नये भारत के उदय के बीच तीन ख़ानों की दास्तान


हिंदी सिनेमा के पटल पर खान उपनाम वाले तीन सितारों का उदय एक दिलचस्प परिघटना है। खान तिकड़ी करीब तीन दशकों से हिंदी सिनेमा के केंद्र में बनी हुई है। इस दौरान हिंदी फिल्मों में अच्छे-बुरे जो भी बड़े बदलाव हुए हैं उनमें से अधिकांश का नेतृत्व इस तिकड़ी ने किया है। पिछले तीन दशक फिल्मों के साथ-साथ भारतीय राजनीति और समाज में व्यापक उथल-पुथल के दौर भी रहे हैं। यही वह समय है जब उदारीकरण के चलते खुले बाजार का दौर आया, साथ ही जातिगत व हिन्दुत्व केन्द्रित राजनीति का दौर भी शुरू हुआ जिसे हम लोकप्रिय भाषा में मंडल और कमंडल कहते हैं।

जुलाई 2021 में प्रकाशित कावेरी बमज़ाई की किताब “द थ्री खान्स एंड द इमर्जेंस ऑफ न्यू इंडिया” न केवल इन तीन खान सितारों के उत्थान का लेखा-जोखा पेश करती है जिन्होंने एक मुश्किल पेशे और बदलाव से भरे दौर में प्रभावी जगह बनायी, बल्कि उस दौर के सामाजिक–राजनीतिक बदलावों को भी पकड़ने की कोशिश करती है।

यह किताब ऐसे समय में आयी है जब खुद “स्टारडम” का खिताब ही संकट का सामना कर रहा है। इधर कोविड और ओटीटी प्लेटफॉर्म ने मनोरंजन की दुनिया के गणित में भारी उलटफेर कर दिया है। खुद खान सितारे डिजिटल और वास्तविक दोनों दुनियाओं में योजनाबद्ध हमले के शिकार हो रहे हैं।

2014 में स्वतंत्र हुए लोगों का ऐतिहासिक संकट

तीनों खानों में कुछ मामलों में अनोखी समानता है, खान उपनाम और स्टारडम साझा करने के अलावा तीनों 1965 की पैदाइश हैं, लेकिन इसके बाद वे हर मामले में बिलकुल अलग और एक दूसरे के विपरीत हैं। शायद यही उनके साझे स्टारडम का राज़ भी है। फिल्मों और निजी जीवन में तीनों की बिलकुल अलग छवि है। जहां शाहरुख़ ख़ान की फिल्मों में “किंग ऑफ रोमांस” और निजी जीवन में “फैमिली मैन” की छवि है वहीं सलमान खान मासूम रोमांटिक हीरो से गुजर कर दबंग ऐक्शन हीरो की छवि बना चुके हैं, निजी जीवन में भी वे “बैड बॉय” से “रॉबिनहुड भाई” का सफर तय कर चुके हैं। आमिर खान ने अपनी छवि “मिस्टर परफेक्शनिस्ट’’ की बना रखी है जो निजी जीवन में निजतापसंद और “लो प्रोफाइल” हैं।  

फिल्मों में शाहरुख खान का उदय किसी परिकथा की तरह है। वह मुम्बई सिनेमा के लिए दिल्ली से आया एक बाहरी लड़का था जिसने अपनी मेहनत और जूनून के बल पर शीर्ष को अपना मुकाम बना लिया। वे सही मायनों में पहले “एनआरआइ नायक” थे जिन्होंने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), परदेस (1997) और स्वदेस (2004)  जैसी फिल्मों के बल पर पूरी दुनिया में बसे भारतीयों को आकर्षित किया और उन्हें अपनी जड़ों को लेकर खुश होने का मौका दिया।

आमिर खान ने खुद को मध्यवर्गीय नायक के रूप में उभारा, जिसे लगान (2001) ने पुख्ता कर दिया। लगान की कहानी में ग्रामीण भारतीय कुछ समय के लिए अपने सामाजिक विभाजनों को भूल कर क्रिकेट के माध्यम से अंग्रेज हुकूमतदानों का मुकाबला करते हैं। इसके बाद आमिर एक के बाद एक लगातार ऐसी फिल्मों के साथ सामने आते हैं जो हमेशा एक संदेश देती हैं: तारे ज़मीं पर (2007), थ्री  ईडियट्स (2009), दंगल (2016) जैसी फिल्में बहुत ही प्रभावशाली तरीके से मनोरंजन के साथ–साथ सन्देश भी देती हैं। टेलीविजन पर भी आमिर खान सत्यमेव जयते (2012) जैसे शो के साथ आते हैं।

सलमान खान “मास हीरो” हैं- एक ऐसा नायक जिसकी ताकत उसकी स्टाइल और स्वैग में है। वे एक तरह से नये युग के मजदूर वर्ग के नायक हैं। उन्हें यह छवि तेरे नाम (2003) से मिली जो तमिल फिल्म सेतु (1999) का रीमेक थी। वे गंभीर दर्शकों और फिल्म आलोचकों को भले ही न सुहाते हों लेकिन इससे उनकी जन अपील कभी प्रभावित नहीं हुई, हालाकि पिछले वर्षों में उनकी बजरंगी भाईजान (2015) और सुल्तान (2016) जैसे फिल्में भी आती हैं जिसमें वे चौंकाते हैं।


पुस्तक: “द थ्री खान्स: एंड द इमर्जेंस ऑफ न्यू इंडिया”

लेखक: कावेरी बमज़ाई

भाषा: अंग्रेजी

प्रकाशक: वेस्टलैंड नॉन-फिक्शन


आखिर क्या वजह है कि तीनों खान अपनी मुस्लिम पहचान के बावजूद साम्प्रदायिक उभार के इस दौर में लोकप्रिय और स्थायी सितारे बन गए और इतने साल बाद भी मनोरंजन की दुनिया के लिए इतने प्रासंगिक बने हुए हैं?

