवुड में किसानों के ऊपर सिनेमा बनाने का जोखिम कौन लेगा?

इस मामले में क्षेत्रीय फिल्मों की स्थिति काफी अच्छी है। खासकर दक्षिण में तमिल, कन्नड़ और तेलुगु फिल्मों में किसानों के ऊपर फिल्में अब भी बन रही हैं। पिछले एक दशक में मराठी सिनेमा में भी इनकी संख्या बढ़ी है।

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बीमारियों से तबाह दुनिया में बॉलीवुड का नायक कब तक भगवान भरोसे रहेगा?

एक ज़माना था जब सिनेमा एक तरफ डॉक्टर को भगवान दिखाता था और दूसरी ओर मरीजों को भगवान के भरोसे दिखाता था। घर वाले बेचारगी में मंदिर-मंदिर सिर पटकते थे। घंटे से सिर फोड़ते थे। एक ज़माना आज है, जब चिकित्सा व्यवस्था भगवान भरोसे है और मरीज भी भगवान के भरोसे। सिनेमा कॉर्पोरेट भरोसे है।

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