गौरतलब है कि हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर में कलाकार अपना नाम बदलकर काम करते थे और इसमें सबसे बड़ा नाम अभिनय सम्राट दिलीप कुमार का है जिनका मूल नाम यूसुफ खान था। उस दौर के कई और प्रमुख सितारे हैं, जो थे तो मुसलमान लेकिन बॉलीवुड में उनकी पहचान और हैसियत हिन्दू नाम से बनी। इस चलन के पीछे यह दावा किया जाता है कि उस समय मुसलमान ऐक्टर हिंदू नाम इसलिए रख लेते थे क्योंकि उन्हें डर था कि अगर दर्शकों को उनके मुसलमान होने का पता लग गया तो उनकी फिल्म देखने कोई नहीं आएगा, हालांकि इस दावे को लेकर भी कई सवाल हैं।  

बहरहाल, नब्बे के दशक के बाद से अभी तक का दौर भारतीय समाज के साम्प्रदायिक विभाजन का दौर है जिसकी शुरुआत बाबरी मस्जिद ढाँचे के टूटने से हुई और 2002 के गुजरात दंगे से होते हुए जिसकी परिणति 2014 के बाद से सामाजिक-राजनीतिक रूप से दक्षिणपंथियों के हावी होते जाने में हुई। इसी के साथ यह विरोधाभास भी देखिए कि नब्बे के दशक में अपने आगमन के बाद से “खानत्रयी” (सलमान, शाहरुख, आमिर) भी लगातार बॉक्स ऑफिस पर राज कर रही है। वे अपने मूल नाम से फिल्मों में हैं और दर्शक भी उन्हें भरपूर प्यार दे रहे हैं।  इतने व्यापक ध्रुवीकरण वाले समय में भी हिंदी सिनेमा की इस अनोखी स्थिति को लेकर हिन्दुत्ववादी जब इसे बॉलीवुड का इस्लामीकरण हो जाने की संज्ञा देते हैं तो उनकी चिढ़ समझी जा सकती है।

आज तीनों खान साठ के होने के करीब हैं, लेकिन उनकी जिंदगी का तकरीबन एक- चौथाई बॉलीवुड पर राज करते बीता है और अधेड़ हो जाने के बावजूद दर्शकों के बीच उनकी चमक बनी हुई है। इस उम्र में भी ये तीनों ख़ान नयी पीढ़ी को अपनी जगह बनाने में भी कड़ी चुनौती दे रहे हैं। इन तीन सितारों की अभूतपूर्व लोकप्रियता हैरान कर देने वाली है। वे हमें पुरानी सुपरस्टार तिकड़ी राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की याद दिलाते हैं।

लम्बे समय तक इन तीनों सुपरस्टारों के उदय का इस्तेमाल भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को रेखांकित करने के लिए एक ढाल के रूप में किया जाता रहा, लेकिन आज जब नया भारत बन चुका है तब उनकी ढलती उम्र के अलावा उनकी धार्मिक पहचान ही उनके रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट बन चुकी है।



इन तीनों के बारे में लगातार लिखा जाता रहा है। इनसे जुड़े विवादों से लेकर अफवाहों और फिल्मों तक के बारे में बहुत कुछ पहले से ही लिखा और कहा जा चुका है। ऐसे में पहला सवाल यह उठता है कि इन तीनों पर आधारित एक किताब नया क्या पेश कर सकती है?

इस मामले में कावेरी बमज़ाई निराश नहीं करती हैं। उनकी किताब इन तीनों खानों के बनने के साथ-साथ उस समय की सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को भी बहुत ख़ूबसूरती से जोड़ते और समेटते हुए चलती है। करीब ढाई सौ पेज की यह किताब सिर्फ जीवनी नहीं, बल्कि बीते तीन दशक के भारत का एक सामाजिक दस्तावेज भी है। पुस्तक के शीर्षक में “नये भारत का उदय” आकस्मिक नहीं है। यहां नये भारत का उदय राजीव गांधी के काल, उदारीकरण, मंडल, कमंडल की राजनीति‍ की शुरुआत से है। यह 1980 के दशक के अंतिम वर्षों के संदर्भ से शुरू होती है।

वे अपनी इस किताब में तीनों के पेशे के साथ-साथ उनके व्यक्तिगत जीवन और बनावट की भी गहराई से पड़ताल करती हैं और हमें यह समझाने में कामयाब होती हैं कि वे कौन हैं और किस चीज का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही भारतीय दर्शकों पर उनके सामाजिक और भावनात्मक प्रभाव की भी वे जांच करती हैं।

यह किताब केवल खान सितारों के प्रशंसकों के लिए नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए है जो सिनेमा को उसके सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भों के साथ समझना चाहता है। फिलहाल यह किताब केवल अंग्रेजी में है। अच्छा होगा अगर  यह सिनेमा में रूचि लेने वाले हिंदी के पाठकों के लिए भी उपलब्ध हो सके।


लेखक भोपाल स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

About जावेद अनीस

View all posts by जावेद अनीस →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *